शिरोमणि भक्त धन्ना जी
punjabkesari.in Saturday, Dec 23, 2017 - 12:23 PM (IST)

मध्यकाल में उभरी भक्ति लहर ने मनुष्य के आध्यात्मिक विकास में एक अहम योगदान डाला है।इस लहर से जुड़े भक्त अपनी भक्ति-भावना से अकाल पुरख की कृपा के विशेष पात्र रहे हैं।इलाकाई तथा भाषाई सीमाओं से ऊपर उठ कर विचरने वाले यह महापुरष अपनी सर्व-कल्याणी सोच सदका आपसी भाईचारे तथा समानता के समर्थक रहे हैं।अथाह श्रद्धा तथा दृढ़ इरादे के मालिक इन भक्तों ने अपनी रूह को ईश्वर के रंग में रंग कर ऐसे बहुमूल्य तथा पवित्र वचन उच्चारण किए हैं जिनको पढ़-सुन कर कोई भी व्यक्ति अपने लोक तथा परलोक को सुहेला बना सकता है।
सामाजिक तथा सभ्याचारक भेदों के बावजूद इन भक्तों की टेक सदैव एक अकाल-पुरख पर रही है।इस टेक सदका ही यह भक्त उस परम- पिता से एकस्वर होते रहे हैं।सोच के पक्ष से ऊंचे तथा व्यवहार के पक्ष से सुच्चे इन भक्तों की चाल संसारियों से निराली बनी रही हैं।इस चाल की गवाही तीसरे पातशह श्री गुरू अमरदास जी अपनी पावन बाणी अनंद साहिब की 14वीं पउड़ी में इस प्रकार भरते हैः
भगतां की चाल निराली।।
चाला निराली भगताह केरी बिखम मारगि चलणा।।
लबु लोभु अहंकार तजि त्रिसना बहुतु नाही बोलणा।।
इस निराली चाल के कारण भक्तों तथा संासारियों का जोड़ कम ही बनता रहा है।इस बिखम मार्ग के पथिक भक्तों को जब कभी सांसारिक लोगों ने सताने अथवा अज़माने का कोई कुप्रयास किया है तो अपने प्यारे भक्तों की बाजू प्रभु ने आगे होकर स्वयं पकड़ी है।इस बात को तसदीक करते हुए चैथे पातशह गुरू रामदास जी इस प्रकार फुर्माति हैंः हरि जुगु जुगु भगत उपाइआ पैज रखदा आइआ राम राजे।। धैर्यता तथा समर्पण भावना से की हुई प्रेमा-भक्ति जब अपनी शिखर छू जाती है तो उस समय ईश्वर को भी इन भक्तों की बात माननी पड़ जाती है।
ऐसी ही एक बात प्रभु को भक्त धन्ना जी की भी माननी पड़ी थी जब उस (भक्त धन्ने)े ने अपने भोलेपन तथा दृढ़ विश्वास के साथ उस (प्रभु) को अपना सज्जन बना लिया था। अटल विश्वासयोग्यता तथा प्रेम की भावना से ईश्वरीय बखशिश का पात्र बनने वाले भक्त धन्ना जी का जन्म 20 अप्रैल सन् 1416 को राजस्थान के टांक इलाके के गांव धूआन में हुआ।आप जी के पिता का नाम भाई भोला तथा माता का नाम धन्नो था। आप का शुमार उन सिदकवानों में किया जाता है जो अपना हाथ कार (किरत) की ओर तथा दिल यार (प्रभु) की ओर लगाए रखते हैं।इस लगन से उन्होंने उस परम-पिता के न केवल दर्शन ही किए बल्कि उसको अपने काम- काज का भागीदान भी बना लिया।
भक्त धन्ना जी के साथ जुड़े साखी साहित्य को पढ़ने के बाद जो बातें प्रमुख रूप में उभर कर सामने आती हैं,उनके अनुसार बचपन से ही धार्मिक रूचियां रखने वाले भक्त धन्ना जी के जीवन बहुत ही सादा तथा संघर्षमई था।भक्त धन्ना जी के जीवन से जुड़ी एक साखी के अनुसार एक दिन उन्होंने एक पण्डित को ठाकुर की पूजा करते हुए बड़े ध्यान से देखा।देखने के बाद भक्त जी के मन में भी पूजा की इच्छा प्रचंड हो गई।अपनी इस प्रचंडित इच्छा के कारण उन्होंने उस पण्डित जी से ठाकुर की मांग की।बदले में उस पण्डित ने भक्त जी को कुछ सांसारिक वस्तुएं दक्षिणा के रूप में देने के लिए कहा,जो भक्त जी ने सहज रूप में ही देनी स्वीकार कर लीं।इस समझौते के बाद उस चुस्त तथा लालची पण्डित ने एक साधारण पत्थर भक्त धन्ना जी के सुपुर्द कर दिया।
सिदकी भावना तथा सच्ची लगन वाले भक्त ने उस सधारण पत्थर (भगवान समझ कर) का स्नान करवा कर उसकी पूजा की तथा उसको प्रशाद-पानी को भोग लगाने के लिए कहा। पत्थर द्वारा कोई हुंगारा न मिलता देख कर भक्त ने स्वयं भी कुछ खाने से इन्कार कर दिया।इस साखी की पुषिृ भाई गुरदास जी ने अपनी दसवीं वार की तेरहवी पउड़ी में इस प्रकार की हैः-
ठाकुर नो नावालि कै छाहि रोटी लै भोगु चड़ावै।।
हाथि जोड़ि मिनतां करै पैरी पै पै बहुतु मनावै।।
हउ भी मुहु न जुठलासां तू रूठा मै किहु न सुखावै।।
. गोसाई परतखि होइ,रोटी खाइ छाहि मुहि लावै।।
भोला भाउ गोबिंदु मिलावै।।
इस पउड़ी द्वारा भाई गुरदास जी प्रचल्लित साखी का हवाला देकर यह विचार देना चाहते हैं कि प्रभु के अस्तित्तव का अनुभव शुद्ध हृदय से भक्ति करने वाले को ही होता है।पत्थर अथवा ठाकुर पूजा से नहीं।इस पउड़ी का केन्द्रीय भाव ”भोला भाउ गोबिंद मिलावै“ में है,जिससे यह स्पष्ट होता है कि गोबिंद की प्राप्ति निरकपट होकर तथा प्यार में भीग कर उस (परमात्मा) की याद में जुड़ने से होती है। पंचम पातशाह श्री गुरू अर्जुन देव जी बसंत राग के शब्द में जहां अन्य बहुत से भक्तों की कठोर कमाई तथा प्रेमा-भक्ति का ज़िक्र करते हैं,वहां भक्त धन्ना जी को “धंनै सेविआ बाल बुधि” कह कर उनके प्रभु-मिलाप का हवाला भी देते हैं। गुरू ग्रंथ साहिब के अंग 487-488 पर सुशोभित अपने एक अन्य पावन शब्द की अन्तिम पंक्तियों में पंचम पातशाह फुर्माते हैः-
इह बिधि सुन कै जाटरो उठि भगती लागा।।
मिले प्रतखि गुसाईआ धंना वडभागा।।
गुरू अर्जुन देव जी इन पावन पंक्तियों द्वारा यह संकेत दे रहे हैं कि भक्त धन्ना जी ने इस बात को भलि-भान्ति समझ लिया था कि परमात्मा को हृदय में बसाने से जहां उससे पूर्वकालिक भक्तों (नामदेव,रविदास तथा सैण आदि) ने ईश्वर के प्रेम को हासिल कर लिया था तो भक्ति की यह विधि उसको भी परमेश्वर तक पहुंचा सकती है और उसकी इस समर्पण की भावना वाली भक्ति ने उसको प्रभु के अस्तित्व का अहसास करवा दिया था।प्रभु से सांझ पड़ने के बाद भक्त धन्ना जी को पक्का विश्वास हो गया था कि प्रभु सदैव भक्तों के अंग-संग रहता है तथा उनके सभी कार्य संवारता है।प्रभु के इस बिरद को देख कर ही भक्त जी उच्चारण करते हैंः-
गोपाल तेरा आरता।।
जो जन तुमरी भगति करंते तिन के काज सवारता।।रहाउ।।
भक्त धन्ना जी की धन्नता इस बात में भी है कि जहां कुछ रहबर औरत को भक्ति-मार्ग के लिए बाधा महसूस करते हैं वहां भक्त जी ज़ोर-शोर से कह रहे हैंः-
घर की गीहनि चंगी।।
जनु धंना लेवै मंगी।।
औरत जाति तथा किरत के प्रति ऐसी सतिकारत तथा नेक सोच रखने वाले भक्त धन्ना जी का पूरा तथा योग्य सतिकार करते हुए बाणी के बोहिथ श्री गुरू अजु्र्रन देव जी ने जब इलाही वचनों का उच्चारण करने वाले पांच गुरू साहिबानां,ग्यारह भट्टां,चार गुरू-घर के निकटवर्तियों तथा पन्द्रह भक्तों की बाणी को एक लड़ी में (आदि ग्रंथ साहिब के रूप में) पिरोया था तो उसमें भक्त धन्ना जी के तीन पवित्र शब्द (दो राग आसा तथा एक राग धनासरी में) भी शामिल कर लिए थे। भक्ति लहर के प्रमुख भक्त धन्ना जी अपनी धार्मिक तथा सामाजिक ज़िम्मेवारी को इमानदारी से निभाते हुए 15 दिसम्बर 1502 ई0 को परलोक (कुछ इतिहासकार भक्त धन्ना जी का देहांत 1475 ई0 में भी हुआ मानते हैं) सिधार गए। भक्त धन्ना जी भक्ति-भावना जहां पाखण्डवाद से निरलेप है,वहां सच्ची तथा सुच्ची किरत करते हुए करतार के साथ जुड़े रहने की एक अति-उत्तम मिसाल भी है।
रमेश बग्गा चोहला
09463132719