आध्यात्मिकता

punjabkesari.in Thursday, May 07, 2020 - 02:04 PM (IST)

आध्यात्मिकता पाखंड नहीं है, इसका सम्बन्ध मनुष्य की आत्मा, अंदर की स्थिति से है। भौतिक ज़रूरतों के साथ-साथ इंसान की कई मनोविज्ञानिक ज़रूरतें भी होती हैं। उसकी भावनाएं होती हैं, लगाव होता है, वो प्यार का चाहवान होता है, ऐसी और बहुत मानसिक चाहतें होती हैं। इंसान समस्याओं से गिरा हुआ रहता है। उसके मन में बहुत प्र्शन हैं, जीवन की उत्पति कैसे हुई ? मरने के बाद इंसान कहाँ जाता है ? 

इंसान को कोई चाहिए
-जिसके ऊपर वह अपनी समस्यायों को थोप सके और मानसिक सुख प्रापत कर सके,
-जिसकी आराधना कर कर उसकी आशा कायम रहे (पाजिटिविटी),
-ख़ुशी के अवसर पर जिसका आभार कर सके,
-जब स्थिति हमारे हाथ में न हो, तब प्रार्थना कर सकें,

इन सब के जवाब में, इंसान ने सर्वशक्तिमान ईश्वर की संकल्पना की। मध्यकाल के सूफी-संतों ने इस ईश्वर के प्रति प्रेम और भक्ति भाव को अपनी फिलॉसोफी का आधार बनाया। बहुजन संतों ने भी अधियात्मिक्ता के क्षेत्र में बहुत योगदान दिया और काफी साहित्य रचा, वो भी काविक अंदाज़ में। पर हम उन्हें मात्र कवी समझने की भूल न करें । कबीर जी का कथन है, लोग कहे जे गीत है, पर जे तोह ब्रहम विचार देखा गया है के तार्किकता के नाम पर, बुद्विजीवियों द्वारा इन संतो की आध्यात्मिकता के प्रति योगदान की अनदेखी की जा रही है।

आधुनिक युग का आधार, तार्किकता, मानवता, वैज्ञानिक सोच बराबरी आज़ादी, न्याय, भाईचारा इत्यादि है। सूफी-संतो ने भी तार्किकता के आधार पर अपने समय के भरष्ट कर्म-काण्ड की कड़ी आलोचना की। पर अधियात्मिक्ता, तार्किकता के खिलाफ नहीं, इसका सम्बन्ध तो प्यार से है, सेवा से है, हेकड़ी से छुटकारे से है, विनम्रता से है, मानसिक शांति से है। आज के समाज में, जहाँ एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ लगी है, विकारों ने हमें दूषित कर दिया है। आज नियम-कानून के साथ-साथ, पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा के शामिल होने के वाबजूद, इंसान का नैतिक पतन जारी है। लोग अकड़ से भरपूर, विनम्रता से कोसो दूर हैं , और सेवा-भाव तो है ही नहीं। इन समस्याओं का एक हल मनुष्य का अधियात्मिक विकास है। जब अंदर से इंसान अधियात्मिक होगा, वह भौतिक पदार्थों के लिए अपने आचरण को नहीं गिरायेगा।

देखा गया है के कुछ बहुजन बुद्दिजीवी जे कह कर सूफियों को नकार देते हैं, सूफी सईद (ऊँची जाती) के होते हैं।  बात कुछ हद तक ठीक है, असल में जिनकी बुनियादी ज़रूरतें पूरी होगीं, वही तोह अधयातम की बात करेंगे। फिर भी जाति से अधिक ज़रूरी फलसफा है। इस तर्क के हिसाब से तोह तथागत बुद्धा भी ऊंची जाति से आते थे, फिर भी अधिकतर बहुजन समाज आज बोध धर्म अपनाया हुआ है। ज़रुरत है अपनी सोच बड़ी करने की, संत कबीर ने बहुत अच्छा कहा है,

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान  फिर भी, बहुत सूफी, नीची कही जाने वाली जातियों से आते है। शाह हुसैन (जुलाहा), जिनके दादा ने इस्लाम ग्रहण किया था। वह अधियात्मिक्ता की शिखर पर पहुंचते हैं, नी सय्यियों असां नैना दे आखे लग्गे। नदियों पार सजन दा थाना, कीते कौल ज़रूरी जाना  महान सूफी बुल्ले शाह के गुरु शाह अनायत कादरी, अराईं जाती के थे। जिनमे बुल्ले शाह ने रब्ब के दीदार किये थे। आज कल भारतीय पंजाब की सूफी दरगाहों की देख-रेख अधिकतर दलित जाती के लोग ही कर रहे हैं। जे दरगाहे समधर्मी संस्कृति की बेमिसाल उदाहरण हैं। भक्ति काल के संतों ने पंडितों की मध्यस्ता को नकारते हुए सीधा खुद भगवान की आराधना की। इन संतो की अधिकतर संख्या बहुजन और पिछड़ी कहे जाने वाली जातियों से थी। संत नामदेव (दर्जी), संत कबीर (जुलाहा), संत रविदास (चमार), संत सधना (कसाई), संत सैन (नाई), संत धन्ना (जाट), आदि।

गुरु नानक ने इन संतो की लिखित को इक्कठा किया और बाद में जब गुरु अर्जुन ने गुरु ग्रन्थ साहिब का संकलन किया तोह इन संतो की बानी को भी उसमे शरण दी। गुरु ग्रन्थ साहिब में सबसे अधिक बानी संत कबीर की है। डॉ आंबेडकर तोह दलितों की लिए सिख धर्म अपनाने ही वाले थे, पर समय के सिख लीडरों ने ऐसा होने नहीं दिया। बहरहाल, इस मुद्दे पर फिर कभी बात करेंगे ।

आध्यात्मिकता की क्षेत्र में इन संतो की देन को, बहुजन बुद्धिजीविओं द्वारा जान-भूझ कर नज़र अंदाज़ किया जा रहा है। असल में उन्होंने तार्किकता के जो पैमाने बना रक्खे हैं उस हिसाब से अगर आप आपकी डिक्शनरी में भगवान पूजा, आराधना आदि शब्द हैं तोह आप  ब्राह्मणवादी, हिंदूवादी हो। क्या त्रासदी है!!! असल में इंसान अपनी विचारधारा और विश्वास को दूसरों पर थोपना चाहता है। इस चक्कर में वह समाज की भविन्नत्ता की कदर करना भूल जाता है। भविन्नता में ही सुंदरता होती है । संत रविदास (चमार), जो के अछूत समझे जानी वाली जाती से थे, के सन्दर्भ में तोह बहुजन विद्वान, उनके  बेगमपुरा और
सामाजिक गैरबराबरी में किये योगदान से आगे ही नहीं बढ़ते। उनका आध्यात्मिकता, और मानवीय विकृतियों के प्रति योगदान बहुत सराहनीये है।

इन पंचन मेरो मन जो विगारियो, पल पल हर जी से अंतर पारियो इन पांच विकृतियों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार) ने इंसान के मन को ख़राब कर रक्खा है ।(इन संतो की बानी को समझने के लिए प्रोफ साहिब सिंह द्वारा रचित भक्त बानी टिका को पढ़ा जा सकता है। )माटी को पुत्रा कैसे नाचत है नाशवान मनुष्य कैसे अहंकार-वश, रंग रलिया मना रहा है। एक दिन उसने संसार से जाना है।

समाधान के लिए आप प्रभु-भक्ति का मार्ग बताते हैं। हम तोह एक राम कह छुटिया (जहाँ राम, अयोध्यापति राम नहीं, बल्कि निराकार परमात्मा को कहा गया है ) उनके 40 शब्दों में से 35 से अधिक में आप प्रभु, प्रभु-भक्ति, प्रभु-प्रेम, प्रभु-शरण, साध-संगत की बात करते हैं। सिख धर्म की बुनियाद इन्ही महान संतो की बानी है। उत्तर भारत के अधिकतर डेरों जैसे निरंकारी, राधा स्वामी, बल्लां, का आधार भी इन्ही संतो की बानी है। जब शोध कर्ताओं को जातीय अभिकथन की उदहारण देनी होती है तो वो पंजाब के दोआबा क्षेत्र की तरफ रुख करते हैं। जही पर 1920 के दशक में बाबू मांगू राम द्वारा आदि धर्म मूवमेंट की स्थापना हुई थी । गाड़ियों पर, गानों में आप ऐसी पंक्तिया देख सकते हैं  पुत्त चमारा दे भगतां दे मुंडे आदि। है कोई और भारत का क्षेत्र जहाँ इतनी बेबाकी से दलित अपनी जाती को assert कर सकते हो ? इस सारी सशक्तिकरण का आधार संतो की बानी ही है।

पहले अधियात्मिक लोग भिक्षु या सन्यासी बन जाते थे। पर भक्ति काल के संतो ने अपने कर्म (आर्थिकता) को नहीं छोड़ा और ग्रहस्त जीवन में रह कर ही बंदगी/आराधना करने का मार्ग दिया। गुरु नानक ने ज़िन्दगी के आखरी १७ साल खेती कर के कर्म के महत्व को दर्शाया। इसी लिए पंजाबी मेहनत की कमाई को छोटा नहीं समझते। जे सिख गुरुओं की देन है के पंजाब के लोगों को इन महान संतो के बारे में जानकारी हुई। बनारस के होने के बावजूद, उत्तर
प्रदेश और बिहार के लोग, संत कबीर, रविदास को कम् जानते हैं। दलितों का मनोबल हमेशा टूटा रहे, इस लिए ब्राह्मण इनको ऐसे नाम देते थे, डबचू घसीटा रुलदू आदि। पर गुरु गोबिंद सिंह ने इनको हिम्मत सिंह, बहादुर सिंह, दलेर सिंह जैसे उत्शाह-वरदक बलशाली नाम दिए। पर हम गुरुओं की इस देन
को नहीं पहचानेगें, क्योकि गुरु दलित नहीं थे !

समय आ गया है के बहुजन अपनी सोच का दायरा बढ़ाएं समय आ गया है के बहुजन अपनी सोच का दायरा बढ़ाएं और इन महान संतों की आध्यात्मिकता के क्षेत्र में योगदान को पहचाने। इस से बहुजनो का ही फायदा होगा।

परगट सिंह


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Author

Riya bawa

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