कांग्रेस ने त्रिपुरा में ‘गैरहाजिर’ रहकर भाजपा का काम आसान कर दिया

Thursday, Mar 08, 2018 - 04:19 AM (IST)

त्रिपुरा में भारतीय जनता पार्टी की विजय और मिजोरम सहित सभी पूर्वोत्तर राज्यों में सत्ता की बागडोर इसके हाथों में आना एक ऐसी सच्चाई है जो इस क्षेत्र में लम्बे समय तक पार्टी की परवरिश के कठिन कार्य की परिणति है। 

लगभग 3 दशक पूर्व पूर्वोत्तर में भारतीय जनता पार्टी का नामोनिशान तक नहीं था। यहां तक कि संघ परिवार के मुठ्ठी भर अति आशावादी लोग ही इस अशांत क्षेत्र में कभी भाजपा के सत्तासीन होने की कल्पना कर सकते थे। इस पूरे क्षेत्र में नस्ली टकराव और भारत के अलग होने की मांग ही सभी बागी गुटों में सांझी कड़ी थी। ये बागी गुट पूर्वोत्तर क्षेत्र के सातों ही राज्यों में सक्रिय थे। 

उसी अवधि दौरान राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आर.एस.एस.) ने इस इलाके में जड़ें जमाने का सफर शुरू किया। स्थानीय लोगों के विरोध के बावजूद अनेक संघ कार्यकत्र्ताओं ने खुद को व्यक्तिगत रूप में चमकाए बिना जनता के विभिन्न वर्गों से सम्पर्क बनाना शुरू कर दिया। उन्होंने मीडिया हस्तियों एवं बुद्धिजीवियों सहित जनता को वैचारिक रूप में प्रभावित करने वाले लोगों से दोस्ती पैदा की। मैं स्वयं 1980 के दशक के अंतिम वर्षों में पूर्वोत्तर में ही कार्यरत था और समय-समय पर मुझे भी इन मीटिंगों में बुलाया जाता था जहां मौजूदा संघ प्रमुख मोहन भागवत और उनके पूर्ववर्तियों में से एक रज्जू भैया सहित कुछ प्रचारक भी मौजूद होते थे। 

बेशक असम में कुछ क्षेत्रीय पार्टियां सक्रिय थीं तो भी जब तक आल असम स्टूडैंट्स यूनियन (आसू) ने राजनीतिक रूप ग्रहण करते हुए असम गण संग्राम परिषद (अगप) के रूप में चुनाव लड़ कर 1985 में खुद सत्ता पर कब्जा नहीं जमा लिया तब तक यहां कांग्रेस पार्टी का ही बोलबाला था। अगप की जीत ने क्षेत्रीय पहचान के संघर्ष को बहुत शक्ति प्रदान की। तब इस क्षेत्र में आर.एस.एस. ने अपनी मौन यात्रा शुरू की और अपने मिशन को कार्यान्वित किया। असम में चूंकि जनजातीय क्षेत्रों को छोड़ कर शेष इलाके में हिन्दुओं का वर्चस्व था और राज्य में बंगाली मुस्लिम आप्रवासियों के विरुद्ध आक्रोश चल रहा था तो ऐसे में संघ का काम आसान हो गया जब आर.एस.एस. और भाजपा जमीनी स्तर पर अपनी तैयारी करते हुए शक्तिशाली होते गए, वहीं अगप तथा कांग्रेस ने लोगों को बहुत अधिक निराश किया। इससे असम में एक राजनीतिक शून्य पैदा हो गया जो भाजपा के लिए एक शुभ संकेत था। 

इस पूरी अवधि दौरान इसने अलग-अलग तरह की पहुंच अपनाकर पूर्वोत्तर के राज्यों में अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी। अपने दम पर अकेले चलने की बजाय इसने गठबंधन बनाए या क्षेत्रीय पार्टियों का समर्थन किया। इसने गौमांस भक्षण सहित उनकी खानपान की परम्पराओं का विरोध न करने की नीति अपनाई। इसने खुद प्रशंसा बटोरने की बजाय क्षेत्रीय पाॢटयों को आगे रखने में ही समझदारी दिखाई। वैसे पूर्वोत्तर में समूचे तौर पर ही भाजपा का अभ्युदय एक उल्लेखनीय उपलब्धि है लेकिन त्रिपुरा में इसकी धमाकेदार जीत सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। बंगालियों के वर्चस्व वाला यह राज्य पिछले 4 दशकों से वामपंथियों द्वारा शासित था। इस पूरी अवधि में 1988 से 1993 के बीच ही कांग्रेस को सत्तासीन होने का मौका मिला था नहीं तो 1978 से लगातार यहां माकपा का शासन चला आ रहा था। 

त्रिपुरा में भाजपा की विजय का श्रेय हर हालत में आर.एस.एस. द्वारा किए गए कठोर परिश्रम तथा केन्द्र में भाजपा की सरकार को जाता है, जिसके बूते कम्युनिस्टों के गढ़ में सेंध लगाने में उन्हें सफलता मिली। त्रिपुरा की सत्ता हथियाने की तैयारियां गत 4 वर्षों से जारी थीं। असम में जीत के बाद इसका ध्यान त्रिपुरा पर केन्द्रित हो गया था। यहां तक कि कांग्रेस जब राज्य में सभी उम्मीदें छोड़ रही लगती थी, तब भी भाजपा समर्पित कार्यकत्र्ताओं का सृजन करने और जीत की रणनीति तैयार करने में रात-दिन जुटी हुई थी। भाजपा त्रिपुरा को कितनी गम्भीरता से ले रही थी, इसका उदाहरण इस तथ्य से भली-भांति मिल जाता है कि गत कुछ वर्षों दौरान केन्द्र के कम से कम 52 केन्द्रीय मंत्रियों ने त्रिपुरा का दौरा किया था। ऐसी रिपोर्टें मिली हैं कि इन यात्राओं के पीछे परिकल्पना यह थी कि कम से कम दो केन्द्रीय मंत्री त्रिपुरा का दौरा करेंगे और राज्य के लिए परियोजनाएं प्रस्तुत करेंगे तथा साथ ही इस तथ्य को रेखांकित करेंगे कि राज्य सरकार किस प्रकार केन्द्रीय अनुदान का पर्याप्त सदुपयोग नहीं कर रही। 

कांग्रेस ने प्रदेश से व्यावहारिक रूप में गैरहाजिर रह कर एक तरह से भाजपा का काम आसान किया। लेकिन ऐसा करते हुए इसकी वोट हिस्सेदारी पिछली विधानसभा की तुलना में 2 प्रतिशत नीचे आ गई। पिछले चुनाव में इसकी वोट हिस्सेदारी 40 प्रतिशत से भी अधिक थी। जबकि इसी अवधि दौरान भाजपा की वोट हिस्सेदारी 2 प्रतिशत से भी निचले स्तर से उठकर 51 प्रतिशत से भी आगे बढ़ गई। लेकिन जीत के जल्दी ही बाद भाजपा कार्यकत्र्ताओं ने जिस प्रकार लेनिन जैसे कम्युनिस्ट नेताओं की प्रतिमाएं खंडित करने तथा माकपा कार्यालयों पर हमले करने सहित जो गुंडागर्दी की वह गम्भीर चिंता का विषय है। इससे भी अधिक सदमे की बात यह है कि भाजपा से संबंध रखने वाले प्रदेश के राज्यपाल तथागत राय ने इन हमलों को ट्वीट के माध्यम से न्यायोचित ठहराते हुए कहा: ‘‘लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई एक सरकार जो काम कर सकती है उसी काम को लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार रद्द कर सकती है।’’ 

फिर भी यह एक शुभ समाचार है कि केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने इस गुंडागर्दी का संज्ञान लिया और नई सरकार के गठन तक राज्यपाल को अमन कानून की स्थिति सम्भालने को कहा। वैसे नए मुख्यमंत्री को यह सुनिश्चित करना होगा कि वह अपनी सरकार और पार्टी के वर्षों के कठोर परिश्रम को आंच न आने दें। राजनीतिक बदलाखोरी तथा हिंसा के रुझान निश्चित रूप से गलत प्रभाव पैदा करेंगे।-विपिन पब्बी

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