हम शिक्षित क्यों नहीं हो पा रहे हैं ?

Sunday, Jul 12, 2020 - 01:12 PM (IST)

आज साक्षरता दर दिनों दिन बढ़ती जा रही है। वर्ष 1951 के अनुसारयह 18.33% थी, अब 2011 की जनगणना के अनुसार यह दर 74.04% हुई, निश्चित है कि अक्षरों की पहचान ने तरक्की की है। अक्षरों की पहचान ने हमें जितना सचेत किया है उसका व्यावहारिक प्रयोग उतना सकारात्मक नहीं रहा। जनता की दिनोंदिन बढ़ती भीड़, शिक्षा आजीविका का बढ़ता सम्बन्ध, जीवनोपयोगी शिक्षा को प्रत्यक्ष रूप से शिक्षा का उद्देश्य न बनना सोचते ही असंख्य कारण समझ आ जाते हैं। बेशक! कुछ साक्षर होकर भी शिक्षित नहीं हुये तथा कई बिना साक्षर हुए भी शिक्षित होते रहे इस अन्तर्द्वन्द ने वर्त्तमान शैक्षिक व्यवस्था को संशय के घेरे में ला खड़ा किया है। 

वैसे शिक्षा को आज प्रत्येक मनुष्य जीवन में जरूरी मानता है, क्या बात है कि आज की शिक्षा ने मनुष्य को मशीन बना दिया है, मानवीय मूल्यों तथा कुछ आदर्शों को अप्रतक्ष्य रूप से लागू करने की मजबूरी दिखाई है। हमें शिक्षा में पश्चिम के मूल्यों की स्वस्थ प्रतिकृति को स्थान देना होगा न कि विद्रूप अनुकृति को ! पुस्तकों में व्यवहारिकता के बिंदु तथा पढ़ाने से पूर्व की गतिविधियां स्पष्ट रखनी होंगी। अध्यापक स्वयं पढ़ते हैं तथा कक्षा में उगल देते हैं जीवन से जोड़ना उनका प्रयास ही नहीं, छात्र मात्र डिग्रियां या प्रमाणपत्र ही चाहतें हैं। 

आज ऐसा भी लगता है कि छात्रों का अधिकतर समय शिक्षा ग्रहण करने, संग्रह करने तथा क्रम से लगाने में भी गुज़र जाता है। आत्म विश्लेषण तथा स्वयं पढ़ने पर ही या माता पिता के अतिरिक्त समय की गारंटी ही बालक में विवेक, विवेचना व सृजन की क्षमता को बचा पाती हैं। स्कूल में जो पढ़ाया जाता है उसे छात्र घर पर रटते हैं,परन्तु शायद ही जीवन दर्शन ढूंढना जरूरी लगता हो, अधिकतर अध्यापक व अभिभावक मानते हैं की सृजनशीलता के लिए अतिरिक्त प्रयास जरूरी हैं। स्कूली कक्षाएं तो सामान्यीकरण करती हैं। समाज में बढ़ती समस्याएं बताती हैं कि हम साक्षर तो हो रहे हैं परन्तु शिक्षित नहीं। 

वास्तव में व्यवहारिकता बढ़ती मानवीय भूख, लालच, गिरती मानसिक स्थिति ने ही ज्ञान को पुस्तकों में पड़े रहने दिया है। साक्षरता के बाद के चरण के बाद हमे ज्ञान को पुस्तकों से जीवन में स्थिति अनुसार व्यवहारिकता सीखनी थी पर हम चूक रहे हैं। पुस्तकीय ज्ञान तथा अध्यापक के कथन सामजिक वातावरण को नियंत्रित करने में, दिशा देने में न केवल अक्षम हैं बल्कि काफी पीछे रह जाते हैं।

मूल्य, आदर्श, संस्कार जीवन सारिणी कुछ मद्यम पड़े हैं! जीवन की परिस्थितयों से आज का पढ़ा - लिखा समायोजन नहीं कर पा रहा है, यह अतिउत्साही होकर रातो रात ही अमीर बनना चाहता है सभी सफलताएं चाहता है।

उत्तम सिंह ठाकुर

Riya bawa

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