डाक्टरों की लापरवाही से सरकारी अस्पतालों में रोगियों को असुविधा और मौतें

Thursday, Jan 16, 2020 - 12:06 AM (IST)

लोगों को सस्ती और स्तरीय शिक्षा एवं चिकित्सा,स्वच्छ पेयजल और लगातार बिजली उपलब्ध करवाना हमारी केंद्र और राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है परंतु ये दोनों ही इसमें विफल रही हैं और इसीलिए सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने तथा सरकारी अस्पतालों में इलाज के दौरान होने वाली लापरवाही के कारण लोग वहां इलाज के लिए जाने से संकोच करते हैं।

09 जनवरी को मोगा के सरकारी अस्पताल के मैटर्निटी वार्ड में एक महिला ने फर्श पर बच्चे को जन्म दिया। उसने आरोप लगाया कि अस्पताल का स्टाफ उसके कराहने की आवाजें सुन कर भी सहायता के लिए नहीं आया।
10 जनवरी को उत्तर प्रदेश में जौनपुर के शाहगंज सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में प्रसव के लिए आई महिला की मौत हो गई। मृतका के परिजनों का आरोप है कि डाक्टरों ने बहुत देर तक उसे देखा ही नहीं जिस कारण उसकी तबीयत बिगड़ती चली गई जो उसकी मृत्यु का कारण बनी।
12 जनवरी को उत्तर प्रदेश के मानीमऊ स्थित सरकारी अस्पताल में प्रसव के लिए आई महिला के शरीर से डाक्टरों की लापरवाही से बहुत देर तक रक्त बहने के कारण उसकी मृत्यु हो गई। मृतका के परिजनों के अनुसार जब उन्होंने डाक्टरों से इसकी शिकायत की तो उन्होंने यह कह कर उन्हें आश्वस्त कर दिया कि जल्दी ही आराम आ जाएगा परंतु हुआ इसके विपरीत।
13 जनवरी को उत्तर प्रदेश में रायबरेली के काजीखेड़ा गांव की एक महिला की नसबंदी आप्रेशन के दौरान बरती गई लापरवाही के परिणामस्वरूप तबीयत बिगड़ जाने से मृत्यु हो गई।
14 जनवरी को फर्रुखाबाद के एक अस्पताल में आप्रेशन थिएटर में घुस कर आवारा कुत्ते ने वहां सिजेरियन आप्रेशन से जन्मे बच्चे को नोच-नोच कर मार डाला। 
14 जनवरी को ही मध्य प्रदेश में शहडोल के बच्चा वार्ड में 12 घंटों के भीतर 6 नवजात बच्चों की मृत्यु का खुलासा हुआ।

उपरोक्त उदाहरणों से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि स्टाफ, बुनियादी ढांचे की कमी और कुप्रबंधन के शिकार हमारे सरकारी अस्पताल किस कदर बदहाली के शिकार हो चुके हैं। डाक्टरों को कम से कम 60 हजार से 2 लाख रुपए या उससे भी अधिक मासिक वेतन मिलने के बावजूद करोड़ों रुपयों की लागत से निर्मित सरकारी अस्पतालों की यह दुर्दशा निश्चय ही एक ज्वलंत समस्या है जो दूर होनी चाहिए।  —विजय कुमार

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