उत्तराखंड में बेरोज़गारी और प्रवासियों को रोकने का समाधान है स्वरोजगार
punjabkesari.in Sunday, Aug 09, 2020 - 01:37 PM (IST)

अजय और रामप्रसाद नैनीताल में वर्षों से बोट चलाने का काम करते हैं। कोरोना की वजह से बोटिंग का काम ठप है और अब पुरानी कमाई से ही उनका काम चल रहा है। कोरोना काल ज्यादा समय तक खिंचने पर कब तक रोटी नसीब होगी यह पता नही। नैनीताल जिला मुख्यालय से छह किलोमीटर दूर स्थिति ग्राम अधौड़ा (गैरीखेत) के गोविंद सिंह बिष्ट और गांव के ही अन्य 15-20 बच्चे रोज़ सुबह पैदल मार्ग से नैनीताल तक कंधों में बोझ ले सब्जी बेचने आते हैं। बड़े होने पर यही बच्चे हल्द्वानी, रुद्रपुर, देहरादून और दिल्ली जैसे शहरों के लिए पलायन कर जाते हैं। कोरोना काल में 200-250 प्रवासी गांव वापस आए हैं जो दाने-पानी के लिए अब सीमित जनों के लिए उपलब्ध मनरेगा पर निर्भर हैं।
कोरोना ने उत्तराखंड वासियों को स्वरोजगार के बारे में सोचने पर विवश किया है क्योंकि बड़े शहरों में जाकर इन प्रवासियों में कुछ ही होते हैं जो सफलता पाते हैं बाकियों के पास सिर्फ पेट पालने लायक ही धन रहता है जिससे वह अपने जीवन को एक बोझ की तरह ढोते हुए साल दर साल खींचते रहते है।
उत्तराखण्ड में चाय बागानों की स्थिति
कृषि विज्ञान के अंतरराष्ट्रीय जर्नल की एक रिपोर्ट 'ग्रीन फार्मिंग' के अनुसार वर्ष 1824 में बिशप हेबर ने उत्तराखंड में चाय बागानों पर चर्चा शुरू की थी। जिसके बाद लॉर्ड वेंटिंग ने इस पर विचार करने के लिए वर्ष 1834 में एक कमेटी बनाई परिणामस्वरूप वर्ष 1835 में कोलकाता से लगभग 2000 चाय के पौधे उत्तराखंड पहुंचे थे। वर्ष 1880 तक उत्तराखण्ड में 63 चाय बागान थे जो 10937 एकड़ भूमि पर फैले हुए थे। मज़दूरों की कमी, परिवहन के उचित साधन न होने, लोकल बाज़ारों की अरुचि व चाय की लोकप्रियता न होने के कारण इसकी लोकप्रियता कम होते गई और वर्ष 1949 तक यह काम लुप्त होते गया।
वर्तमान समय में उत्तराखंड में गिने-चुने चाय बागान हैं पर यहां की चाय को विदेशों में भी पसंद किया जाता है। अब अंग्रेज़ी शासन की तरह मज़दूरों और परिवहन के साधनों की कमी नही है और चाय की लोकप्रियता के कारण इसका बाज़ार भी बहुत बड़ा है। जनता और सरकार की सामूहिक भागीदारी से चाय का स्वरोज़गार फिर से लोकप्रिय कर उत्तराखण्ड में पलायन को रोक सकता है।
गांव से सीधे बाज़ार
पहाड़ में रहकर ही अच्छी कमाई करने के लिए 'जसपुर उद्यान विकास समिति अल्मोड़ा' मॉडल हमारे लिए आदर्श है।
प्रवासी भारतीय 'बी एन बलोदी' ने अपने गांव से पलायन को रोकने के लिए 4 अप्रैल 2018 में इसका गठन किया। बीसएफ से रिटायर जसपुर गांव के ही आनंद पंचोली इसकी देखरेख करते हैं। इस समिति में गांव के लोगों की ही 20 हेक्टेयर जमीन पर कागज़ी नींबू के पौधे लगाए गए हैं। यह नींबू गाज़ीपुर मंडी दिल्ली के लिए भेजे जाते हैं। इस समिति द्वारा नींबू के छिलकों का प्रयोग भी खाद बनाने के लिए किया जाता है। कोरोना काल में लगभग 20 प्रवासियों को समिति द्वारा रोज़गार दिया गया है। आनन्द पंचोली कहते हैं कि उन्होंने गांव के ऐसे 20 परिवार पलायन करने से रोके जो बिल्कुल ही असहाय हो चुके थे। मुख्य समस्या सिंचाई के लिए पानी प्राप्त करने की है जिसके लिए अभी वह पानी के टैंकरों का प्रयोग करते हैं ।
भविष्य सुधारने की ललक
जिला अल्मोड़ा के बिल्लेख गांव में रहने वाले गोपाल उप्रेती ने 7.1 फुट धनिया का पौधा उगा कर अपना नाम 'गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड' में दर्ज कराया है। हॉलैंड से बागवानी का प्रशिक्षण प्राप्त कर गोपाल उप्रेती सेब, आड़ू, खुमानी की जैविक खेती भी करते हैं। पूरे उत्तराखण्डवासियों के लिए वह एक आदर्श हैं।
टिहरी जिले के भैंसकोटी के रहने वाले कुलदीप ने आईएमटी गाज़ियाबाद से एमबीए के बाद कुछ वर्ष बैंक में नौकरी की पर जल्द ही उन्हें स्वरोजगार का महत्व समझ में आ गया और अब वह देहरादून में रह कर मशरूम से बने आचार, बिस्कुट एवं नमकीन सहित अन्य वस्तुओं का निर्माण कर रहे हैं और अन्य युवाओं को भी स्वरोज़गार सम्बंधित निःशुल्क प्रशिक्षण देते हैं।
द्वाराहाट के कन्थयाड़ी गांव के शेखर बिष्ट ने बीटेक के बाद गांव में ही रहकर चीड़ की पत्तियों (पिरूल) से बिजली के उत्पादन के लिए संयंत्र स्थापित किया है। इससे वह 250 यूनिट प्रतिदिन बिजली का उत्पादन करते हैं। चीड़ को अन्य कार्यों में भी लाया जा सकता है जैसे इसका लीसा बिकता है, इसकी लकड़ी से फर्नीचर बनाए जा सकते हैं और इससे हेंडीक्राफ्ट भी बनाए जाते हैं।
काकड़ीघाट की दीपा खनायत ने नमक में विभिन्न उत्पाद पीसकर 20-25 प्रकार के पीसे हुए नमक को बेचना शुरू किया। यह नमक स्वास्थय के लिए भी लाभदयक है। उनसे प्रभावित हो अन्य महिलाएँ भी समूह के रूप में उनसे जुड़ी हैं जिसका नाम उन्होंने 'विवेकानंद उत्पादक समूह' रखा है।
देहरादून की शिल्पा भट्ट बहुगुणा ने दिल्ली के प्रतिष्ठित इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता की शिक्षा प्राप्त करने के बाद पत्रकारिता को अपने कैरियर के रूप में चुना था। उसके बाद उन्होंने देहरादून में 20 लोगों के साथ मिलकर एक रेस्टोरेंट से पिज़्ज़ा का स्टार्टअप शुरू किया। आज उनके देहरादून में 'पिज़्ज़ा इटालिया' नाम से 7 रेस्टोरेंट चल रहे हैं। वह इससे 120 अन्य लोगों को भी रोज़गार दे रही हैं। उत्तराखण्ड के अन्य युवा भी इनसे सीख ले दुरस्थ पहाड़ी क्षेत्रों में दिल्ली मेट्रो स्टेशन की तरह ही पहाड़ियों को पिज़्ज़ा का स्वाद चखा सकते हैं।
चंपावत जिले के किस्कोट गांव के दो भाइयों ने चप्पल बनाने का कारखाना शुरू कर आत्मनिर्भरता को बढ़ावा दिया है। पीतांबर जोशी और बलदेव जोशी ने आगरा से इस काम का अनुभव लिया और ग्राम उद्योग योजना की मदद से इस फैक्ट्री को शुरू किया। इन चप्पलों को बनाने के लिए कच्चा माल दिल्ली और हरियाणा से मंगाया जाता है।
अच्छी आमदनी होने पर दोनों भाइयों ने अपने साथ ही गांव के कुछ अन्य लोगों को भी रोज़गार उपलब्ध कराया है।'उत्तराखण्ड रैबार' की एक खबर के अनुसार टिहरी के दुवाकोटी गांव की सीता देवी चौहान ने कीवी की खेती का उदाहरण सामने रखा है। उन्होंने हिमाचल से कीवी की खेती की ट्रेनिंग ले अब तक एक कुंतल कीवी बेच दी है और उन्हें टिहरी में ही इसके खरीददार मिल रहे हैं। टिहरी जिले के डीएम भी उनकी इस पहल की तारीफ़ कर चुके हैं।
च्यूरा से स्वरोज़गार
च्युरा उत्तराखण्ड में बहुतायात मात्रा में मिलने वाला एक बहुउद्देशीय वृक्ष है। इसको उगा कर स्वरोज़गार प्राप्त किया जा सकता है।
इसकी पत्तियां चारे के लिए उपयोग की जाती हैं। लकड़ी गुणवत्ता वाले ईंधन प्रदान करती है। इसका बीज घी के निष्कर्षण के लिए उपयोग किया जाता है। तेल केक का उपयोग कीटनाशक, मछली फ़ीड और उर्वरकों के रूप में भी किया जा रहा है। यह अच्छा साबुन बनाता है और यह सिरदर्द के लिए एक बाहरी अनुप्रयोग के रूप में और गठिया के लिए भी प्रयोग किया जाता है।
इसकी छाल का उपयोग गठिया, अल्सर के उपचार के रूप में किया जाता है। च्यूरा का पेड़ आमतौर पर अपनी उम्र के 6 वें वर्ष से फूलना शुरू कर देता है और इसका आर्थिक जीवन लगभग 40 वर्ष का होता है।
नवीकरणीय साधनों का सही प्रयोग
उत्तराखण्ड सरकार को नवीकरणीय ऊर्जा के विकास पर भी कार्य करना होगा। नवीकरणीय ऊर्जा वह है जिसे प्रकृति में नियमित रूप से बार-बार इस्तेमाल किया जा सकता है और यह प्रकृति में बहुतायत मात्रा में उपलब्ध है। पवन ऊर्जा से चलने वाली हवा टरबाइन अपने खेतों में लगवाकर किसान उससे अच्छा किराया कमा सकते हैं और इससे फसलों में भी कोई व्यवधान नही आता है। हवा टरबाइन के टेक्नीशियनों की भी बहुत आवश्यकता है। इस क्षेत्र में युवाओं के लिये रोज़गार के बहुत से अवसर हैं।
जलशक्ति ऊर्जा जो नदी और बहते पानी से उपलब्ध होती है यह भी ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार का अच्छा साधन साबित हो सकती है। इईएसआई जो पर्यावरण पर अध्ययन करने वाली एक अमेरिकी संस्था है के अनुसार चीन ने जलशक्ति ऊर्जा का सही उपयोग कर रोज़गार के बहुत से अवसर उपलब्ध कराए हैं।
भूतापीय ऊर्जा जिसे पृथ्वी के अंदर संग्रहित ताप से प्राप्त किया जाता है उसमें चीन में वर्तमान समय में 2500 लोगों ने रोज़गार प्राप्त किया है और भारत में यह संख्या ना के बराबर है। सौर ऊर्जा का उपयोग चीन ने बहुतायत मात्रा में किया है और भारत का चीन से पिछड़ने का मुख्य कारण यह भी है कि चीन ने नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग सुनियोजित तरीके से किया है। उत्तराखण्ड में इसका इस्तेमाल कर रोज़गार के बहुत से अवसर पैदा किए जा सकते हैं।
वर्षा जल संरक्षण
सिंचाई की समस्या वर्षा जल सरंक्षण कर हल की जा सकती है। बग्वालीपोखर स्थित 'नौला फाउंडेशन' के अध्यक्ष बिशन सिंह बनेशी पिछले तीन साल से इस पर कार्य कर रहे हैं। नौला फाउंडेशन के मीडिया इंचार्ज संदीप मनराल बताते हैं कि थामण गांव से इसकी शुरुआत हुई। वहाँ नौलों के चारों ओर गड्ढे बनाए गए और पौधरोपण किया गया। परिणामस्वरूप अब वहां सूखे नौलों में पानी आ गया है। पानी की समस्या से जूझ रहे अन्य गांवों के लिए यह सर्वोत्तम उदाहरण है।
जहां चाह वहां राह।
कोरोना काल में देशभर के लाखों युवा बेरोजगार हो गए हैं और कुंठा का सामना कर रहे हैं। पूरे देश से आत्महत्या की खबरों में बढ़ोतरी हो गई है। सबको यह समझना होगा कि कहानियों का वह राजा वापस नही आ सकता जिसके छूने भर से हर वस्तु सोने की बन जाती थी। हमारे चारों ओर ऐसे बहुत से अवसर उपलब्ध हैं जिनसे हम अच्छी कमाई कर अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपना आत्मविश्वास न डगमगाने दें और अवसरों को भुनाना सीख लें।
(हिमांशु जोशी)