राहुल गांधी में कुछ तो बदला है

Monday, Apr 27, 2015 - 12:26 AM (IST)

राम लीला ग्राऊंड में 19 मिनट और लोकसभा में 21 मिनट के भाषण के साथ ही कांग्रेसियों तथा जनता के कुछ वर्गों के मन में आशा की किरण जगाने के लिए, राहुल गांधी की वापसी हो गई है।

लोकसभा में उनके प्रथम भाषण के दौरान उत्साह से कांग्रेस सांसदों ने राहुल गांधी का स्वागत किया और अगले दिन लोकसभा में अपने दूसरे ‘प्रश्नोत्तर’ के दौरान सभी बैंचों पर बैठे सांसद उन्हें सुन रहे थे। तब ऐसा प्रतीत हो रहा था कि राहुल में कुछ तो बदला है। उनमें बेहतर आत्मविश्वास का संचार नजर आया। एक नई प्रकार की रणनीति भी प्रतीत हुई जिसके अंतर्गत वह आगे बढ़ रहे थे। 
 
इस बार वह अकेले थे, वह लोकसभा में भाषण दे रहे थे तो न वहां सोनिया गांधी और न ही दर्शकदीर्घा में प्रियंका गांधी मौजूद थीं। (जैसे कि वह हमेशा होती हैं) वास्तव में जब राहुल गांधी भाषण दे रहे थे तो कांग्रेस के 25 सदस्य सदन में उपस्थित ही नहीं थे। 
 
यह सोनिया गांधी की एक रणनीति या फिर राहुल गांधी की अपनी इच्छा भी हो सकती है जो उनके लिए शॢतया तौर पर एक सकारात्मक संकेत है। भूमि अधिग्रहण विधेयक तथा किसानों की फसलों की बर्बादी के बाद उनकी दयनीय हालत ग्रामीण भारत से जुड़े मुद्दे हैं जबकि नैट न्यूट्रैलिटी जिस पर अगले दिन वह बोले, शहरी युवाओं से जुड़ा मसला है। 
 
राÞल गांधी की भाव-भंगिमाएं अधिक आक्रामक और कटाक्ष सटीक थे तथा ‘सूट-बूट की सरकार’ जैसी टिप्पणियां उनके मुंह से पहली बार सुनने को मिल रही थीं। मोदी को सीधे-सीधे आड़े हाथों लेना, गोर्बाच्योवसे मोदी की तुलना करना भी कुछ ऐसा ही था जो उन्होंने इससे पहले नहीं किया था। 
 
लोकसभा सत्र के ठीक पश्चात उनका केदारनाथ यात्रा करना भी कम अप्रत्याशित नहीं था क्योंकि इससे पहले उनका अकेले धार्मिक स्थलों पर जाना एक विरल बात थी। असंख्य बौद्ध शिविरों तथा प्रार्थना सभाओं में हमेशा प्रियंका उनके साथ होती थीं जबकि हिन्दू मंदिरों की यात्रा पर उनकी मां उनके साथ अवश्य जाती थीं। केदारनाथ की उनकी यात्रा कांग्रेस में पनप रहे ‘सॉफ्ट हिन्दू’ एजैंडे के प्रति संकेत है। 
 
वहीं श्रद्धालुओं तथा बाढ़ पीड़ितों के हालात जानने के लिए राहुल गांधी का पैदल यात्रा करना इस बात की तरफ इशारा करता है कि वह हिन्दू मतदाताओं के साथ नए संबंध स्थापित करना चाहते हैं। उनके ऐसे बयान कि ‘केदारनाथ दर्शन से मुझे अग्नि जैसी ऊर्जा मिली है’ मुख्यत: हिन्दुओं की ओर कांग्रेस के झुकाव का ही संकेत दे रहे हैं।
 
हालांकि राहुल गांधी द्वारा अपने लिए भाषण लिखने वाले तथा सलाहकारों को बदलने की भी खासी चर्चाएं हैं। फिर भी काफी कुछ उनके आगे बढऩे की दृढ़ता पर ही निर्भर करता है। अब तक उनकी बार-बार अचानक सक्रिय हो जाने तथा फिर सुस्त पड़ जाने की कार्यप्रणाली को कांग्रेस में काफी लोग नापसंद करते रहे हैं। 
 
सदस्यता के मुद्दे पर फैसला लेने के लिए ए.आई.सी.सी. की बैठक मई महीने के तीसरे हफ्ते में आयोजित होने की काफी सम्भावना है परंतु अभी तक राहुल गांधी के कांग्रेस की अध्यक्ष पद पर नियुक्ति संबंधी कोई उल्लेख सुनने को नहीं मिला है। 
 
इतना तो सभी जानते हैं कि राजनीतिज्ञों को आलोचना, उपहास तथा हार का सामना करना पड़ता है। यह तो उनके काम का एक हिस्सा है। ऐसे में राहुल का 56 दिनों की ‘छुट्टी’ पर जाना दीर्घकाल में खास महत्व नहीं रखता यदि वह काम करते रहते हैं। उनके ‘इनकोग्निटो’ (लुप्त होने का इतालवी शब्द) हो जाने से भी किसी को आपत्ति नहीं होगी यदि ऐसा कभी-कभार हो। यदि छुट्टी के दौरान उन्होंने भाषण कौशल तथा व्यक्ति निखार संबंधी स्पैशल ट्रेनिंग लेनी हो, जैसी कि अटकलें लग रही हैं, तो लोग इसका भी स्वागत ही करेंगे।
 
जहां तक भारतीय राजनीतिक दलों की अंदरूनी संरचना तथा कार्यप्रणाली का संबंध है, इसमें बेशक अधिक बदलाव नहीं आया हो परंतु देश की जनता काफी बदल चुकी है। सभी दलों को सर्वोच्च पद पर एक मजबूत नेता की जरूरत है चाहे वह भाजपा, कांग्रेस या ‘आप’ हो। 
 
देश का मतदाता परिपक्व हो चुका है जो न केवल केंद्र में एक मजबूत दल बल्कि एक सक्रिय व मजबूत विपक्ष भी चाहता है। ऐसे में यदि राहुल गांधी अपनी गति तथा लय बनाए रखते हैं तो हो सकता है कि वह अपने दल के वरिष्ठ नेताओं के न सही, जनता के दृष्टिकोण को बदल सकें। 
 
Advertising