निजता का अधिकार
punjabkesari.in Friday, Dec 29, 2017 - 03:36 PM (IST)

जीवन के हर क्षेत्र में तकनीक के चलन से जहां लोगों को बहुत सी सुविधाएं मिली हैं, वहीं इनकी वजह से कई परेशानियां भी पैदा हो गई हैं। यह कहना गलत न होगा कि तकनीक के इस आधुनिक युग में व्यक्ति की निजता पर लगातार हमले हो रहे हैं। जिस तेजी से तकनीक का विकास हो रहा है, उसी तेजी से साइबर अपराध भी बढ़ रहे हैं, जो बेहद चिंता की बात है। इस सबके बीच सर्वोच्च न्यायालय का फैसला राहत देता नजर आता है ये अच्छी खबर है कि अब लोगों की निजी जानकारी सार्वजनिक नहीं होगी। सर्वोच्च न्यायालय ने निजता के अधिकार को संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार करार दिया है सर्वोच्च न्यायाल के मुख्य न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर की अध्यक्षता वाली नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा है कि निजता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीने के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अंतर्भूत हिस्सा है।
काबिले-गौर है कि 24 अगस्त को दिए अपने फैसले में पीठ ने शीर्ष अदालत के उन दो पुराने फैसलों को खारिज कर दिया, जिनमें निजता को मौलिक अधिकार नहीं माना गया था। इस फैसले की वजह से निजता के अधिकार पर असर पड़ता था। एम.पी. शर्मा मामले में छ: न्यायाधीशों ने वर्ष 1954 में और खड़ग सिंह मामले में आठ न्यायाधीशों ने वर्ष 1962 में ये फैसले सुनाए थे। सर्वोच्च न्यायालय के इस अहम फैसले से सरकार के उस रूख को करारा झटका लगा है, जिसके तहत वह निजता के अधिकार को संवैधानिक मौलिक आधार नहीं मानती। गौरतलब है कि लगभग चार साल पहले उस वक्त निजता के अधिकार को लेकर सवाल उठने शुरू हुए थे, जब अमेरिका में करोड़ों नागरिकों की निजी जानकारियां ऑनलाइन लीक हो गई थीं। एक अमेरिकी इंटेलीजेंस एजेंसी सी.आई.ए. के पूर्व एजेंट एडवर्ड स्नोडन ने सारी जानकारियां ऑनलाइन लीक कर दी थी।
भारत में भी कुछ ऐसा ही हुआ था जब इस साल मई में आधार कार्ड के लिए इकट्ठी हुई कई भारतीयों की निजी जानकारियां ऑनलाइन लीक हो गई। चूंकि जनता के कल्याण के लिए सरकार को अपने स्तर पर कदम उठाने का अधिकर प्राप्त है अइसलिए इस फैसले के बाद उसके ऐसे कदमों को इस कसौटी पर कसा जा सकता है कि कहीं वे मूल अधिकर बन गए निजता के अधिकार का हनन तो नहीं करते? यदि सरकार के ऐसे कदमों को चुनौती दी गई तो उसकी अनेक योजनाओं के क्रियान्वयन पर सवालिया निशान भी लग सकते हैं? शीर्ष अदालत के नवीनतम फैसले में राष्ट्रीय सुरक्षा, अपराध रोकने एवं कल्याणकारी योजनाओं के लिए सरकार की भूमिका को प्राइवेसी का उल्लंघन नहीं माना गया है, लेकिन इस फैसले के बाद सरकार अब किसी नागरिक को निजी जानकारी देने के लिए बेवजह बाध्य नहीं कर सकती। इस फैसले के बाद सरकार द्वारा जनता की निजी जानकारी का अन्य उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल गैर-कानूनी माना जा सकता है।
निजता पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सरकार को कई कानूनों में बदलाव करने पड़ सकते हैं। शीर्ष अदालत में सुनवाई के दौरान लोगों को निजी डाटा की सुरक्षा का सवाल भी सामने आया। शीर्ष अदालत के इस फैसले को सही तरह लागू करने के लिए इंटरनेट कंपनियों को अपने सर्वर्स भारत में स्थापित करने पड़ सकते हैं। यहां यह भी सवाल उठाया जा रहा है कि आखिर डिजिटल युग में निजी कंपनियों द्वारा निजता के उल्लंघन पर रोक कैसे लगेगी? स्मार्ट-फोन और सोशल मिडिया के दौर में लागों की व्यक्तिगत जानकारी इंटरनेट कंपनियों के माध्यम से बाजार के हवाले हो जाती है। सरकार द्वारा डेटा सुरक्षा के मामले पर कानून बनाने के लिए पूर्व न्यायाधीश श्रीकृष्णा की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया है।
डिजिटल इंडिया के विस्तार के बाद डेटा सुरक्षा पर सरकार द्वारा इस समिति का गठन देरी से उठाया गया कदम माना जा रहा है। किसी अधिकार के मूल अधिकार में आने का मतलब है कि उसमें छेड़छाड़ नहीं की जा सकती है। 1973 में सुप्रीम कोर्ट की 13 जजों की बेंच ने सात जजों के बहुमत से केशवानंद भारती में यह फैसला दिया था कि मौलिक अधिकार संविधान के मूल ढांचे के तहत आते हैं जिन्हें संसद भी नहीं बदल सकती। अगर कोई सरकार संसदके जरिए ऐसा करे भी तो शीर्ष अदालत उसे रद्द कर सकती है। जजों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय आयोग बनाने के लिए संविधान संशोधन के जरिए संसद ने कानून बनाया था जिसे सुप्रीम कोर्ट ने अक्तूबर 2015 में रद्द कर दिया था। ऐसा तब हुआ था जब दोनों सदनों ने सर्व सम्मति से यह कानून बनाया था।
सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में यह दलील दी गई थी कि कॉमन लॉ के तहत प्राइवेसी का कानून है पर इसे मौलिक अधिकार नहीं माना जा सकता । सरकार के अनुसार भारत विकासशील देश है जहां कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने के लिए सरकार को सक्रिय भूमिका निभानी पड़ती है। सरकार द्वारा आधार,वोटर कार्ड, पासपोर्ट, ड्राइविंग लाइसेंस, इनकम टैक्स, बैंक खाते खोलने एवं अन्य अनेक योजनाओं के लिए जनता कीनिजी जानकारी एकत्रित की जाती है। निजता के अधिकार के मूल अधिकार बन जाने के बाद सरकार पर इस जानकारी का सही तरह रख रखाव करने की जिम्मेदारी बढ़ जाएगी। इस फैसले का असर समलैंगिकता संबंधी कानून पर भी पड़ सकता है। प्राइवेसी का अधिकार देश के हर नागरिक को प्रभावित करता है उस पर दलगत हितों वाली राजनीति होना दु:खद है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अमल में लाने के लिए राजनीति के अलावा अनेक व्यावहारिक चुनौतियों आ सकती हैं, जिन्हें रानीतिक सहयोग से ही हल किया जा सकता है। अभी यह देखना शेष है कि क्या सरकार शीर्ष अदालत द्वारा दिए गए फैसलों के अनुरूप प्राइवेसी पर प्रतिबंधों और अपवादों को परिभाषित करेगी, क्योंकि कोई भी मूल अधिकार असीमित नहीं हो सकता। आधार को केंद्र में रखकर डिजिटल इंडिया और गर्वर्नेंस की अन्य योजनाओं का शीर्ष अदालत के फैसले का क्या प्रभाव पड़ेगा, यह आधार पर फैसला आने के बाद ही पता चलेगा, लेकिन सरकार के सामने यह चुनौती तो है ही कि निजी क्षेत्र और विशेष रूप से डिजिटल कंपनियों पर यह लगाम कैसे लगे कि वे लोगों की निजी जानकारी अन्य किसी को न दें? तकनीक के इस दौर में ऐसे सवालों का सही जवाब नहीं दिया जा सका तो प्राइवेसी पर शीर्ष अदालत का फैसला कानून के जंजाल में एक और रिसर्च पेपर बनकर रह जाएगा।
डॉ. लाखा राम