दिल्ली दंगे - भारत के मूल तत्व पर चोट

Monday, Mar 09, 2020 - 02:13 AM (IST)

यह 100वां वर्ष है जब महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन शुरू करने के लिए पहली बार सारे देश -हिन्दू, मुस्लिम, सिख तथा जैन-को एकजुट किया। लोगों ने 1 अगस्त, 1920 को सत्याग्रह तथा अङ्क्षहसा के सिद्धांत को तो समझा ही, उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि ‘हम बनाम तुम’ की भावना जड़ से समाप्त हुई। एकजुट होकर सारा देश अहिंसक ढंग से विरोध करने के लिए घरों से बाहर उमड़ पड़ा जो शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य के लिए एक भारी झटका था। तो क्यों आज हम भूल रहे हैं कि दिल्ली के हालिया दंगों ने भारत के मूल तत्व पर चोट की है? ‘हम बनाम तुम’ की बहस ने हर स्तर पर एक नया रूप ले लिया है। यदि एक ओर वीडियो में लोग ताहिर हुसैन के घर की छत से ईंटें तथा एसिड बॉल फैंकते नजर आ रहे थे तो दूसरी ओर मोहन नॄसग होम की छत से ऐसा ही कर रहे राष्ट्र विरोधी तत्व भी मौजूद थे। 

यमुना विहार बनाम चांद बाग जैसे हिन्दू बहुल तथा मुस्लिम बहुल इलाकों में मरने वाले लोगों की संख्या जो भी हो वे सब क्या भारतीय नहीं थे? वास्तव में यह बात बेहद दुखद है कि अब मारे गए तथा घायलों के लिए न्याय की मांग अथवा हिंसा के शिकार लोगों के पुनर्वास तक की बात नहीं हो रही है। दंगों, जिनसे पहले नफरत भरे बयानों की झड़ी लग गई, में हथियारबंद समूहों ने जम कर हिंसा का नंगा नाच किया। दंडित होने से भयरहित युवाओं, असभ्य, प्रशिक्षित दंगाइयों की भीड़ ने स्कूलों, मकानों यहां तक कि धार्मिक स्थलों को तबाह करते हुए खुलेआम बर्बरता दिखाई। इससे भी अधिक पीड़ा की बात है कि लोगों को जला देने का दंगाइयों का दुस्साहस दर्शाता है कि यह सब यहीं खत्म नहीं होगा। अब तक अधिक दंगाइयों को गिरफ्तार नहीं किया गया है जबकि सभी को किया जाना चाहिए था। तो क्या अब हम दंगाइयों पर कार्रवाई भी धर्म की नजर से करेंगे। 

तुर्क लेखिका इस तेमेलकुरान अपनी किताब ‘हाऊ टू लूज ए कंट्री 7 स्टैप्स’ में लिखती हैं कि ‘जब भाषा को दरकिनार, विरोधी विचारों को दबाया तथा सत्य को खत्म किया जाता है तो धीरे-धीरे न्यायिक प्रणाली की धार खत्म होने लगती है और उसके बाद होने वाली हिंसा राष्ट्र के अंधकारमय भविष्य की शुरूआत कर देती है।’ ऐसे वक्त में सरकार, कानून, विपक्ष और जाहिर है लोग भी यदि संवेदना, न्याय तथा मदद के लिए आगे नहीं आते हैं तो हमें और निर्दयी दंगों का सामना करना होगा। रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं 
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध 
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।

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