अयोध्या मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला मुसलमानों से नाइंसाफी है!

punjabkesari.in Thursday, Jul 30, 2020 - 03:49 PM (IST)

यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने 9 नवंबर 2019 को अयोध्या राम जन्मभूमि - बाबरी मस्जिद के दहाईयों पुराने विवाद पर अपना फैसला दे दिया है लेकिन इस विवाद का मुस्लिम पक्ष इस फैसले से संतुष्ट नहीं है क्योंकि उनका विचार है कि ये फैसला विरोधाभास से भरा हुआ है जिससे यह फैसला निष्पक्षता की कसौटी पर पूरा नहीं उतरता। इस फैसले ने देश के मुसलमानों में ये भावना पैदा कर दी है कि उनके साथ इंसाफ नहीं हुआ है। यही कारण है कि वें सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ देश के सर्वोच्च न्यायालय में पुर्नयाचिका दाखिल करने जा रहे हैं। अगर हम इस फैसले का गहराई से विश्लेषण करे तो इसमें बहुत सारी कमियां पाई जाएंगी।  फैसला और उसमें पाए जाने वाला विरोधाभास निम्नलिखित है।                

सर्वोच्च न्यायालय अपने फैसले में कहता है कि 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किया जाना गैर-कानूनी काम था और 22/23 दिसंबर 1949 की रात को मस्जिद के बीच वाले गुम्बद के नीचे चुपके में मूर्तियां रखना गलत और अपवित्र कार्य था। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात को स्वीकारा है कि बाबरी मस्जिद को 16 वीं शताब्दी में बाबर के सिपहसालार मीर बाक़ी ने बनवाया था। संविधान पीठ का यह भी मानना है कि बाबरी मस्जिद को बनवाने के लिए कोई मंदिर नहीं तोड़ा गया।                 

"सुन्नी वक्फ़ बोर्ड बाबरी मस्जिद पर बिना बाधित लम्बे समय तक अपने कब्जे के दावे को साबित नहीं कर सका।" - सर्वोच्च न्यायालय। वास्तव में सुन्नी वक्फ़ बोर्ड ने यह दावा पेश किया था कि लम्बे समय से बाबरी मस्ज़िद पर उसका कब्जा था और उसमें नमाज़ अदा की जाती थी।

सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार अयोध्या में स्थित विवादित स्थल 'राजस्व विभाग' के रिकॉर्ड के मुताबिक एक सरकारी भूमि है। दूसरी ओर सर्वोच्च न्यायालय कहता है कि 'राम चबूतरा' और 'सीता रसोई' (बाबरी मस्जिद के बाहर) 1857 से पहले मौजूद है।               

भारतीय पुरातत्व  सर्वेक्षण की रिपोर्ट को आधार बनाकर सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि बाबरी मस्जिद के नीचे कोई इस्लामिक ढांचा नहीं मिला और न कोई इस्लामी अवशेष।  अदालत के अनुसार मुस्लिम पक्ष अपना यह दावा साबित नहीं कर सका कि बाबरी मस्जिद पर 1857 से पहले उनका इस पर संपूर्ण कब्जा रहा है। जबकि हिन्दू पक्ष यह साबित करने में कामयाब रहा है कि 'राम चबूतरा', 'सीता रसोई' पर इनका  कब्जा 1857 से पहले से चला आ रहा है और वे वहां पूजा-पाठ करते रहे हैं। और वे वहां 1857 के पहले से पूजा-पाठ करते रहे हैं।                  

सवोच्च न्यायालय ने इस मामले पर इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को निरस्त करते हुए कहा कि ये विवाद भूमि के बंटवारे का नहीं था। न्यायालय के विचार से यह फैसला अतार्किक है। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अयोध्या स्थित 2.77 एकड़ विवादित भूमि को तीन हिस्सों में बांटा था। एक हिस्सा निर्मोही अखाड़े को दिया, दूसरा हिस्सा बाबरी मस्जिद को दिया और तीसरा रामलला को दिया।             

अयोध्या में राम जन्मभूमि होने के दावे का किसी ने विरोध नहीं किया और हिंदू लोगों का यह विश्वास रहा है कि राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद के बीच के गुम्बद के नीचे स्थित है। हिंदू ग्रंथों के विवरण से भी हिंदू पक्ष का 'राम चबूतरा', 'सीता रसोई' और 'भण्डारा' से संबंधित दावे की पुष्टि होेती है। इस उद्देश्य के लिए 'स्कंद पुराण' और 'पद्म पुराण' का उल्लेख किया गया है।

22/23 दिसंबर 1949 की रात में बाबरी मस्जिद में चोरी से मूर्ति रखी गई। एक आदमी की धार्मिक आस्था के जरिए दूसरे आदमी को उसकी धार्मिक आस्था से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। हम किसी मस्जिद के अस्तित्व को इंकार नहीं कर सकते जहां नमाज़ पढ़ी जाती है।             

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट का हवाला बार-बार दिया है। यह रिपोर्ट 2003 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्देश पर विवादित स्थल की खुदाई करके तत्कालीन निर्देशक हरी मांझी और सुप्रीटेंडेंट इंचार्ज बी. आर. मणि द्वारा तैयार की गई थी।   
               
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि विवादित स्थल के आसपास कोई खाली भूमि मौजूद नहीं थी। वहां 1200 ई०पू० से लगातार आबादी थी। मंदिर के अवशेषों के पाए जाने से पता चलता है कि अतीत में विवादित स्थल के नीचे मंदिर था। 1969-70 से 1975-76 के बीच में प्रोफेसर बी. बी. लाल और उनकी टीम ने अयोध्या के विवादित स्थल के आसपास खुदाई की।                 

12 मार्च 2003 को उस वक्त के रिसीवर और मंडलायुक्त रामशरण श्रीवास्तव की निगरानी में उनकी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की टीम द्वारा खुदाई की गई।           दोनों पक्षों (हिंदू और मुस्लिम) की वकील भी खुदाई के समय मौजूद थे। इसके अलावा दोनों समुदायों के विशेषज्ञ भी उपस्थित थे। इस टीम की अगुवाई बी. आर. मणि ने की। खुदाई का काम लगभग दो महीने चला जिसमें 131 मज़दूरों को लगाया गया। 11 जून 2003 को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने अपनी 574 पृष्ठों की अंतरिम रिपोर्ट तैयार कर ली और इसे अगस्त 2003 को इलाहाबाद हाई कोर्ट में पेश की।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने अपनी इस रिपोर्ट को दो हिस्सों में पेश किया जिसमें विस्तृत रिपोर्ट, नक्शे, फोटो और ग्राफिक्स शामिल थे। इस रिपोर्ट में सजावटी ईंटें, दैवीय मूर्तियां, ईंटों से बना गोलाकार मंदिर, पानी निकासी का परनाला, एक बड़ी इमारत से संबंधित 50 खंभे के पाए जाने का उल्लेख है। खुदाई में पाई गई उपरोक्त मूर्तियों को शिव-पार्वती और एक गोलाकार इमारत मंदिर से तुलना की जा रही है। ये अवशेष 7वीं से 10वीं ई०पू० शताब्दी के माने जा रहे हैं। खुदाई में पाए गए 50 खंभे मंदिर की उपस्थिति की पुष्टि करते हैं।               

फैसले का विश्लेषण                  
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पढ़कर लगता है कि अदालत ने विवादित स्थल के कब्जे के तथ्य को सबसे ज्यादा महत्व दिया है। अदालत ने हिंदू पक्ष के इस दावे को माना है कि 'राम चबूतरा' और 'सीता रसोई' पर उनका कब्जा 1857 के पहले से लगातार कायम है, जबकि इसमें मुस्लिम पक्ष का विवादित स्थल पर बिना बाधित 1857 से पहले से संबंधित दावे को नहीं माना। विवादित स्थल पर मुसलमानों के कब्जे से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय का यह कहना बहुत स्पष्ट नहीं है। 22/23 दिसंबर 1949 की रात में बाबरी मस्जिद में मूर्तियों के रखे जाने की घटना से पहले इस पर मुस्लिम समुदाय का पूरा कब्जा था। इस घटना के बाद मुस्लिम समुदाय को बाबरी मस्जिद में नमाज़ पढने से रोक दिया और इस प्रकार उन्हें बाबरी मस्जिद में उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। उस दिन से मुसलमानों का विवादित स्थल पर कब्जा खत्म हो गया। यह परिस्थिति स्थानीय प्रशासन द्वारा बाबरी मस्जिद में मुसलमानों के प्रवेश पर पाबंदी के कदम से पैदा हुई। इसका मतलब है कि बाबरी मस्जिद पर मुसलमानों का बिना बाधित पूरा कब्जा था। यही नहीं बल्कि बाबरी मस्जिद के निर्माण से लेकर अब तक बिना बाधित मुसलमानों का कब्जा था। बाबरी मस्जिद पर मुसलमानों के कब्जे में बाधा तब आई जब उनको मस्जिद में प्रवेश से रोक दिया गया और इस प्रकार से स्थानीय प्रशासन द्वारा बाबरी मस्जिद पर उनके कब्जे को खत्म कर दिया गया। इस परिस्थिति में मुसलमान बाबरी मस्जिद पर अपना बिना बाधित कब्जा कैसे बरकरार रख सकता था? क्या संविधान पीठ के जजों ने इस परिस्थिति पर नहीं विचार किया कि मुसलमान बाबरी मस्जिद पर बिना बाधित कब्जा कैसे बरकरार रख सकता था और बाबरी मस्जिद पर मुसलमानों  के बिना बाधित थ्योरी को नहीं स्वीकार किया? विदित है कि बाबरी मस्जिद में मुसलमानों का प्रवेश अतीत में कभी नहीं रोका गया सिवाय तब के जब 22/23 दिसंबर 1949 की रात में बाबरी मस्जिद में चोरी से मूर्तियां रखने की घटना घटी। उस दिन से आज तक मुसलमानों का बाबरी मस्जिद पर कब्जा खत्म हो गया। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस परिस्थिति को सामने रखकर मुसलमानों के खिलाफ दिया गया फैसला न्यायपूर्ण नहीं है। 1832 ई० में भी बाबरी मस्जिद को लेकर हिन्दू-मुस्लिम समुदाय में विवाद खड़ा हुआ था लेकिन स्थानीय प्रशासन ने उस वक्त मुसलमानों को मस्जिद में प्रवेश करने से नहीं रोका था। यह साबित करता है कि बाबरी मस्जिद पर मुसलमानों का बिना बाधित कब्जा 22/23 दिसंबर 1949 की रात को मूर्तियां रखने की घटना से पहले तक बरकरार था। लेकिन अदालत ने इस तथ्य को मानने से इंकार कर दिया जो इस फैसले की सबसे बड़ी कमी है।               

अदालत ने अपने फैसले में कहा है कि बाबरी मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर नहीं बनाई गई थी लेकिन अदालत यह भी कहती है कि बाबरी मस्जिद किसी खाली जगह पर नहीं बनाई गई थी। वो ये भी कहती है कि उस भूमि पर एक ढांचा था। उस भूमि पर किस तरह का ढांचा था, इसका स्पष्टिकरण फैसले में नहीं किया गया है लेकिन यह तय है कि वो कोई मंदिर नहीं था क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय खुद यह स्वीकार करता है कि बाबरी मस्जिद किसी मंदिर को तोडकर नहीं बनाई गई थी। इस तरह यह तथ्य साबित होता है कि बाबर के सिपहसालार मीर बाक़ी ने बाबरी मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर नहीं बनवाया था। जहां तक बाबरी मस्जिद के नीचे पाए गए अवशेषों का संबंध है वें किसी राम मंदिर वे अवशेष नहीं है बल्कि वें एक शिव-पार्वती मंदिर के हैं। इसके अलावा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा की गई खुदाई में 'राम जन्मस्थान' के कोई अवशेष नहीं पाए गए जबकि हिंदू पक्ष का यह दावा था कि बाबरी मस्जिद के नीचे 'राम जन्मस्थान' है। इसी दावे को सामने रखकर 22/23 दिसंबर 1949 की रात में चोरी छिपे 'रामलला' की मूर्ति रखी गई थी। यह अजीब बात है कि 'राम जन्मस्थान' से संबंधित कोई अवशेष न मिलने के बावजूद बाबरी मस्जिद की जगह को सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदू पक्ष के हवाले कर दिया जोकि न्यायपूर्ण नहीं हो सकता। जाहिर है श्रीराम का जन्म राजा दशरथ के महल में 10 जनवरी, 5114 ई० पू० में हुआ था, ऐसी स्थिति में बाबरी मस्जिद के नीचे हिंदू पक्ष के मुताबिक 5114 ई०पू० के अवशेष मिलने चाहिए थे जो नहीं मिलें जिससे यह साबित हो जाता है कि बाबरी मस्जिद के स्थान पर राम जन्मस्थान था ही नहीं। यहां यह उल्लेखनीय है कि बाबरी मस्जिद के नीचे पाए जाने वाले अवशेष 7 से 10 ई०पू० शताब्दी के हैं। ऐसी परिस्थिति में पाए जाने वाले अवशेष अयोध्या बाबरी मस्जिद के अत्यंत महत्वपूर्ण विवाद का आधार कैसे बन सकता है? कौन जानता है कि किसी खाली जगह के नीचे 7 से 10 ई०पू० शताब्दी का कोई मंदिर है या भवन है। इसलिए बाबरी मस्जिद के निर्माण के समय यहां निश्चित तौर पर कोई नहीं जानता था कि बाबरी मस्जिद के नीचे मंदिर या भवन है। ज्ञात हो कि हर जगह के नीचे विभिन्न चीजों के अवशेष पाए जाते हैं और हमारे घरों के नीचे भी भवनों के अवशेष मिल सकते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि हम अपने घर पर से अपना कब्जा छोड़ दें। इस तथ्य को ध्यान में रखकर हम कह सकते हैं कि हमारे घर उस जमीन पर बने हुए हैं जहां सदियों पहले बसावट रही होगी। इस प्रकार अयोध्या- बाबरी मस्जिद विवाद पर 'भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण' द्वारा की गई खुदाई में पाए गए अवशेषों के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला समझ से बाहर है। अदालत ने बाबरी मस्जिद के अस्तित्व को नकार दिया जो लगभग पिछले 400 सालों से मौजूद है और अपना फैसला बाबरी मस्जिद के नीचे पाए जाने वाले अवशेषों के आधार पर दिया। क्या यही न्याय है? वास्तव में सर्वोच्च न्यायालय के इस तरह के फैसले की उम्मीद नहीं थी क्योंकि इस फैसले में वो बुद्धिमता और सूक्ष्म विचार की कमी पाई जाती है जिसके लिए सर्वोच्च न्यायालय जाना जाता है।            

इस फैसले की एक बड़ी कमी यह है कि इसके द्वारा बाबरी मस्जिद की जगह को सरकारी जगह बता दिया गया है जबकि 'राम चबूतरा', 'सीता रसोई' और 'भण्डारा' की जगह पर खामोशी अपनाई गई है। सवाल यह है कि जब बाबरी मस्जिद की जगह एक सरकारी जगह है तो 'राम चबूतरा', 'सीता रसोई' और 'भण्डारा' की जगह सरकारी जगह क्यों नहीं है। ये तीनों धार्मिक स्थल बाबरी मस्जिद के बाहर स्थित हैं और बाबरी मस्जिद की भूमि पर स्थित हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि मुस्लिम पक्ष ने अब अफसोस जताया है कि उनकी तरफ से 'राम चबूतरा', 'सीता रसोई' और 'भण्डारा' पर हिन्दूओं द्वारा पूजा करने से क्यों नहीं रोका गया। इसलिए यह आश्चर्य की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इन तीनों हिंदू धार्मिक स्थलों को सरकारी जमीन होने की घोषणा नहीं की। सर्वोच्च न्यायालय ने मुस्लिम पक्ष के मालिकाना हक को ये कहकर निरस्त कर दिया कि यह भूमि  सरकारी है। दूसरी तरफ सर्वोच्च न्यायालय 'राम चबूतरा', 'सीता रसोई' और 'भण्डारा' की भूमि को सरकारी भूमि नहीं मानता है और इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने इसको आधार बनाकर हिंदुओं के पक्ष में अपना फैसला दिया। क्या 'सीता रसोई', 'राम चबूतरा' और 'भण्डारा' बाबरी मस्जिद के निर्माण के पहले से स्थित है? इसका उत्तर सकारात्मक नहीं हो सकता। परिस्थितियां बताती हैं कि ये हिंदू धार्मिक स्थल बाबरी के निर्माण के कई दशकों बाद अस्तित्व में आई होंगी। ऐसी परिस्थति में अगर बाबरी मस्जिद के अंदर की भूमि सरकारी भूमि हो सकती है तो क्या 'राम चबूतरा', 'सीता रसोई' और 'भण्डारा' जो बाबरी मस्जिद के बाहर स्थित है तो यह सरकारी जमीन नहीं हो सकती है। सर्वोच्च न्यायालय का फैसला समझने योग्य नहीं है। अगर बाबरी मस्जिद की भूमि सरकारी भूमि है तो 'राम चबूतरा', 'सीता रसोई' और 'भण्डारा' की भूमि भी सरकारी भूमि होगी। इस तथ्य को नजरअंदाज करके सर्वोच्च न्यायालय ने मुस्लिम पक्ष को न्याय पाने से वंचित कर दिया। ऐसा लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने ये रवैया जानबूझकर अपनाया है। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मुसलमानों के खिलाफ दिया गया फैसला अतार्किक है क्योंकि एक तरफ सर्वोच्च न्यायालय कहता है कि बाबरी मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर नहीं बनाई गई फिर यह कहता है कि बाबरी मस्जिद को तोड़े जाने का काम गैर-कानूनी है और बाबरी मस्जिद के अंदर 'रामलला' की मूर्ति का चोरी छिपे रखा जाना गलत और अपवित्र कृत्य था। जब सर्वोच्च न्यायालय इन तथ्यों को स्वीकारा करता है तो उसे मुस्लिम समुदाय को न्याय देने के बारे में भी सोचना चाहिए था। दूसरे शब्दों में मुस्लिम समुदाय के पक्ष में इस विवाद का फैसला किया जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं किया गया।       

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बारे में यही विचार देश के सही सोच रखने वालों का भी है।

 (रोहित शर्मा विश्वकर्मा)


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Author

Riya bawa

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