अब बहुजन समाज पार्टी में भी फूटने लगा ‘असंतोष का लावा’

Tuesday, Jul 05, 2016 - 01:27 AM (IST)

यह सही है कि किसी भी राजनीतिक दल को मजबूत करने में उसके सदस्यों का योगदान होता है और उन्हें अपने दल से अनेक शिकायतें भी हो सकती हैं परन्तु इसी कारण अपने अभिभावक दल को छोडऩे या किसी दूसरे दल में जाने की बजाय पार्टी में रह कर ही उन बुराइयों के विरुद्ध आवाज उठानी चाहिए। 

 
जनप्रतिनिधियों को समझना चाहिए कि जिस दल ने पाल-पोस कर उन्हें उच्च रुतबे तक पहुंचाया, उसे छोड़ कर दूसरे दल में जाने वाले नेताओं की निष्ठा पर भी प्रश्रचिन्ह लग जाता है। उन्हें दूसरे दल में सम्मान नहीं मिलता और कई बार उन्हें अभिभावक दल में ही लौटने को विवश होना पड़ता है।
 
‘सपा’ के संस्थापक सदस्य रहे बेनी प्रसाद वर्मा 2007 में ‘सपा’ छोड़कर 2009 में कांग्रेस में चले गए और 12 जुलाई 2011 को उन्हें कांग्रेस नीत केंद्र सरकार में इस्पात मंत्री बनाया गया परन्तु 13 मई, 2016 को वह एक बार फिर कांग्रेस छोड़कर सपा में लौट आए और जिस तरह ‘सपा’ छोडऩे के बाद उन्हें मुलायम सिंह और ‘सपा’ में दोष दिखने लगे थे, वैसे ही दोबारा सपा में आने के बाद कांग्रेस में दोष ही दोष नजर आने लगे हैं। 
 
इसी प्रकार 22 जून को उत्तर प्रदेश बसपा के अध्यक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य ने पार्टी में ‘घुटन’ महसूस करते हुए त्यागपत्र दे दिया और मायावती को ‘दलित की नहीं दौलत की बेटी’ बताते हुए उन पर पार्टी टिकटों की नीलामी करने और वर्करों को ‘गूंगा और गुलाम’ बनाने का आरोप लगाया। 
 
इस पर मायावती ने मौर्य को ‘गद्दार’ करार दिया तो मौर्य ने उन्हें ‘महा गद्दार की नानी’ बताते हुए कहा, ‘‘आज जिन्हें हम देवी कहते थे, वह भ्रष्टाचार में डूबी हैं और माल्या की तरह करोड़ों रुपए डकार कर विदेश भागना चाहती हैं।’’
 
अभी ये आरोप-प्रत्यारोप चल ही रहे थे कि 30 जून को उत्तर प्रदेश से ही बसपा के एक अन्य प्रमुख नेता तथा पार्टी के महासचिव आर.के. चौधरी ने पार्टी छोड़ दी और सीधे तौर पर मायावती पर धन उगाही का आरोप लगाते हुए कहा :
 
‘‘वह पार्टी में टिकट बंटवारे को लेकर जमकर रुपए की लूट-खसूट करती हैं। बसपा ‘रियल एस्टेट कम्पनी’ बन कर रह गई है और अब यह वह पार्टी नहीं रही, जो कांशी राम के जमाने में थी।’’
 
इसी शृंखला में तीसरा धमाका 3 जुलाई को हुआ, जब पंजाब में बसपा के महासचिव व पूर्व जिला परिषद सदस्य बलदेव सिंह खैहरा ने बसपा पंजाब के नेतृत्व से ‘दुखी’ होकर  पार्टी से त्यागपत्र देते हुए आरोप लगाया कि : 
 
‘‘पार्टी की बैठकों में सुझाव देने वाले व पार्टी को आगे लेकर जाने वाले किसी भी बसपा वर्कर की कोई भी सुनवाई और पूछताछ नहीं है। ऐसे नेताओं को पार्टी की मींटिगों व रैलियों के दौरान बेहद जलील किया जाता है।’’ 
 
इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी जनप्रतिनिधि द्वारा उठाया जाने वाला ऐसा पग अकारण नहीं हो सकता तथा उसकी नाराजगी में कुछ तथ्य अवश्य ही होता है। फिर भी यदि किसी जनप्रतिनिधि का अपने मूल दल से मोह भंग हो जाए तो उचित यही है कि वह पार्टी छोडऩे की बजाय कुछ देर चुप होकर बैठ जाए और पार्टी नेतृत्व को अपनी समस्या के प्रति आश्वस्त करने की कोशिश करे।
 
इसी प्रकार पार्टी के नेताओं को भी चाहिए कि यदि कोई सदस्य किसी मुद्दे पर अपनी नाराजगी जाहिर करता है तो उसकी बात अनसुनी करने की बजाय उस पर ध्यान देकर उसकी शिकायत दूर करने की कोशिश करनी चाहिए परन्तु अधिकांश मामलों में हो इसके विपरीत रहा है क्योंकि आज नीतियां, सिद्धांत तथा विचार अर्थहीन होकर रह गए हैं। 
 
अभी तक बसपा विद्रोह और असंतोष से बची हुई थी परन्तु अब इसमें भी विभिन्न कमजोरियां घर करती जा रही हैं तथा कार्यकत्र्ताओं और नेताओं में बेचैनी तेज़ी से बढऩे के कारण ही पिछले 12 दिनों में इसके 3 महत्वपूर्ण नेताओं ने त्यागपत्र दे दिए हैं। 
 
निकट भविष्य में उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं और अभी तक तो वहां मुकाबला बसपा व सपा में ही नजर आता था पर अब जबकि भाजपा ने इन चुनावों में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है और कांग्रेस भी प्रियंका गांधी को आगे करके इन चुनावों में पूरी ताकत से कूद पड़ी है, मायावती के लिए पार्टी में फैल रहा उक्त असंतोष आने वाले चुनावों में उन्हें भारी नुक्सान पहुंचा सकता है। 
 
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