अब महाराष्ट्र के चार टुकड़े करने की मांग परंतु छोटे राज्य सर्वसाधन सम्पन्न नहीं होते

Sunday, Mar 27, 2016 - 02:23 AM (IST)

1947 में देश के बंटवारे के समय भारत में लगभग 550 से अधिक देशी रियासतें थीं। इनके शासक आपस में लड़ते रहते थे और इनकी आपसी फूट के कारण ही मुगल लगभग 400 वर्ष तथा अंग्रेज लगभग 200 वर्ष तक भारत पर शासन करने में सफल रहे। 

 
बहरहाल स्वतंत्रता के बाद जूनागढ़, हैदराबाद व कश्मीर को छोड़कर शेष रियासतों ने तो स्वेच्छा से भारतीय परिसंघ में शामिल होने की स्वीकृति दी थी जबकि सरदार पटेल ने इन तीनों रियासतों का भारत में विलय करवाया। 
 
पोट्टी श्रीरामुलू ने 1952 में पृथक आंध्र के लिए व्रत रखा व शहीद हो गए। फिर 1956 में आंध्र प्रदेश का गठन करके हैदराबाद को राजधानी बनाया गया। सन् 1960 में बम्बई से काट कर गुजरात अलग राज्य बनाया गया।
 
सन् 1966 में पंजाब के तीन टुकड़े करके पंजाब, हरियाणा व हिमाचल बनाए गए। इससे खुशहाल इलाका हरियाणा में और सुन्दर इलाका हिमाचल में चला गया और पंजाब के पास सिर्फ सीमांत इलाका रह गया तथा अब पंजाब व हिमाचल दोनों ही केन्द्र से पैसे के लिए गुहार लगाते रहते हैं। 
 
इन दिनों बंगाल में पृथक गोरखालैंड, उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड व महाराष्ट्र को चार हिस्सों में बांटने की मांग की जा रही है। मांग के समर्थकों के अनुसार, ‘‘छोटे राज्यों से सुशासन सुनिश्चित करने के अलावा विकास की गति भी तेज हो सकती है क्योंकि बड़े राज्यों में  शासकों का ध्यान सुदूरवर्ती इलाकों और वहां के लोगों की समस्याओं एवं विकास की ओर नहीं जाता तथा छोटे राज्यों की विकास दर बड़े राज्यों की तुलना में बेहतर है।’’
 
इसके विपरीत ऐसी मांगों के विरोधीे इसे देश की एकता-अखंडता के लिए खतरा मानते हैं। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इसी आधार पर गोरखालैंड के गठन का विरोध कर रही हैं कि ‘‘यदि गोरखालैंड बना भी दिया जाए तो उसके पास संसाधन कहां से आएंगे।’’ एक अन्य नेता का कहना है कि ‘‘छोटे राज्यों के गठन से राजनीतिक अस्थिरता बढ़ेगी।’’
 
इसके बावजूद इन दिनों महाराष्ट्र को चार भागों में बांटने की मांग उठी हुई है। पहले राज्य के महाधिवक्ता श्रीहरि अणे ने यह विषय छेड़ा और अब 24 मार्च को आर.एस.एस. के श्री एम.जी. वैद्य ने यह मुद्दा उठा दिया है।
 
उनके अनुसार,‘‘बेहतर प्रशासन के लिए महाराष्ट्र का विभाजन करके 4 राज्य विदर्भ, पश्चिम महाराष्ट्र, कोंकण और मराठवाड़ा बनाए जा सकते हैं क्योंकि छोटे राज्यों में लोगों को बेहतर शासन उपलब्ध करवाया जा सकता है।’’ आर.एस.एस. की यह मांग नई नहीं है परंतु यह भी सच है कि महाराष्ट्र की सत्ता पर अधिकांशत: पश्चिम महाराष्ट्र का दबदबा रहा है और इसी क्षेत्र के अधिकारियों और राजनीतिज्ञों की संख्या अधिक रही है। 
 
चीनी लॉबी, दूध लॉबी, सहकारिता क्षेत्र, सघन कृषि और पानी के रूप में प्रकृति की इस क्षेत्र पर विशेष कृपा है जबकि इसके मुकाबले में विदर्भ और विशेषकर मराठवाड़ा काफी पिछड़े हुए हैं। अलग विदर्भ की मांग तो लम्बे समय से एक वर्ग द्वारा की जा रही है परंतु राज्य के चारों भाग अपनी आवश्यकताओं के लिए एक-दूसरे पर निर्भर होने के कारण यह किसी भी दृष्टि से व्यावहारिक नहीं हैं। महाराष्ट्र का एक बड़ा हिस्सा लम्बे समय से सूखे की लपेट में है। 
 
बेशक छोटे राज्यों के कुछ लाभ हैं परंतु इनके गठन की राह आसान नहीं है। छोटे राज्यों के गठन में सबसे पहले तो प्रशासनिक खर्चा बहुत बढ़ जाता है और सरकारों में लगातार उठा-पटक होती रहने से चुनावों की नौबत आई रहती है। दूसरी बात यह है कि कोई भी क्षेत्र पूरी तरह सर्वसाधन सम्पन्न नहीं होता और एक क्षेत्र को दूसरे क्षेत्र की आवश्यकता होती है। 
 
बड़ा राज्य होने की स्थिति में एक भाग दूसरे भाग की आवश्यकताओं की पूर्ति आसानी से कर सकता है। इसलिए स्थिर सरकार, सार्वजनिक कोष की बचत, कुशल प्रशासन और जनता की बेहतरी के लिए बड़े राज्यों का होना ही अधिक बेहतर है।                        
 
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