का. जगजीत सिंह आनंद का ‘चले जाना’

Sunday, Jun 21, 2015 - 12:53 AM (IST)

पंजाबी के प्रखर पत्रकार, लेखक,  तर्कशील और प्रगतिशील विचारों के राजनीतिज्ञ, प्रभावशाली वक्ता, अनथक कार्यकत्र्ता कामरेड जगजीत सिंह आनंद का 19 जून रात को 9.45 बजे देहांत हो गया। 

1974 से 1980 तक राज्यसभा सदस्य रहे कामरेड आनंद कुछ समय से बीमार चल रहे थे। उन्होंने 1963 में पंजाबी दैनिक ‘नवां जमाना’ के संपादक का दायित्व संभाला और अंत तक इस पद पर बने रहे। 
 
उनका जन्म 28 दिसम्बर, 1921 को तरनतारन में एक धार्मिक परिवार में हुआ था। इनके पिता स. मेहताब सिंह खालसा स्कूल के हैडमास्टर थे व गुरुद्वारा सुधार मोर्चे में जेल गए जबकि कामरेड आनंद स्वतंत्रता सेनानी थे तथा कई बार जेल गए। वह आजीवन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय कार्यकत्र्ता व इसकी राष्ट्रीय परिषद के सदस्य भी रहे। 
 
वह पंजाब में आतंकवादियों के विरुद्ध डट कर खड़े होने वाले पत्रकारों में से एक थे। उन्हें तथा उनके परिवार को हत्या की धमकियां दी गईं व अखबार बंद करने के लिए कहा गया परंतु उनका कहना था कि ‘‘धमकियों से मुझे झुकाया नहीं जा सकता और मैं हर कीमत पर प्रैस की स्वतंत्रता बहाल रखूंगा।’’ 
 
पूज्य पिता लाला जगत नारायण जी, श्री रमेश चंद्र जी तथा ‘पंजाब केसरी परिवार’ के सभी सदस्यों के साथ इनके स्नहेपूर्ण संबंध थे। 1983 में ‘पंजाब केसरी’ द्वारा जब आतंकवाद पीड़ितों की सहायता हेतु ‘शहीद परिवार फंड’ शुरू किया गया तो वह फंड के तीन ट्रस्टियों में शीर्ष स्थान पर थे। 
 
पंजाब में आतंकवाद के विरुद्ध लडऩे और शांति लाने में उनका भारी योगदान रहा। उन्होंने कई किताबें लिखीं तथा हमारे समाचारपत्रों में भी उनके लेख निरंतर छपा करते थे। पंजाबी भाषा के प्रसार में भी इनका महत्वपूर्ण योगदान था।
 
उनका विवाह प्रख्यात पंजाबी लेखक स. गुरबख्श सिंह ‘प्रीतलड़ी’ की सुपुत्री उर्मिला (आनंद) से हुआ जिनकी कुछ समय पूर्व मृत्यु Þई। का. जगजीत सिंह आनंद अपने पीछे एक बेटा सुकीरत और बेटी सुअंगना छोड़ गए हैं। बेटे सुकीरत ने अपनी माता और पिता दोनों की ही बीमारी के दिनों में बहुत सेवा की। 
 
पंजाब के अंधकारमय दौर में अपनी लेखनी से आशा का उजाला बिखेरने वाले, एक सच्चे और ईमानदार, समॢपत पार्टी कार्यकत्र्ता कामरेड जगजीत सिंह आनंद का बिछुडऩा उनके परिवार के सदस्यों, स्नेहियों, शुभचितकों के लिए ही नहीं बल्कि पत्रकारिता जगत की भी भारी क्षति है : ‘जो बादा कश थे पुराने वो उठते जाते हैं, कहीं से आबे बका-ए-दवाम ले साकी।’
 
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