जाति न पूछो... पूछ लीजिए ज्ञान

Monday, Jun 03, 2019 - 02:12 AM (IST)

तड़वी भील महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान की एक जनजाति है जो बड़े भील समुदाय का एक हिस्सा हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार देश में 700 जनजातीय समूह हैं जिनकी संख्या 10 करोड़ 40 लाख है और अफ्रीका के बाद दुनिया में इनकी यह दूसरी सबसे बड़ी संख्या है। 

यह नहीं भूलना चाहिए कि इंडो-आर्यन्स के आने से बहुत पहले से वे भारत के मूल वासी हैं। जंगलों की अंधाधुंध कटाई तथा औद्योगिकीकरण के चलते उनकी जमीनें तथा जीवन-यापन के साधन उनसे छिन गए। आधुनिक भारत में उनमें से अनेक को अनुसूचित जाति-जनजाति (एस.सी./एस.टी.) का दर्जा मिला। संविधान में उनका उल्लेख ‘ऐतिहासिक रूप से भारत के पिछड़े निवासी’ के रूप में किया गया है। दुख की बात है कि आधुनिक तथा शिक्षित भारत में अब भी उन्हें एक सम्मानित स्थान नहीं मिला है। 

हाल ही में मुम्बई के बी.वाई.एल. नायर अस्पताल में दूसरे वर्ष की रैजीडैंट डाक्टर पायल तड़वी ने सहपाठी डाक्टरों द्वारा जाति तथा धर्म को लेकर की जाने वाली मानसिक प्रताडऩा के चलते आत्महत्या कर ली। 22 मई को अपने होस्टल के कमरे में उनकी लाश लटकी हुई मिली। उन्हें परेशान करने वाले दोषी डाक्टरों भक्ति मेहरे, हेमा आहूजा और अंकिता खंडेलवाल को मुम्बई सैशन्स कोर्ट ने 31 मई तक पुलिस हिरासत में भेज दिया है। 

यह सब उस पेशे में हुआ जिससे दूसरों के दर्द के प्रति संवेदनशील होने तथा जानें बचाने की अपेक्षा की जाती है। एक त्रासदी के अलावा यह उस विशेषाधिकृत वर्ग की बीमार मानसिकता का संकेत है जो खुद को अच्छे जीवन का अधिकारी समझते हैं। आज हम सब भारतीयों को खुद से यह प्रश्न पूछने की जरूरत है कि यह मानसिकता आती कहां से है? खुद को श्रेष्ठ समझने की यह सोच परिवार, समाज या शिक्षा, कहां से मिल रही है? क्या हम एक सिस्टम के अंतर्गत पिछड़ों के प्रति घृणा का प्रसार कर रहे हैं क्योंकि यह ऐसा पहला मामला नहीं है। 

वास्तव में गत 10 वर्षों में यह कहानी हर राज्य के लॉ कालेजों, इंजीनियरिंग कालेजों से लेकर आई.आई.टीज में घटित होती रही है। तो क्या दोष हमारी स्कूली शिक्षा में है? यदि स्वतंत्रता के 70 वर्षों में भी हम ‘सभी के लिए समानता’ अथवा सभी के लिए आदर का पाठ नहीं पढ़ा सके हैं तो अब तक हमने पढ़ाया क्या है? अगर जिंदा रहती तो डा. पायल कैंसर से लड़ रही अपनी मां, रिटायर होने वाले पिता और दिव्यांग भाई का सहारा बनती, वास्तव में वह अपने गांव की पहली महिला रोग विशेषज्ञ होती। बड़े ही दुख की बात है कि उसकी मां तथा पति की शिकायत के बावजूद सीनियर्स के बुरे बर्ताव से डा. पायल की रक्षा के लिए अस्पताल प्रबंधन, सहयोगियों व सहपाठियों ने कुछ नहीं किया। तो क्या मैडीकल कालेजों में हम ऐसे ही अमानवीय डाक्टरों की फौज तैयार कर रहे हैं?

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