कश्मीर के शैवाचार्य महापंडित अभिनवगुप्त
punjabkesari.in Sunday, Jun 07, 2020 - 03:59 PM (IST)

प्राचीनकाल में कश्मीर विद्या-बुद्धि,धर्म-दर्शन और साहित्य-संस्कृति का प्रधान केंद्र रहा है।जिन मनीषियों और उद्भट विद्वानों ने कश्मीर का नाम अपनी प्रतिभा और विद्वत्ता से भास्वरित किया है, उनमें बहुमुखी प्रतिभा के धनी प्रसिद्ध शैवाचार्य, दार्शनिक, रसशास्त्री तथा प्रकांड विद्वान कश्मीर-वासी आचार्य अभिनवगुप्त का नाम बड़े गर्व और आदर के साथ लिया जाता है।
अभिनवगुप्त का जन्म कश्मीर में दशम शताब्दी के मध्य भाग में हुआ था (लगभग 950 ई.-960 ई. के बीच)। इनका कुल अपनी विद्या, विद्वता तथा तांत्रिक-साधना के लिए कश्मीर में नितांत प्रख्यात था। इनके पितामह का नाम था वराहगुप्त तथा पिता का नरसिंहगुप्त जो जनता में "चुखुल" या "चुखुलक" के घरेलू नाम से भी प्रसिद्ध थे। अभिनवगुप्त में ज्ञान की इतनी तीव्र पिपासा थी कि इसकी तृप्ति के लिए इन्होंने कश्मीर से बाहर जालंधर की यात्रा की और वहाँ अर्धत्र्यंबक मत के प्रधान आचार्य शंभुनाथ से कौलिक मत के सिद्धांतों और उपासना-तत्वों का प्रगाढ़ अनुशीलन किया। व्याकरण का अध्ययन इन्होंने अपने पिता नरसिंहगुप्त से, ब्रह्मविद्या का भूतिराज से, क्रम और त्रिक्दर्शनों का लक्ष्मण गुप्त से, ध्वनि का भट्टेंद्रराज से तथा नाट्यशास्त्र का अध्ययन भट्ट तोत (या तौत) से किया। इनके गुरुओं की संख्या बीस तक बताई जाती है।
भारत की ज्ञान-परंपरा में आचार्य अभिनवगुप्त एवं कश्मीर की स्थिति को एक ‘संगम-तीर्थ’ के रूपक से बताया जा सकता है। जैसे कश्मीर (शारदा देश) संपूर्ण भारत का ‘सर्वज्ञ पीठ’ है, वैसे ही आचार्य अभिनवगुप्त संपूर्ण भारतवर्ष की सभी ज्ञान-विधाओं एवं साधना की परंपराओं के सर्वोपरि समादृत आचार्य हैं। काश्मीर केवल शैवदर्शन की ही नहीं, अपितु बौद्ध, मीमांसा, नैयायिक, सिद्ध, तांत्रिक, सूफी आदि परंपराओं का भी संगम रहा है। आचार्य अभिनवगुप्त अद्वैत आगम एवं प्रत्यभिज्ञा-दर्शन के प्रतिनिधि आचार्य तो हैं ही, साथ ही उनमें एक से अधिक ज्ञान-विधाओं का समाहार भी है।
आचार्य अभिनवगुप्त के पूर्वज अत्रिगुप्त (8वीं शताब्दी) कन्नौज प्रांत के निवासी थे। यह समय राजा यशोवर्मन का था। अत्रिगुप्त कई शास्त्रों के विद्वान थे और शैवशासन पर उनका विशेष अधिकार था।माना जाता है कश्मीर- नरेश ललितादित्य ने 740 ई. जब कान्यकुब्ज प्रदेश को जीतकर कश्मीर के अंतर्गत मिला लिया तो उन्होंने अत्रिगुप्त से कश्मीर में चलकर निवास की प्रार्थना की।वितस्ता (झेलम) के तट पर भगवान शीतांशुमौलि (शिव) के मंदिर के सम्मुख एक विशाल भवन अत्रिगुप्त के लिये निर्मित कराया गया। इसी यशस्वी कुल में अभिनवगुप्त का जन्म लगभग 200 वर्ष बाद (950 ई.में) हुआ। उनके पिता का नाम नरसिंहगुप्त तथा माता का नाम विमला था जिन्हें अपने ग्रंथों में वे आदर और श्रद्धा से स्मरण करते हुए ‘विमलकला’ कहते हैं।
भगवान् पतंजलि की तरह आचार्य अभिनवगुप्त भी शेषावतार कहे जाते हैं। शेषनाग ज्ञान-संस्कृति के रक्षक हैं। अभिनवगुप्त के ग्रंथ तंत्रालोक के टीकाकार आचार्य जयरथ ने उन्हें ‘योगिनीभू’ कहा है। इस रूप में तो वे स्वयं ही शिव के अवतार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। आचार्य अभिनवगुप्त के ज्ञान की प्रामाणिकता इस संदर्भ में है कि उन्होंने अपने काल के मूर्धन्य आचार्यों-गुरुओं से ज्ञान की कई विधाओं में शिक्षा-दीक्षा ली थी। जैसा कि पूर्व में कहा गया है उनके पितृवर श्री नरसिंहगुप्त उनके व्याकरण के गुरु थे। इसी प्रकार लक्ष्मणगुप्त प्रत्यभिज्ञाशास्त्र के तथा शंभुनाथ (जालंधर पीठ) उनके कौल-संप्रदाय के साधना के गुरु थे। उन्होंने अपने ग्रंथों में अपने नौ गुरुओं का सादर उल्लेख किया है। भारतवर्ष के किसी एक आचार्य में विविध ज्ञान विधाओं का समाहार मिलना दुर्लभ है। यही स्थिति शारदा क्षेत्र कश्मीर की भी है। इस अकेले क्षेत्र से जितने आचार्य हुए हैं उतने देश के किसी अन्य क्षेत्र से नहीं हुए।
जैसी गौरवशाली आचार्य अभिनवगुप्त की गुरु परम्परा रही है वैसी ही उनकी शिष्य परंपरा भी है। उनके प्रमुख शिष्यों में क्षेमराज , क्षेमेन्द्र एवं मधुराजयोगी हैं। यही परंपरा सुभटदत्त (12वीं शताब्दी) जयरथ, शोभाकर-गुप्त, महेश्वरानन्द (12वीं शताब्दी), भास्कर कंठ (18वीं शताब्दी) प्रभृति आचार्यों से होती हुई स्वामी
लक्ष्मण जू तक चलती है।दुर्भाग्यवश यह विशद एवं अमूल्य ज्ञान-राशि इतिहास के घटनाक्रमों में धीरे-धीरे हाशिये पर चली गई।
आचार्य अभिनवगुप्त ने अपने सुदीर्घ जीवन को केवल तीन महत् लक्ष्यों के लिए समर्पित कर दिया- शिवभक्ति, ग्रंथ निर्माण एवं अध्यापन। उनके द्वारा रचित 42 ग्रंथ बताए जाते हैं, इनमें से केवल 20-22 ही उपलब्ध हो पाए हैं। शताधिक ऐसे आगम ग्रंथ हैं, जिनका उल्लेख-उद्धरण उनके ग्रंथों में तो है, लेकिन अब वे लुप्तप्राय हैं। अभिनवगुप्त के ग्रंथों की पांडुलिपियां दक्षिण में प्राप्त होती रही हैं, विशेषकर केरल राज्य में। उनके ग्रंथ संपूर्ण प्राचीन भारतवर्ष में आदर के साथ पढ़ाये जाते रहे थे।भरत के रस-सिद्धांत को नये आयाम से व्याख्यायित कर जिस ‘अभिव्यंजना वाद/सिद्धांत’ को इन्होंने प्रतिपादित किया वह अभिनवगुप्त की भारतीय काव्यशास्त्र को एक अनुपम देन है।
कश्मीरी जनमानस की अभिनवगुप्त से जुड़ी एक रोचक मान्यता/किंवदन्ती के अनुसार अपने जीवन का लक्ष्य पूरा करने के बाद अभिनव गुप्त जीवन के अंतिम चरण में एक दिन सहसा अपने बारह सौ शिष्यों सहित गुलमर्ग/कश्मीर के समीप स्थित भैरव गुफा में प्रविष्ट हुए तथा फिर कभी बाहर नहीं निकले। लोगों की मान्यता है कि भैरव गुफा में प्रवेश के बाद अभिनवगुप्त शिव से एकाकार हो गए थे। यह भी मान्यता है कि कश्मीर-वासी शैवाचार्य अभिनवगुप्त को उनके अंतिम दिनों में उनके अनुयायी उन्हें मंत्रसिद्ध साधक एवं भैरव का अवतार मानने लगे थे।
ऐसी मान्यता है कि सम्भवतः 80 वर्ष की आयु में अपने शिष्यों के साथ शिवस्तुति करते हुए श्रीनगर के पास गुलमर्ग को जाने वाले मार्ग पर बीरवा गांव में स्थित एक गुफा में उन्होंने प्रवेश किया तथा इसी गुफा में दिनांक 04 जनवरी 1016 को शिवमय हो गए थे। यह गुफा भैरव गुफा के नाम से आज भी विद्यमान है।(गुफा का चित्र दिया गया है)इस घटना को 2016 में एक हजार साल पूरे हो गए थे और सम्भवतः इसी बात को ध्यान में रखकर इस महान साधक की पुण्य स्मृति में अभिनवगुप्त-सहस्राब्दी मनाने का निर्णय लिया गया था। ऐसे ज्ञानपिपासु सरस्वतीपुत्र बड़े पुण्य से वरदानस्वरुप इस पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।हमारा शतशत नमन्!
(डॉ० शिबन कृष्ण रैणा)