देश भर में लगभग 25 करोड़ इमारतें भूूकम्प के खतरे की चपेट में

Wednesday, May 06, 2015 - 01:00 AM (IST)

गत 25 वर्षों में भूकम्पों से भारत में 25,000 से अधिक लोग काल कवलित हुए। इनमें से 95 प्रतिशत मौतें इमारतें गिरने से हुईं जबकि अन्य प्राकृतिक आपदाओं से जो क्षति गई वह इससे अलग है।

हाल ही में भूकम्प से नेपाल के महाविनाश ने एक बार फिर विश्व समुदाय का ध्यान इस महा आपदा से पैदा होने वाली तबाही की ओर दिला दिया है। जहां नेपाल को इसकी क्षतिपूर्ति कर पाने में वर्षों लग जाएंगे, वहीं भारत में भी ऐसी हालत पैदा होने पर हमारी तैयारी को लेकर संशय बने हुए हैं।

आपदा प्रबंधन विशेषज्ञों के अनुसार हमारे देश के 59 प्रतिशत भाग को भूकम्पों और 10 प्रतिशत भाग को अन्य प्राकृतिक आपदाओं से खतरा है। यहां 84 प्रतिशत मकान कच्ची-पक्की ईंटों से बने हैं जो अधिक तीव्रता का भूकम्प आने पर ताश के पत्तों की तरह भरभरा कर गिर सकते हैं। सिविल इंजीनियरिंग एवं आर्कीटैक्चर के ग्रैजुएट तक के पाठ्यक्रमों में इस विषय को नाममात्र स्थान ही दिया गया है और इसे सिर्फ पोस्ट ग्रैजुएट स्तर के लिए ही सीमित रखने के कारण ज्यादातर सिविल इंजीनियरों व डिजाइनरों को भूकम्प रोधी मकानों के डिजाइन संबंधी सिद्धांतों का समुचित ज्ञान ही नहीं है।

नेपाल में आए 7.9 तीव्रता के भूकम्प की तुलना में 1993 में महाराष्ट्र के लातूर जिले में आए उससे कम तीव्रता (6.4) के भूकम्प से ही 10,000 लोगों की मृत्यु हो गई थी और अधिकांश मौतें मकानों के गलत ढंग से बने होने के कारण ही हुई थीं और ऐसा ही 8 वर्ष बाद गुजरात में हुआ था।

भारतीय मानक संस्थान द्वारा 1962 में तय मानकों के अनुसार बहुत ही कम इमारतों का निर्माण किया गया है और लोगों को इनकी जानकारी भी नहीं है। विशेषज्ञों के अनुसार हिमालय क्षेत्र और विशेष रूप से उत्तरी भारत में भूकम्प आने की स्थिति में भारी विनाश का खतरा है। इस संबंध में भूकम्प विशेषज्ञों ने 2005 में पाक अधिकृत कश्मीर में आए भूकम्प का भी उदाहरण दिया है जब वहां लगभग 80,000 लोग मारे गए थे।

2004 की सुनामी भी भू-गर्भीय हलचलों का ही परिणाम थी जिस कारण अब तक के तीसरे सबसे अधिक 9.3 तीव्रता के भूकम्प से उत्पन्न ज्वारभाटों ने 14 देशों में 2 लाख 30 हजार लोगों को मौत की नींद सुला दिया था।

मोटे तौर पर केंद्र सरकार ने 38 ऐसे शहरों की सूची बनाई है जो भूकम्प से मध्यम व अधिक जोखिमपूर्ण क्षेत्रों में स्थित हैं। सिवाय कुछ अपवादों के, देश में कम से कम 25 करोड़ इमारतों को भूकम्प से तबाही का खतरा है।

6.0 तीव्रता का भूकम्प आने पर ही मुम्बई और दिल्ली में क्रमश: 34 लाख और 33 लाख इमारतें ध्वस्त हो सकती हैं। सर्वाधिक विनाश का खतरा राजधानी नगरों की गगनचुम्बी व पुरानी इमारतों को ही है क्योंकि वहीं सर्वाधिक अव्यवस्थित तरीके से निर्माण किए गए हैं जबकि कम ऊंचाई वाली इमारतें तथा झोंपड़ पट्टिïयां इस विनाश से किसी सीमा तक बच जाएंगी।

दिल्ली उच्च जोखिम वाले सीस्मिक जोन 4 में, श्रीनगर और गुवाहाटी जोन 5 में तथा मुम्बई, चेन्नई और कोलकाता जोन 3 में पड़ते हैं। इनके लिए इतिहास की एक चेतावनी है कि ऐसी महा आपदा कभी भी आ सकती है।

हालांकि 1934 में बिहार में आए 8.4 तीव्रता के भूकम्प का केन्द्र माऊंट एवरैस्ट से 10 किलोमीटर दूर दक्षिण में था परन्तु इसके झटके मुम्बई और ल्हासा (तिब्बत) तक महसूस किए गए थे। इन झटकों ने बिहार के अनेक जिलों के अलावा कोलकाता में लगभग सभी बड़ी इमारतों को मिट्टी में मिला दिया था तथा 8100 से अधिक लोग मारे गए थे।

विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि हिमाचल प्रदेश में भी 1905 में आए सर्वाधिक विनाशकारी भूकम्प तथा 1950 में असम में आए भूकम्प ने हिमालय क्षेत्र में आने वाले किसी बड़े भूकम्प की जमीन तैयार कर दी है। हालांकि भूकम्पों की शत-प्रतिशत सही भविष्यवाणी करना तो संभव नहीं है परन्तु भू-गर्भीय हलचलों को देखते हुए वह मनहूस घड़ी कभी भी आ सकती है।

पिछले 300 वर्षों के आंकड़े बताते हैं कि 8.00 तीव्रता के भूकम्प की हर 100 वर्ष बाद, 7.00 तीव्रता के भूकम्प की हर 50 वर्षों के बाद और  6.00 तीव्रता के भूकम्प की 30-40 वर्षों के बाद पुनरावृत्ति हो सकती है।

नेपाल का भूकम्प हमारे लिए एक सबक है। यदि इन खतरों को न्यूनतम करने के पग नहीं उठाए गए और इसी प्रकार अनियोजित निर्माण होते रहे तो विनाश की मात्रा बहुत अधिक हो सकती है।

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