तू क्या देगा तलाक ए कायर...

punjabkesari.in Tuesday, Aug 20, 2019 - 04:02 PM (IST)

 

अब थमेगा तीन शब्दों की आहट पर पूरी ज़िंदगी का वजूद मिटा देने का कारवां
निकाह दो आत्माओं का एक पवित्र बंधन है जिसमें बंधने के बाद दो लोग एक दूसरे को हमेशा साथ निभाने का वचन देते हैं। आंखों में कितने सपने व अरमान लिए एक लड़की अपने घर परिवार, दोस्तों व सब से दूर एक नई दुनिया बसाती है इस आशा में कि उसका शौहर उसे खुश रखेगा और कभी उसके घरवालों की कमी महसूस नहीं होने देगा। औरत हवा की बेटी, आसमान से भेजी गई नूर की वो पाक मुकद्दस बूंद जो सदियों से इस सरज़मीं को सींचती चली आई है। औरत जिसने प्यार के रंग बिरंगी फूल खिलाकर इस दुनिया को जन्नत बनाया, अपनी कोख से मर्द को जन्म दिया। मां बनकर उसे पांव पर चलना सिखाया तो बहन बनकर उसके बालापन को चुलबुली कहानियां दी। वक्त पड़ने पर कदम से कदम मिलाकर कंटीली राहों में दोस्त बनकर उसका साथ दिया और ये सब करते हुए अपना वजूद तक खो दिया। और बदले में उसे क्या मिलता है- ट्रिपल तलाक।

 

जी हां, मैं बात कर रही हूं उसी ट्रिपल तलाक की जिसकी चर्चा आज कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और गुजरात से लेकर असम तक पूरे भारतवर्ष में है। उसी ट्रिपल तलाक की जो एक खुशहाल ज़िंदगी को नर्क बना देता है।ट्रिपल तलाक का मतलब है अपनी पत्नी को लगातार तीन बार तलाक बोलना (मौखिक, लिखित या इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से)। यह प्रथा मुस्लिम समाज में वर्षों से चली आ रही है जिसने कई मुस्लिम बहनों बेटियों का जीवन तबाह कर दिया है। पहले तो निकाह करके स्त्री को अपनाया जाता है और फिर तलाक- तलाक- तलाक यह तीन शब्दों को कितनी आसानी से बोलकर त्याग की मूर्ति उस स्त्री को ठुकरा दिया जाता है।मर्द को जन्म देने वाली स्त्री उसी के हाथों ज़ुल्म का शिकार हो जाती है।

 

शायद उनका आखिरी हो ये सितम....... हर सितम यह सोचकर मुस्लिम बहनों ने सहे, पर फिर भी इतनी कुर्बानी के बाद भी बहुत आसानी से ट्रिपल तलाक को हथियार बनाकर कई औरतों के जीवन से खुशी के रंग छीन लिए गए। पवित्र कुरआन में निकाह के पाक रिश्ते की कदर करने को कहा गया है और अपनी खुदगर्ज़ी के लिए बीवी को तलाक देना, उसकी ज़िंदगी बर्बाद करने को पाप बताया गया है। कुरान में ट्रिपल तलाक का कोई भी ज़िक्र नहीं है। तो सवाल यह है ट्रिपल तलाक जिसे तलाक-ए-बिद्दत भी कहते हैं (बिद्दत का अर्थ ही है इजात) जो कुरान में मौजूद नहीं है, जिसकी इजाज़त पाक कुरआन नहीं देती भला उसे इजात करने वाले लोग कौन हैं? कौन हैं छोटी सोच रखने वाले वो लोग जिनके कारण ट्रिपल तलाक का रोग मुस्लिम कौम में 21वीं सदी तक फैला रहा...? भारत के संविधान ने सभी धर्मों की स्त्री पुरुष दोनों को सम्मान मौलिक अधिकार दिए हैं तो क्या ट्रिपल तलाक अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता का अधिकार), अनुच्छेद 15(1) (लिंग के आधार पर भेदभाव पर रोक), अनुच्छेद 21 (स्वाभिमान से ज़िंदगी जीने का अधिकार) के तहत मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं? ट्रिपल तलाक के नाम पर अपनी प्रधानता दिखाकर तलाक के तीन पत्थर मारकर स्त्री को अपनी ज़िंदगी से निकाल देना क्या सही है? क्या औरत होना कोई ज़ुल्म है, जो हमेशा डर के साए में ज़िंदगी काटे कि कहीं उसका शौहर उसे घर से बेघर न कर दे। क्या यही इंसाफ है....?

 

औरत मर्द की जेब में पड़ा नोट नहीं है जिसे मर्द जब चाहे खैरात में दे दें औरत कोई लाश नहीं जो मर्दाना समाज जब चाहे अपनी मर्ज़ी से उसकी कब्र बदलता रहे। अगर निकाह बिना महिला के कुबूलनामे के नहीं हो सकता तो एकतरफ़ा तलाक उर्फ ट्रिपल तलाक कैसे ? क्या यह एक मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का हनन नहीं ? इंस्टेंट ट्रिपल तलाक देकर महिलाओं को बदहाली में छोड़ना हैवानियत नहीं तो क्या है.....? इंसानियत का फर्ज़ था कि औरतों को इस कुप्रथा से बचाया जाए। इंस्टेंट ट्रिपल तलाक इसे जिस रफ़्तार से दिया जाता था उसे उसी रफ़्तार से रोकने की ज़रूरत थी और यह नेक काम किया इंसाफ के मंदिर भारतीय संसद ने। ट्रिपल तलाक बिल का संसद में पारित होना इस बात का प्रमाण है जब भी धर्म का कोई ठेकेदार खुद को लोकतंत्र से ऊपर समझेगा तो उसे मुंह की ज़रूर खानी पड़ेगी।

 

वह लोग गलत हैं जो मानते हैं धर्म सामाजिक व्यवस्था का आधार है। उन लोगों की ऐसी गलत सोच पर चोट करता है ट्रिपल तलाक बिल।भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष देश में कानून किसी एक कौम के लिए नहीं बल्कि सभी हिंदुस्तानियों के लिए है। जब समाज आगे बढ़ता है तो बदलाव आना अनिवार्य है क्योंकि परिवर्तन जीवन का नियम है। ट्रिपल तलाक गलत था और किसी भी गलत प्रथा को समाप्त करना अनिवार्य है। मेरा तो मानना है खुद को कौम का सरपरस्त कहने वाले मुल्ला जो इसमें हस्तक्षेप करते हैं और ट्रिपल तलाक के गवाह बनते हैं उनके खिलाफ भी कानून होना चाहिए। 1961 में दहेज पर जब प्रतिबंध लगाया और कानून बनाया कि दहेज लेने पर पांच साल तक की सजा है। तब यह प्रश्न नहीं पूछा गया कि पति के जेल जाने के बाद पत्नी व परिवार का क्या होगा? 1983 में आईपीसी की सेक्शन 498 (ए) के तहत कानून लाया गया अगर कोई पति अपनी पत्नी के साथ घरेलू हिंसा करता है तो उसे तीन साल तक की सज़ा हो सकती है और सज़ा पूरी होने तक आसानी से ज़मानत नहीं मिल सकती। तब भी यह प्रश्न नहीं पूछा गया कि जेल जाने के बाद उसकी पत्नी की चिंता कौन करेगा?

 

सवाल यह है कि इतने प्रगतिशील कानून लाने के बाद 1986 में शाहबानो केस में सरकारों के कदम क्यों हिलने लगते हैं? यह सवाल तब ही क्यों उठते हैं जब मुस्लिम समाज की बेटियों के लिए न्याय की गुहार लेकर हम आगे बढ़ते हैं? सवाल यह भी है कि दहेज घरेलू हिंसा जैसी कुप्रथा के खिलाफ़ प्रगतिशील कानून बनाने वालों ने अब तक तीन तलाक विधेयक का विरोध क्यों किया और क्यों ट्रिपल तलाक विधेयक को लाने में इतना लंबा इंतज़ार करना पड़ा? शाह बानो की तकलीफ थी खाक से,शायरा बानो ने एक चिराग सुलगाया है और उसके साथ खड़े रहकर भारत की पवित्र संसद ने उस मुस्लिम महिला को खुद से मिलवाया है। तुष्टीकरण के नाम पर देश की करोड़ों माताओं बहनों को उनके अधिकारों से वंचित रखने का जो पाप किया जा रहा था, 30 जुलाई के ट्रिपल तलाक बिल ने उस प्रगतिगामी प्रथा के अभिशाप से उन्हें मुक्ति दिलवाई है।

 

चंद्रयान 2 के बाद यह बदलते हुए भारत में सामाजिक क्रांति का प्रतीक है। ट्रिपल तलाक बिल किसी मजहब और जाति के लिए नहीं बल्कि नारी की गरिमा और उसके सम्मान की रक्षा के लिए आवश्यक था। इतना ही नहीं 30 जुलाई को बिल पास होने के बाद मुस्लिम बहनों से बातचीत करने पर उन्होंने कहा कि उनकी ईद भी आज है और 15 अगस्त भी आज है। अंग्रेज़ी में पुरुष के लिए 'ही' और महिला के लिए 'शी' लिखते हैं। ही में एस जोड़ने पर शी बनता है। मतलब 'सुपीरियर टू ही', वह महिला है। ट्रिपल तलाक बिल का दोनों सदनों में पास होना शायद रूढ़ीवादी बुद्धिजीवियों को अब शी (महिला) की ही (पुरुष) पर सुपीरियोरीटी को कभी भूलने नहीं देगा। इसीलिए - सारी औरतों का हौसला बुलंद है, यह फैसला हर किसी को पसंद है, जो दलाली करते थे धर्म के नाम पर, आज उन सब का मुंह बंद है।

अंकिता गुप्ता


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