‘मां’

Thursday, Jul 09, 2015 - 11:45 PM (IST)

धरती पर आने वाले प्रत्येक शिशु के मुंह से निकलने वाला पहला शब्द ‘मां’ ही होता है और उसके बाद भी जीवन भर हम अपने हर सुख-दुख में यही नाम लेते हैं।

मां स्नेह और वात्सल्य रूपी यही वह ‘कवच’ है जो जीवन भर हर आपदा में हमारी रक्षा करते हुए हमारा पालन-पोषण करता है और जटिल से जटिल स्थिति में सही जीवन जीने की शिक्षा प्रदान करता है। 
 
हमारी मां श्रीमती स्वदेश चोपड़ा ने हमें प्रकृति के सभी आश्चर्यों से अवगत करवाया तथा अपनी शिक्षाओं को और विस्तार देते हुए दूसरों को ‘देने’ की सीख खास तौर पर सिखाई। 
 
उनकी शिक्षाएं कोई प्रवचन अथवा कोई व्याख्यान नहीं होती थीं। उन्होंने अपने कृत्यों से हमारे सामने उदाहरण पेश किया। कालेज में मनोविज्ञान की छात्रा होने के नाते उन्हें मालूम था कि बच्चों से किस प्रकार वार्तालाप और  व्यवहार करना चाहिए परंतु यह उनके अंतर्मन में बसा हमारे प्रति स्नेह था जिसने उन्हें हमारे मन को पढऩे की क्षमता प्रदान की थी। अपने जीवन भर वह हर बात हमें बड़े प्यार से समझाया करतीं। 
 
बड़े होने पर हमने ध्यान दिया कि किस प्रकार वह अपने नित्य के घरेलू कामों में या अपने समाज सेवा के कार्यों में व्यस्त रहती थीं परंतु फिर भी उन्होंने कभी भी, किसी चीज और किसी काम को हमारी आवश्यकताओं से बढ़ कर नहीं माना। चाहे पढ़ाई के दिन हों या पढ़ाई के बाद, जब कभी भी हम बीमार हुए, वह हमारी देखभाल के लिए सदा उपस्थित रहतीं। जब कभी भी हमारे सामने कोई उलझन आई तो उन्होंने हमेशा हमारे सोचने और अपने दम पर उससे निपटने की शिक्षा और क्षमता दी।
 
मम्मी की सकारात्मक विचारधारा ने हमें एक बड़े संयुक्त परिवार में तालमेल बिठाने की योग्यता दी। उन्होंने अपने काम का श्रेय लेने की कभी कोशिश नहीं की और यह कहते हुए सदा दूसरों को श्रेय दिया,‘‘जो कुछ आप काम करके सीख सकते हैं, वह श्रेय लेकर नहीं।’’ 
 
हमारे बचपन की पहली यादों के झरोखे में झांकता हुआ सुरुचिपूर्ण ढंग से वस्त्रावेष्टित मुस्कुराती हुई मां का चेहरा ही बसा है। वह हम दोनों को सदा एक जैसे कपड़े सफेद कमीज, सफेद निक्कर और बो नैकटाई या सफेद कुर्ता-पाजामा ही पहनाती थीं। हम दोनों भाइयों की आयु में मात्र 17 महीनों का अंतर होने के कारण अक्सर लोग हमें जुड़वां समझ लेते थे।
 
हम दोनों भाइयों के बीच हमारी माता जी ने कभी भी प्रतिद्वंद्विता नहीं पनपने दी बल्कि हमें एक-दूसरे के संरक्षक व ‘सपोर्ट सिस्टम’ के रूप में ढालदिया। 
 
आज भी हमारे स्मृति पटल पर अपनी दोनों बांहों में अपने पोतों या पोती को थामे हुए उनका मुस्कुराता हुआ चेहरा अंकित है। वास्तव में उनके इर्द-गिर्द उनके पति, बेटों, बहुओं और पोतों तथा पोती की उपस्थिति ही उनका सम्पूर्ण संसार था और यही उनके अनवरत आत्म संतोष और शांति का स्रोत था। 
 
9 दिसम्बर, 2008 को जब वह बीमार हुईं तो कोमा की स्थिति की ओर बढ़ते हुए अधखुली आंखों से अपनी अद्र्धचेतन अवस्था में भी, हमारे लिए उनके शब्द थे, ''''Wish you all the Best’’ कुछ दिनों के बाद जब उन्हें कुछ होश आया और उनके शरीर में हाथों को हिला सकने जितनी क्षमता लौटी तो उन्होंने अपने हाथ जोड़ दिए जैसे नमस्कार करके अलविदा कह रही हों। 
 
उस दिन के बाद वह कभी भी अपनी पहले जैसी स्थिति में नहीं लौट पाईं।  कुछ दिन बाद 14 दिसम्बर को हमने उन्हें अपोलो अस्पताल दिल्ली में इलाज के लिए ले जाने का फैसला किया। हम उन्हें एम्बूलैंस में उसी तरह बांहों में उठा कर ले गए जैसे उन्होंने भी हमें हमारे बचपन में हजारों बार उठाया होगा। 
 
हमारा हृदय विदीर्ण था और हम उन्हें सामान्य और स्वस्थ जीवन देने के लिए भरसक प्रयत्न करते रहे। इसी कारण इन साढ़े 6 वर्षों में हम लगातार उनको थामे रहे और यही कोशिश करते रहे कि हम उन्हें नहीं जाने दें। 
 
लेकिन विधि से बड़ा तथा सशक्त कोई अन्य नहीं है और अंतत: 7 जुलाई को उन्होंने हमें ‘अलविदा’ कह दिया और आज भी जब हम उनके जाने का शोक मना रहे हैं, हमें अभी भी लगता है जैसे वह अभी भी हमारे बीच हैं...उनके बारे में बातें करते हुए...उनके साथ अपनी यादें सांझी करते हुए...उनके चित्र हमें क्षणिक राहत देते हैं परंतु उनके जाने से जो शून्य उत्पन्न हुआ है उसे हम सब सदा महसूस करेंगे; हम, उनके बच्चे जो उनके शरीर और उनकी आत्मा से उपजे हैं।  
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