दिल्ली नगर निगम चुनाव ‘आप’ के अरमानों पर फिरा झाड़ू

Wednesday, Apr 26, 2017 - 10:20 PM (IST)

दिल्ली नगर निगम विश्व के सबसे बड़े नागरिक निकायों में से एक है। कुछ ही समय पूर्व सम्पन्न महाराष्ट्र के स्थानीय निकाय चुनावों तथा पांच राज्यों के चुनावों में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में सफलता के बाद 23 अप्रैल को हुए दिल्ली नगर निगम के चुनावों में भी भाजपा ने अभूतपूर्व सफलता प्राप्त कर ली है। 

इन चुनावों में जहां भाजपा ने 270 में से 181 सीटें जीत कर 2012 में जीती 138 सीटों से भी बेहतर प्रदर्शन किया वहीं ‘आप’ को मात्र 48 सीटें जीत कर दूसरे स्थान पर ही संतोष करना पड़ा और कांग्रेस 30 सीटों के साथ तीसरे स्थान पर लुढ़क गई, जबकि अन्यों को 11 सीटें मिलीं। इन चुनावों में उतरी मुख्य पार्टियों की हार-जीत का जायजा लेने पर यह बात खुल कर सामने आई कि भाजपा नेतृत्व ने पार्टी में सभी प्रकार की अंतर्कलह व गुटबाजी को समाप्त करके पूर्ण अनुशासित रूप से चुनाव लड़ा। यहां तक कि पिछली बार के सभी विजेता पार्षदों के टिकट काट देनेे पर भी किसी ने चूं तक नहीं की और एकजुट होकर पार्टी उम्मीदवारों के लिए काम किया। कांग्रेस और ‘आप’ दोनों ही में स्थिति इसके विपरीत थी तथा इनमें फूट, अंतर्कलह और असंतोष शिखर पर थे। 

पिछले चुनावों में 77 सीटें जीतने वाली कांग्रेस को इस बार फिर निराशा का ही सामना करना पड़ा। ‘बे-चेहरा’ हो चुकी और अपनी जमीन तलाश रही कांग्रेस अंतर्कलह और फूट का तो पहले ही शिकार थी, एम.सी.डी. के चुनावों से ठीक पहले इसके 3 बड़े प्रादेशिक नेताओं के पार्टी से त्यागपत्र ने रही-सही कसर पूरी कर दी। पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरविन्द्र सिंह लवली, दिल्ली युवक कांग्रेस के अध्यक्ष अमित मलिक तथा प्रदेश महिला कांग्रेस की अध्यक्ष बरखा शुक्ला ने न सिर्फ अपने पदों से त्यागपत्र देकर भाजपा का दामन थाम लिया बल्कि राहुल गांधी और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन पर जमीनी कार्यकत्र्ताओं की उपेक्षा करने और उनकी बातें न सुनने जैसे आरोप भी लगाए। 

2015 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में 70 में से 67 सीटें जीत कर इतिहास रचने वाली ‘आप’ को चुनावों में वैसी सफलता की उम्मीद तो नहीं थी पर इतनी दुर्गति होने की भी आशा नहीं थी। सबका कहना है कि पार्टी को अरविंद केजरीवाल की अति महत्वाकांक्षा व वर्करों की उपेक्षा ले डूबी। बेशक केजरीवाल ने दिल्ली की सत्ता संभालने के बाद जनता को बिजली-पानी के बिलों में कुछ राहत दी व मोहल्ला क्लीनिक खोले परंतु अपने कार्यकाल की अधिकांश अवधि में वह अपने लक्ष्य से भटके हुए और अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं को पालते-पोसते ही दिखाई दिए। 

न सिर्फ केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और दिल्ली के दोनों उप-राज्यपालों नजीब जंग और अनिल बैजल के विरुद्ध मोर्चा खोले रखा और उनके विरुद्ध नकारात्मक प्रचार करते रहे बल्कि अपनी पार्टी में उठने वाले विरोधी स्वरों को भी दबाते चले गए। इसी कारण केजरीवाल के सर्वाधिक विश्वसनीय साथियों में से एक कुमार विश्वास ने भी इन चुनावों में पार्टी के लिए प्रचार नहीं किया और गत दिवस किसी बात पर यहां तक कह दिया, ‘पार्टी जाए भाड़ में’। दिल्ली पर ध्यान देकर अपनी स्थिति मजबूत करने की बजाय केजरीवाल ने अपनी गतिविधियों को समय से पहले ही विस्तार देना शुरू कर दिया जिससे दिल्ली की उपेक्षा हुई। अपनी सरकार की कारगुजारी को प्रचारित करने के लिए मीडिया में चलाए गए उनके प्रचार अभियान का भी लोगों में सकारात्मक की बजाय नकारात्मक संदेश ही गया। 

परिणाम यह हुआ कि पंजाब और गोवा के चुनावों में तो ‘आप’ को मुंह की खानी पड़ी ही, दिल्ली की जनता में भी अरविंद केजरीवाल अपनी विश्वसनीयता गंवा बैठे। अरविंद केजरीवाल द्वारा अपने पुराने साथियों अन्ना हजारे, किरण बेदी, रामदेव, शांति भूषण और प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव, सुच्चा सिंह छोटेपुर, डा. धर्मवीर गांधी तथा हरिन्द्र सिंह खालसा आदि से दूरी बनाना और उनकी नाराजगी मोल लेना भी महंगा पड़ा। कुल मिलाकर ‘आप’ ‘वन टाइम वंडर’ ही सिद्ध हुई व उतनी ही तेजी से हाशिए की ओर बढ़ रही है जितनी तेजी से उभरी थी। 

लोगों ने इस आशा में उनकी पार्टी को वोट दिया था कि इससे लोकतंत्र मजबूत होगा और नि:संदेह अरविंद केजरीवाल में कुछ तो है जिस कारण वह दिल्ली के विधानसभा चुनावों में भारी सफलता प्राप्त कर सके थे तथा लोकसभा के चुनावों में भी उनकी पार्टी ने 4 सीटें जीत लीं परंतु बाद में उनकी कार्यशैली में खामियां आ जाने से उनकी पार्टी की यह हालत हुई। लिहाजा वह आत्म मंथन करें और पार्टी में घर कर गई खामियां दूर करें।—विजय कुमार

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