मंदिर-मस्जिद में उलझे न्यायालय और संसद

punjabkesari.in Tuesday, Sep 10, 2024 - 05:31 AM (IST)

वक्फ संशोधन विधेयक आज संयुक्त संसदीय समिति के पास विचाराधीन है। इससे पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रसन्न करने का प्रयास प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लाल किले की प्राचीर से करते हैं। सैक्युलर नागरिक संहिता, समान नागरिक संहिता व वक्फ कानून पर बहस छिडऩे का असर दिख रहा है। कई सांसदों के विरोध के बाद 90 के दशक में एक दिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे जगदंबिका पाल के नेतृत्व में 31 सदस्यों की संसदीय समिति बनाई गई है। सितम्बर के पहले सप्ताह में इसकी तीसरी बैठक 2 दिन चलती है। वक्फ से जुड़े नेताओं के साथ विचार-विमर्श की यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया चर्चा में है। इसके लिए व्यापक समर्थन जुटाने की चुनौती आज सरकार के सामने है। दूसरे धर्मावलंबियों को वक्फ बोर्ड से बाहर रखने की मांग हो रही है। 

संविधान में वर्णित धार्मिक स्वतंत्रता का सवाल विमर्श के केंद्र में है। मंडल कमीशन और दलितों के आरक्षण को समर्थन देने के बदले विरोध की नीति के कारण ही सवर्ण जातियों की राजनीति हाशिए पर बढ़ती गई। ऐसी ही भूल आज पिछड़ों के आरक्षण से क्रीमीलेयर को बाहर करने के सुप्रीमकोर्ट के फैसले पर दोहराती दिखती है। क्या जातियों की तरह धर्म के नाम पर भी ऐसा होगा? अब वक्फ संशोधन विधेयक यह सवाल खड़ा करता है। इसी बीच इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बहुसंख्य समाज के मंदिर से जुड़े मामले में उल्लेखनीय निर्देश जारी किया है। मथुरा वृंदावन के 197 प्रसिद्ध मंदिरों का दीवानी अदालतों में लंबित मुकद्दमा सामने है। इनमें सबसे पुराना 1923 से लंबित है। इनमें न्याय के बदले रिसीवर नियुक्त करने के फैसले पर उच्च न्यायालय कड़ी आपत्ति जताता है। इलाहाबाद हाईकोर्ट अवमानना के जिस केस में यह फैसला देती है वह 25 साल से लंबित है। हैरत की बात है कि रिसीवर की नियुक्ति के अलावा इसमें वादकारी का बयान ही अब तक दर्ज किया जा सका है। कानूनी संस्थान का रूप ले चुके ऐसे ही सेफ्टी वाल्व को भांप कर एक न्यायमूर्ति किसी बड़े शायर का नाम लेकर कहते हैं, 

‘‘हम से इंसाफ चाहते हो, तुम्हारी नादानी है,
हम उस अदालत के हाकिम हैं, जो दीवानी है।’’
न्यायमूर्ति रोहित रंजन अग्रवाल जिलाधीश से स्थानीय स्तर पर विचाराधीन मुकद्दमों की सूची पर जवाब मांगते हैं। रिसीवर के नाम पर पुराने मंदिरों का प्रबंधक बनने की होड़ अधिवक्ताओं में लगी है। मुकद्दमा निपटाने के बदले लम्बित करने में इनकी दिलचस्पी रहती है। रिसीवर के रूप में वेद और शास्त्रों के विद्वानों को इनके बदले नियुक्त करने की सलाह देते हैं। पश्चिमी देशों की तरह धार्मिकता से नई पीढ़ी की दूरी आज भारत में भी दस्तक दे रही है। न्याय और धार्मिक पीठ माने जाने वाले मंदिरों की इस स्थिति से सामूहिक असफलता की गाथा सामने आती है। भविष्य में हिंदुओं की धार्मिक पीठों का पतन न हो, इस उद्देश्य से कई महत्वपूर्ण बातें हाईकोर्ट सुझा रही है। लेकिन इनकी स्थिति संविधान में वर्णित नीति निर्देशक तत्व से ज्यादा नहीं है। अंग्रेजों ने तिरुपति बालाजी और जगन्नाथ पुरी जैसे मंदिरों को प्राप्त होने वाले दान पर कब्जा करने के लिए कानून बना दिया था। आज भी इन मंदिरों में सरकारी दखलंदाजी जारी है। इसकी खिलाफत करने वाले हिन्दू समाज में कम नहीं हैं। किसी मस्जिद और गिरजाघर की तरह हिंदुओं की धार्मिकपीठों की स्वायत्तता कायम करने की पहल पर सरकार मौन है। 

वक्फ बोर्ड की विवादित संपत्ति का मुकद्दमा आज मथुरा वृंदावन के मंदिरों की तरह किसी सेफ्टी वाल्व में फंसता प्रतीत होता है। इमाम को सरकारी खजाने से वेतन देने के लिए सन 1993 में सुप्रीम कोर्ट ने ही कहा था। मंदिर के पुजारियों की ओर से भी ऐसी मांग उठने लगी है। उत्तर आधुनिक काल में केवल पीर-फकीर और मौलवी ही नहीं, बल्कि साधु-संत और पुजारी पंडित के बीच भी सर्वहारा जैसी दुर्दशा झेलने वाले लोग अच्छी-खासी संख्या में मौजूद हैं। धार्मिक पीठों से होने वाली आय का वितरण इन लोगों के बीच भी करना चाहिए। कम पडऩे पर लोक कल्याण का दावा करने वाली सरकार को इसे खजाने से पूरा करना चाहिए। कांग्रेस पार्टी के न्याय पत्र से लेकर भाजपा के संकल्प पत्र तक में इस उदारता की कमी आज अखरती है। 

जहां तक मंदिर मस्जिद की संपत्ति का मामला है, इसमें अयोध्या से लेकर मथुरा और काशी तक अवैध कब्जे का मामला अर्से से सुॢखयों में रहा है। प्राय: सभी धर्म अवैध कब्जेदारी का विरोध करते हैं। इस मामले में बात करते हुए आजादी का वह दायरा याद रखना चाहिए जो यह सिखाता है कि कहां पर दूसरे की आजादी की सीमा शुरू होती है। धार्मिक स्थल के पीछे बड़ी उदार और पवित्र धारणा रही है। लेकिन रूढिय़ों और स्वार्थ से ग्रस्त रहने पर मुक्ति का मार्ग प्रशस्त नहीं होता है। भारतीय संविधान की सैक्युलर आत्मा धर्म को निजी मामला मान राजनीति की परिधि से बाहर कर देती है। समानता व उदारता की तमाम बातों के साथ तुष्टीकरण की राजनीति इस पर हावी है। ईसाइयत और इस्लाम ही नहीं बल्कि हिन्दू धर्म भी राजनीतिक अवधारणा साबित हुई। क्या वामपंथ और इस्लाम का बेमेल निकाह इसी जगह पर संपन्न नहीं हुआ? रूढिय़ों में फंसे तथाकथित धर्मों के शाश्वत धर्म से वास्तविक संबंध पर सवाल उठते रहे हैं। सनातन ही केवल शाश्वत धर्म का पर्याय है। अन्य पंथों के विषय में क्या ऐसा कहा जा सकता है? इस पर विमर्श धार्मिक स्वतंत्रता के अनुच्छेद 25 से 28 तक की गिनती में सिमट गया है। 

धर्म व जाति की राजनीति में लग कर भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश के बाद खालिस्तान जैसी संभावनाओं का ही दूसरा नाम साबित होगा। इस बात को ध्यान में रख कर यदि राजनीतिक जमात सभी धर्मों और जातीय समूहों को भरोसे में लेकर समझदारी का परिचय दे तो अच्छा होगा। यहां एक प्रश्न उठता है। यह काम करने में यदि सरकार समर्थ नहीं है तो क्या विपक्ष में ऐसी क्षमता विकसित हो गई है? धर्म और जाति की विविधताओं को संज्ञान में रखने के साथ पड़ोसी देशों के साथ बेहतर और विश्वसनीय संबंध भी जरूरी है। जमीन पर धर्म की राजनीति का अर्थ मंदिर और मस्जिद से लेकर गिरजा, गुरुद्वारा और मसान तक पसरा हुआ है। विचारधारा व संगठन के बीच की राजनीति वैमनस्य व विभाजन के समीकरणों पर केंद्रित है। धार्मिक स्थानों के प्रबंधन में किसी सरकार और दूसरे धर्म को मानने वालों की दखलंदाजी ठीक नहीं है।-कौशल किशोर


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