गुरूद्वारा श्री रीठा साहिब (उत्तराखंड)

punjabkesari.in Tuesday, Dec 27, 2016 - 03:38 PM (IST)

सिक्ख इतिहास में गुरूद्वारों का बहुत ही महत्वपूर्ण तथा अहमतरीन स्थान है। रूहानियत का केन्द्र होने के साथ-ंसाथ यह गुरूद्वारे सदीयों से आपसी भाईचारक सांझ का भी प्रतीक है। सिक्ख गुरू साहिबान ने गुरूद्वारों के निर्माण करवाए तथा इनके दरवाजे बनवाकर चारों वरणों को सांझे अध्यात्मिक उपदेश से जोड़ने का एक महान कार्य किया है। गुरू साहिब के इस परउपकारी कार्य की गवाही देता है भारत के उत्तराखण्ड राज्य की रमणीय घाटी में शोभित गुरूद्वारा श्री रीठा साहिब। 

श्री गुरू नानक देव जी तथा उनके अभिन्न साथी भाई मरदाना जी की ऐतिहासक याद से जुड़ा गुरूद्वारा श्री रीठा साहिब उत्तराखण्ड प्रदेश के समुद्री तल से 7000 फुट की ऊच्चाई पर स्थित जि़ला चम्पावत में मौजूद है। इस जि़ले की सीमांए शहीद उधम सिंह नगर तथा नैनीताल जि़ले से लगती है। यह वह पवित्र स्थान है जहां गुरू नानक देव जी तथा उनके संगी भाई मरदाना जी जगत को ठन्डक पहुंचाते हुए सिद्धों को जोग के असली अर्थ समझाने के लिए आए थे। इस जगह पर उस समय गोरख नाथ का चेला ढेर नाथ रहा करता था। जब गुरू जी ने ढेर नाथ से जिन्दगी के असली एवंम सार्थक उदेश्य को लेकर गोष्टी कर रहे थे तो उस समय एक अचंभित तथा बेमिसाल घटना घट गई। इस घटना से जहां कड़वे रीठों में मिठास भर गई, वहीं अहंकारी नाथों का अहंकार भी दूर हो गया। अहंकार के दूर होने के कारण ही नाथ जोगियों को श्री गुरू नानक देव की कमाई तथा शोहरत को धन्य कहना पड़ा था। 

इतिहासकारों के अनुसार कार्तिक की पूर्णमासी के दिन जब श्री गुरू नानक देव जी अपने साथियों साहित इस स्थान पर आए तो उस समय रीठे के एक भरे हुए वृक्ष तले गोरखनाथ जोगी का चेला ढेर नाथ डेरा जमाए बैठा था। इस वुक्ष की दूसरी तरफ गुरूजी तथा उनके सहयोगी भाई मरदाना जी ने भी आसन लगा लिए। गुरूजी की आमद को देख कर सिद्ध हैरान हो गए तथा उन्होने गुरूजी से यहां आने का कारण पुछा। श्री गुरू नानक देव जी ने जोगीयों को बताया कि अपनी परिवारिक तथा सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए उस निरंकार से जुड़े रहना ही सच्चा जोग है। बाहरी दिखावे, कर्म-कांडी जीवन तथा पाखण्डबाजी के साथ करतार की खुशियों का पात्र नहीं बना जा सकता। अभी विचार-गोष्टी चल ही रही थी कि भाई मरदाना जी को भूख लग गई। जब भाई साहब ने गुरू जी को कुछ खाने की इच्छा प्रकट की तो गुरू जी कहने लगे, “मरदानियां हम तो बाहर से आए हैं, प्रदेसी हैं तथा सिद्धों के मेहमान है, तुम इन्हीं से कोई पदार्थ खाने के लिए मांग लो।” 

गुरू साहिब का हुक्म पा कर जब भाई मरदाना जी ने बड़ी निम्रता पूर्वक सिद्धों से भोजन की मांग की तो अहंकार से भरे सिद्धों ने कहाः-ं "बैठे रहो न क्तिहूं जाई, देखहि शक्ति जे देहि खवाही।"

भाव यदि तुम्हारा गुरू सर्व कला समर्थ है तो वह बिना कहीं जाए भोजन का प्रबन्ध क्यों नहीं कर देता। इस प्रकार हम भी उसकी शक्ति को देख लेंगे। सिद्धों का कठोर व अहंकार से भरा व्यवहार देख कर श्री गुरू नानक देव जी ने रीठे के फलों की ओर इशारा करके भाई मरदाना जी को कहा कि,“मरदानियां ! यह फल तोड़ के खा ला करतार भली करेगा।” 

बाबे का बचन सुनकर मरदाना जी गहरी सोच में पड़ गए तथा कहने लगे, "बाबा मुझे क्यूं मारना चाहते हो, मैं तो अभी जीना चाहता हूं। यह रीठे तो जहर जैसे कड़वे है तथा लोगों के वस्त्र धोने के काम आते है। श्री गुरू नानक देव जी ने अपनी तरफ के रीठों की टहनीयों पर मेहर की नज़र डाली व कहा,“भाई जी सत करतार कह कर रीठे के वृक्ष पर चढ़ जाओ, आप फल खाओ ओर इन सिद्धों को भी तोड़ कर दो।”

सत्य वचन कहकर भाई मरदाना जी गुरूजी की तरफ की टहनी पर चढ़ गए तथा रीठे तोड़कर खाने लग गए। भाई जी की हैरानी की काई हद न रही जब श्री गुरू नानक देव जी की कृपा से जहर जैसे रीठे शहद जैसे मीठे हो गए। पहले भाई मरदाना जी ने आप पेट भर रीठे खाए तथा फिर सिद्धों को भी खाने के लिए दिए। छुवारे जैसा आनन्द देने वाले रीठे जब नाथ-जागीयों की जीभ को लगे तो वह हैरान हुए बिना न रह सके। इस तरह सिद्धों की ओर से भी अपनी तांत्रिक शक्ति से अपनी तरफ के रीठे मीठे करने का प्रयास किया गया परन्तु वह सफल न हुए।

वृक्ष तो दुनिया में ओर भी बहुत सुन्दर व कीमती है। परन्तु जिस वुक्ष पर श्री गुरू नानक देव जी की कृपा-दिृष्टी हो गई उस का फल न सिर्फ़ मीठा ही हुआ बल्कि नानक नाम-लेवा संगत के सत्कार का पात्र भी बन गया। इस पात्रता के कारण ही यह स्थान आज ''श्री रीठा साहिब' के नाम से जाना जाता है।
 


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