पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को राज्यसभा के लिए नामित करने पर विवाद

Thursday, Mar 19, 2020 - 02:50 AM (IST)

161 वर्षों से लंबित चले आ रहे अयोध्या के राम जन्म भूमि विवाद का 9 नवम्बर, 2019 को ‘राम लला विराजमान’ के पक्ष में ऐतिहासिक फैसला सुनाने वाले सुप्रीमकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ने अनेक महत्वपूर्ण मामलों पर फैसले सुनाए हैं। उन्होंने असम में वर्षों से लंबित एन.आर.सी. कानून लागू करवाया और राफेल लड़ाकू विमान की खरीद में भाजपा सरकार को क्लीन चिट दी। इससे पूर्व 10 जनवरी, 2018 को सुप्रीमकोर्ट के 3 अन्य वरिष्ठ जजों के साथ श्री रंजन गोगोई ने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के विरुद्ध संयुक्त संवाददाता सम्मेलन करके उन पर न्यायपालिका की स्वायत्तता से खिलवाड़ करने का आरोप लगाया था। 

बहरहाल 17 नवम्बर, 2019 को रिटायर होने के 4 महीनों के भीतर ही न्यायमूर्ति रंजन गोगोई को राज्यसभा की सदस्यता के लिए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद द्वारा नामित किए जाने पर विवाद उठ खड़ा हुआ है। कांग्रेस तथा अन्य विरोधी दलों ने इसकी आलोचना करते हुए कहा है कि ‘‘सरकार के इस निर्लज्ज कृत्य ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को हड़प लिया है।’’ पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल के अनुसार, ‘‘जस्टिस गोगोई ने मुख्य न्यायाधीश रहते हुए रिटायरमैंट के बाद पद ग्रहण करने को संस्था पर धब्बे जैसा बताया था।’’माकपा ने इसे न्यायपालिका को कमजोर करने का शर्मनाक प्रयास करार दिया है। 

सुप्रीमकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश कुरियन जोसेफ ने कहा है कि ‘‘यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता में आम लोगों का विश्वास हिलाकर रख देने वाला फैसला है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता के ध्वजारोही जस्टिस रंजन गोगोई ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता के महत्वपूर्ण सिद्धांतों से कैसे समझौता कर लिया? निश्चित रूप से इससे न्यायपालिका के प्रति आम लोगों का विश्वास कम हुआ है।’’ रंजन गोगोई के मनोनयन के विरोधी पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण जेतली के संसद में दिए 2012 के बयान का हवाला भी दे रहे हैं जिनका कहना था कि ‘‘ रिटायरमैंट के ठीक पहले जजों के फैसले रिटायरमैंट के बाद नौकरी की इच्छा से प्रभावित होते हैं।’’ ‘‘रिटायर जजों को सरकार की ओर से नियुक्ति मिल जाए तो ठीक, नहीं तो वे अपने लिए खुद नियुक्ति की जुगाड़ कर लेते हैं, जो अत्यंत खतरनाक है। ’’ ‘‘इसलिए मेरा सुझाव यह है कि रिटायरमैंट के बाद किसी नियुक्ति से पहले 2 साल का अंतराल होना चाहिए और इसे रोकने के लिए यदि जरूरी हो तो उनके अंतिम वेतन के बराबर पैंशन दे दी जाए।’’

पूर्व सांसदों के.टी.एस. तुलसी और अभिषेक मनु सिंघवी ने इसे न्यायपालिका पर हमला बताते हुए कहा कि गोगोई को रिटायर हुए 4 महीने ही हुए हैं अत: यदि वह हमारी नहीं तो कम से कम जेतली की ही सुन लें। परंतु रंजन गोगोई द्वारा राज्यसभा की सदस्यता स्वीकार करने पर आपत्ति करने वाले यह भूल रहे हैं कि अतीत में कांग्रेस भी ऐसा करती रही है। कांग्रेस ने पहली बार असम से हाईकोर्ट के एक जज न्यायमूर्ति बेहरूल इस्लाम को राज्यसभा में भेजा था। 

वह 1962 से 1972 तक राज्यसभा में रहे और फिर 1980 से 1983 तक सुप्रीमकोर्ट में जज रहे और फिर 1983 में राज्यसभा में भेजे गए तथा 1989 तक वहां रहे। 1983 में राज्यसभा में भेजे जाने से एक महीना ही पूर्व उन्होंने बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता जगन्नाथ मिश्र को जालसाजी के एक केस में बरी किया था। यही नहीं, 1984 के सिख विरोधी दंगों की जांच करने और उन दंगों के लिए किसी को भी जिम्मेदार न ठहराने वाले पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंगनाथ मिश्र को भी कांग्रेस ने राज्यसभा में भेजा था जिन पर कांग्रेसी नेताओं को क्लीन चिट देने का आरोप था। 

अलबत्ता रंजन गोगोई ने इस बारे कहा है कि ‘‘राज्यसभा के सदस्य के तौर पर शपथ लेने के बाद मैं अपने मनोनयन पर विस्तार से चर्चा करूंगा। संसद में मेरी मौजूदगी विधायिका के सामने न्यायपालिका के नजरिए को रखने का एक अवसर होगा।’’‘‘इस तरह विधायिका का नजरिया भी न्यायपालिका के सामने आएगा। न्यायपालिका और विधायिका के बीच बेहतर तालमेल लाना मेरा उद्देश्य है।’’ न्यायमूर्ति रंजन गोगोई अपने उक्त कथन पर कितना खरा उतरते हैं यह तो उनके शपथ ग्रहण के बाद ही पता चलेगा कि वह अपने विचारों को किस प्रकार अमलीजामा पहनाएंगे।—विजय कुमार 

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