बाबा दीप सिंह जी शहीद

Thursday, Jan 26, 2017 - 01:12 PM (IST)

शहीद उस कौम का मान-सम्मान होते है जिस में उनका जन्म होता है। वह कौमें भी धन्यता के योग्य होती है जो अपने पूर्वजों के महान कार्यो को अकसर याद करती रहती है। किसी शायर का कथन है ‘उस कौम को समय नहीं माफ करता,  जो मूल्य न तारे कुर्बानियों का।‘ शहीद तथा शहादत अरबी भाषा के शब्द है। शहादत का शब् दिक अर्थ गवाही देना या साक्षी होना होता है। इस प्रकार शहीद किसी कौम की ओर से दी गई कुर्बानियों के सदीवीं व सच्चे गवाह होते है। दीन दुखियोें की रखवाली,सत्य धर्म एवंम मानवता के लिए देश,कौम तथा समाज ऊपर आए सकटों का प्रसन्तापूर्वक स्वागत करना,इन संकटों का डट कर मुकाबला करना,इस मुकाबले के किसी निर्णायक मोड़ आने तक अपने कदम पीछे न करना तथा अपने मनोबल तथा मनोरथ की सिद्धी के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर कर देना शहीदों की पहचान होती है। यह पहचान मौत की वादियों में से गुज़र के ही करवाई जा सकती है। क्योंकि सूरा सो पहिचानिअै जु लरे दीन के हेत। पुरजा पुरजा कटि मरै कबहू न छाडै खेत।

इस प्रकार शहीद की आत्मा निर्मल तथा उदेश्य स्पष्ठ हेाता है, जिस को भाई गुरदास जी इस तरह प्रमाणित करते हैः- सबर सिदक शहीद भरम भऊ खोहणा। शहीद फौलादी इरादे का मालिक होता है,जिस के विचारों को बदला नहीं जा सकता। इस तरह के इरादे तथा विचारों की मलकीयत रखने वाले थे बाबा दीप सिंह जी शहीद। शहीद बाबा दीप सिंह का जन्म 26 जनवरी 1682 ईः को अमृतसर जि़ले (अब तरन तारन) की तहसील पट्टी के गांव पहुविन्ड में रहने वाले एक सधारण परिवार में भाई भगतु तथा माता जिऊणी के घर हुआ। आम बालकों की तरह बाबा जी के बचपन का नाम भी दीपा रखा गया। जब दीपे की उम्र 18 साल की हुई तो वह आपने माता-पिता के साथ श्री अन्नदपुर साहिब में श्री गुरू गोबिन्द सिंह जी के दर्शन करने के लिए गया। कुछ दिन रह कर दीपे के माता-पिता तो गाांव पहुविंड आ गए परन्तु दीपा वहीं रह गया। कलगीधर पातशाह से अमृत की दात प्राप्त करके दीपे के जीवन में एक महत्वर्पूण मोड़ आ गया तथा वह दीपे से दीप सिंह बन गया। श्री अन्नदपुर साहिब रह कर दीप सिंह ने शस्त्र व शास्त्र विद्या में बराबरी से मुहारत हासिल कर ली।20-22 साल की उम्र तक दीप सिंह ने जहां भाई मनी सिंह जैसे उस्ताद से गुरबाणी का अच्छा-खासा ज्ञान हासिल कर लिया वहां वह एक निपुण सिपाही भी बन गए।

कुछ समय बाद बाबा दीप सिंह अपने गांव पहुविंड आ गया। गांव आ कर उसने आस-पास के इलाके में धर्म प्रचार के कार्य को बड़ी ही लगन तथा श्रद्धा से करना आरम्भ कर दिया,जिसका नौजवान वर्ग पर बहुत ही सार्थिक एवंम उच्च प्रभाव पड़ने लगा। जब दसवें पातशाह ने श्री गुरू तेग बहादर साहिब की वाणी श्री गुरू ग्रन्थ साहिब में दर्ज करने की योजनाबंदी की तो उन्होंने भाई मनी सिंह जी के साथ-साथ बाबा दीप सिंह का भी भरपूर सहयोग लिया। बाबा जी से कलमां,सियाही व कागज़ आदि तैयार करने की सेवा ली गई। बाबा दीप सिंह ने श्री गुरू ग्रन्थ साहिब के चार उतारे करके चारों तख्तों को भेजे। दक्षिण की ओर रवाना होने 3. से पहले श्री गुरू गोबिन्द सिंह जी ने श्री दमदमा साहिब की सेवा-सम्भाल की जिम्मेदारी पूर्ण रूप में बाबा जी को सोंप दी। इस जिम्मेदारी को बाबा दीप सिंह ने बड़ी तन्मयता से निभाया। 1709 ई. में जब बाबा बन्दा सिंह बहादर की ओर से जाल्मों की ओर से की गई धक्केशाही का हिसाब चुकता करने के लिए पंजाब की ओर कदम बढ़ाए तो बाबा दीप सिंह ने सैंकड़ों शूरवीरों की फौज लेकर उनका डट कर साथ दिया।

इस साथ के कारण ही सिक्खों ने सरहंद की ईट से ईट खड़का दी थी। बाबा जी की ओर से इस जंग में निभाई गई अहम भूमिका के कारण ही उन्हें जिन्दा शहीद के खिताब से नवाज़ा गया है। बाबा दीप सिंह जी शहीदी मिसल के जत्थेदार भी थे। अहमद शाह अब्दाली ने हिन्दोस्तान पर कई हमले किए। इन हमलें के दौरान उस की फौजों का राह रोकने वाले सिक्खों से वह बहुत परेशान तथा दूखी था। अपनी परेशानी तथा दुख को कम करने के लिए भाव सिक्खी को मिटाने के लिए उसने अपने पुत्र तैमूर को पंजाब का सूबेदार बना दिया ओर उसके सहयोग के लिए ज़ाल्म स्वभाव के सैनापति ज़हान खां की नियुक्ति कर दी। जहान खां को किसी ने बताया कि अमृतसर में पवित्र  सरोवर तथा श्री दरबार साहिब के होते हुए,सिक्खों का खात्मा नहीं किया जा सकता क्योंकि इन दोनों सोत्रों से उन्हें नया उत्साह मिलता है।1760 ई. में जहान खां ने अमृतसर को सदर मुकाम बना लिया। इस मुकाम दौरान उस ने दरबार साहिब की इमारत को गिरा कर पवित्र सरोवर को भर दिया। जब जहान खां के इस कारनामें की खबर जत्थेदार भाग सिंह ने तलवंडी साबो आकर बाबा दीप सिंह जी को दी तो उनका खून उबलने लगा।

अरदास करने के पश्चात बाबा जी ने 18 सेर का खन्डा उठा लिया तथा श्री अमृतसर साहिब की ओर चल दिए। दमदमा साहिब से चलते समय उनके साथ कुछ गिनती के सिक्ख थे परन्तु रास्ते में जत्थेदार गुरबख्श सिंह आनन्दपुरी भी आ गए।चलते-चलते काफिला बढ़ता गया। बाबा जी ने इस ढंग से ललकारा जैसे की तरन तारन तक पहुँच कर मौत रूपी दुल्हन को वरण करने जा रहे है। तरन तारन तक पहुंचने पर सिक्खों की संख्या सैकड़ों से हज़ारों तक पहुंच गई। यहां आ कर बाबा जी ने अपने खंडे से एक लकीर खींच दी और कहा ”जिस को प्रेम का खेल खेलने का चाव है वह कूद जाए और जिस को मौत से डर लगता है वह पीछे हट जाए।” पर जो काफिला अब तक बाबा जी के साथ मिल चुका था वह सारा ही शहीदी का चाव लेकर आया था। इस लिए सारा काफिला ही लकीर पार कर गया तथा बाबा जी ने खुशी में जैकारा छोड़ दिया। दूसरी तरफ जहान खां को जब बाबा जी के काफिले की अमृतसर की ओर आने की ख़बर मिली तो उस ने अपने एक जरनैल अतई खां की अगवाई में एक बड़ी फौज सिक्खों का रास्ता रोकने के लिए भेज दी।गोहलवड़ के स्थान पर लहू-लूहान लड़ाई हुई।

सिक्खों के जैकारों तथा ललकारों से अफगानी फौजों के होसले पस्त होने लगे तथा वह पीछे मुड़ने लगे।इस समय दौरान याकूब खां तथा सादक अली खां भी बाबा दीप सिंह जी के साथ मुकाबले में आ गए। याकूब खां तथा बाबा जी के बीच घमासान टक्कर हुई। पर याकूब खां बाबा जी के वार की ताब को झेल न सका। याकूब खां को ढेर होता देख कर एक अन्य अफगानी जवान असमान खां भी मैदान-ए-जंग में आ गया। दोनो के सांझे वार से बाबा जी का शीश धड़ से अलग हो गया। साथ के एक सिक्ख ने बाबा दीप सिंह को अरदास समय पर किए हुए प्रण को याद करवाया तो वह कटे हुए शीश को अपने बाहिने हाथ का सहारा दे कर दाहिने हाथ में पकड़े हुए खंडे से दुश्मनों का नाश करने लगे। अपने किए हुए प्रण को निभाने के बाद बाबा दीप सिंह जी ने अपना शीश श्री हरिमन्दिर साहिब की परिक्रमा में  भेट कर दिया तथा 11 नवम्बर 1760 ई. को शहादत का जाम पी गए।          

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