कदन्न फसलें गुणवत्ता के बावजूद गुमनामी के दौर में

Sunday, Oct 07, 2018 - 04:29 PM (IST)

नई दिल्लीः विकास की अंधी दौड़ में पोषक तत्वों से भरपूर और रोग प्रतिरोधक क्षमता से परिपूर्ण होने के बावजूद कदन्न (मोटे अनाज) फसलें गुमनामी के दौर से गुजर रही हैं। देश में कदन्न फसलों के रूप में ज्वार, बाजरा, रागी, मड़ुआ, सावां, कोदो, कुटकी, कंगनी, चीना आदि को जाना जाता है। हरित क्रांति के पहले ये प्रमुख फसलें थीं, जो बिना सिंचाई के भी अच्छी पैदावार देती थी। सिंचाई सुविधा के अभाव में सूखा प्रभावित क्षेत्रों में इनकी खेती की जाती थी। रोग प्रतिरोधक क्षमता से भरपूर कदन्न फसले कैंसर, हृदय रोग और देश में तेजी से फैल रहे मधुमेह के लिए लाभदायक होने के साथ ही अन्य फसलों की तुलना में कम खर्च और जल्दी तैयार होती हैं। 

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की ओर से प्रकाशित खेती पत्रिका के ताजा अंक ‘कदन्न विशेषांक’ में कहा गया है कि हरित क्रांति के पूर्व देश में तीन करोड़ 60 लाख 50 हजार हेक्टेयर में कदन्न फसलों की खेती की जाती थी जो वर्ष 2016-17 में घटकर एक करोड़ 40 लाख 72 हजार हेक्टेयर रह गई है। इन मोटे अनाजों में सात से 12 प्रतिशत प्रोटीन, दो से पांच प्रतिशत वसा, 65 से 75 प्रतिशत कार्बोहाईड्रेट 15 से 20 प्रतिशत रेशे के अलावा विटामिन ए, विटामिन बी 6, जिंक, कैल्शियम, लौह तत्व, आयेडिन तथा अन्य सूक्ष्म पोषक तत्व पाए जाते हैं।  

हरित क्रांति के पहले आम तौर पर मध्यम चर्गीय परिवारों में भी चावल और गेहूं का इस्तेमाल पर्व -त्योहार या विशेष अवसरों पर ही किया जाता था लेकिन बाद के वर्षो में सिंचाई सुविधाओं के विस्तार, नई तकनीक के आने, गुणवत्ता पूर्ण बीजों की उपलब्धता और रासायनिक उर्वरकों की बहुतायत तथा बाजार में मांग के कारण किसान धान और गेहूं की खेती जोरदार ढंग से करने लगे और कदन्न फसलों की खेती को लेकर उदासीन हो गए। पर्वतीय और आदिवासी क्षेत्रों में कदन्न फसले अब भी आहार का हिस्सा है। वास्तविकता यह है कि नई पीढ़ी को इन फसलों के नामों की भी जानकारी नहीं है।  
 

jyoti choudhary

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