श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी
punjabkesari.in Saturday, Dec 16, 2017 - 01:02 PM (IST)

बलिदान की भावना बहुत ही उच्च एवम पवित्र भावना होती है।यह भावना विशेष मनुष्यों में ही उपजती है,परन्तु जिन मनुष्यों में उपज जाती है वह अमर हो जाते है।इस अमरता की पदवी तक पहुंचने के लिए उन मरजीवियों को “सीस तली“ पर रख कर शहादतों के जाम पीने पड़ते है।वकत की हकुमतें इन सीसवहीन सूरमओं को बेशक लालच तथा डरावे देती रहें परन्तु धार्मिक आज़ादी तथा मानवी अधिकारों के पक्षधर यह महापुरूष किसी भी किस्म की कुर्बानी करते समय कन्नी नहीं कत्तराते।
इसी तरह की कुर्बानी के ही पात्र है नौवें पातशाह साहिब श्री गुरू तेग बहादर जी।गुरमति के नज़रिए से सूरमें दो प्रकार के होते है। एक सूरमा वह होता है जिस ने वाहेगुरू की कृपा से अपनी मैं (हऊमे) को मार लिया होता है। दूसरा सूरमा वह होता है जो निमाणों का मान तथा नितानों का तान बनने के लिए अपनी आवाज़ को बुलंद करता है।मज़लूमों की खातिर उस की ओर से उठाई गई आवाज़ जब समय की सरकारों के कान तक पहुंचती है तो उन जालिम सरकारों तथा उनके चापलुसों की ओर से हक-सच की आवाज़ को दबाने के कई प्रयास करने के साथ-साथ बहुत सी अमानवी चालें भी चली जाती है।सत्ताधारी चाहे इन चालों में कामयाब भी हो जाए परन्तु जीत हमेशा सच व इस पर पहरा देने वालों की ही होती है।
इस प्रकार नवम् पातशाह श्री गुरू तेग बहादर साहिब की शहादत को भी हम समय के सच तथा उस पर डट कर की गई पहरेदारी के संदर्भ में ही देख सकते है। इस प्रकार की पहरेदारी करने के लिए अपनी जान तक वार देने वाले महाबलीयों बाबत कबीर जी राग मारू में श्री गुरू ग्रन्थ साहिब के अंग 1105 द्वारा इस तरह बयान करते हैः-
सूरा सो पहिचानिअै ,जु लरै दीन के हेत।।
पुरजा पुरजा कटि मरै,कबहू न छाडै खेत।।
धार्मिक सवतन्त्रता तथा मानवी हित के लिए आपा न्यौछावर करने वाले श्री गुरू तेग बहादर साहिब का प्रकाश पहली अप्रैल 1621 ई. को पिता श्री गुरू हरगोबिन्द जी तथा माता नानकी जी के गृह श्री अमृतसर साहिब में हुआ। आप अपने पांच भाई-बहनों में सब से छोटे स्थान पर थे।बचपन से ही आप साधु-स्वभाव,सोचवान,दलेर,त्यागी तथा परउपकारी तबीयत के मालिक थे। गुरमति के गुर हासिल करने के साथ-साथ आप ने युद्ध-कला के दाव भी सीख लिए। गुरमति के ज्ञाता होने के साथ ही आप जंगी अभ्यास से भी पूरी तरह जानकार थे।
गुरू पिता की ओर से दिया संत व सिपाही का संकल्प (गुरू) तेग बहादर जी की शख्सीयत में पूर्ण रूप में उजागर हाने लगा।इस संकल्प के कारण ही उन्होंनो करतारपुर साहिब की जंग समय संत (त्याग मल) से सिपाही (तेग बहादर) तक का सफर तय कर लिया। दुशमनो के साथ दो हाथ करने के बाद श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी सन् 1635 के जेठ महीने में श्री कीरतपुर साहिब आ गए।इस समय (गुरू) तेग बहादर भी उनकी संगत में थे।श्री कीरतपुर साहिब में लगभग एक दशक का समय गुजारने के कारण उन पर गुर-मरयादा का पूरा प्रभाव पड़ चुका था।
इस प्रभाव के कारण ही दीन-दुखियों तथा जरूरतमदों के लिए उनका दिल पजीसने लगा।गरीबों की सहायता के लिए आप हमेशा ही प्रयास करते रहते थे।उनकी इस लगन को देखकर यहां गुरू पिता जी प्रसन्न चित रहते वही गुरू नानक के घर की बड़ी ज़िम्मेवारी (गुरूगद्दी की) को सभालने के योग्य भी समझते थे। . श्री गूरू हरगोबिन्द जी ने 1644 ई0 को अपने परिवार (माता नानकी तथा साहिबज़ादा तेग बहादर) को बकाले नगर की ओर जाने के लिए कहा।गुरू पिता के हुकम को प्रवान करते हुए वह अपनी माता तथा पत्नी (माता गुज़री जी) समेत बकाले आ गए।यह उनका ननिहाल गाँव था।
बकाले पहुंचने के समय (गुरू) तेग बहादर जी की आयु 20 वर्ष के करीब थी। जोबन-काल होने के बावजूद भी आप ससांरिकता से आध्यात्मिकता की ओर ज्यादा रूचित थे।सेवा व सिमरन के साथ-साथ वह अपनी परवारिक ज़िम्मेवारियां भी पूरी तरह निभाते थे।यहां रहते हुए कई गुरसिक्ख व उनके मित्र उनके साथ मिलाप के लिए भी आया करते थे।प्रसाद-पानी की सेवा के बाद गुरू जी द्वारा अकथ कहानीयां छोहीयां जाती थी।एक बार एक गुरमुख प्यारे ने (गुरू) तेग बहादर जी से पुछा कि,“रब्ब के प्यारों/भक्तों को कष्ट क्यों आते है?” श्री (गुरू) तेग बहादर साहिब का जवाब था ,”दुनिया की सच्चाई दुःखों में जलदी समझ आ जाती है। हमें दुःखो को भी उसकी दात ही समझना चाहिए।”
एक सेवक की ओर से जब भक्ति के पढ़ाव बारे पूछा गया तो उन्होने कहा,॰“पहला पढ़ाव है उसकी ओर से ध्यान हटाना जो उस अकाल पुरख से ध्यान हटाए।दूसरा पड़ाव सब कुछ भूल भूलाकर उस परम- पिता से प्रेम करना है तीसरा पड़ाव उठते-बैठते वाहिगुरू की याद को अपने हृदय का श्रृगार बना के रखना होता है।” अबुल मुजफ्फर मुहीउदीन औरंगजेब आलमगीर एक कट्टर सुन्नी मुस्लमान था। उसकी धार्मिक तथा राजनीतिक नीति पर नक्शबंदी सिलसले का बहुत गहरा प्रभाव था जिस कारण वह अति निर्दयी तथा जनूनी बन गया था।
वह डन्डे के डर से इस्लाम का बोलबाला करना चाहता था।इस चाहत को पूरा करने के लिए ओरंगजेब ने साम,दाम तथा दण्ड का प्रयोग करने से भी गुरेज नहीं किया।उस ने हिन्दुओं पर जज़ीया आदि कर लगा दिए तथा कई प्रकार के जुल्म करके उन्हें मुस्लमान बनने के लिए मजबूर कर दिया।वह यहीं नहीं ठहरा उसने हिन्दू भाईचारे के मथुरा,अयोध्या, काशी तथा बनारस आदि शहरों में पुजनीय मन्दिरों को गिरा दिया।इसके साथ ही उसने कई पाठशालाएं भी खत्म कर दी।
ओरंगजेब की ओर से अपनी इस दमनकारी नीति को ज़ारी रखते हुए सितम्बर 1671 ई0 में इफ्तिखार खान को कश्मीर का सूबेदार नियुक्त कर दिया।इस का खिताब शेर-ऐ-अफगान था।यह सुबेदार भी तंगदिल,कटड़,जनूनी तथा बेरहिम स्वाभाव का मालिक था। कोई ऐसा अत्याचार नहीं बचा था जो कशमीर के सूबेदार ने कश्मीरी पण्डितों पर ना किया हो।इसी सूबे में कुछ विद्ववान ब्राह्मणो का भी बसेरा था।जो अपने आप को सभी (हिन्दू) कौम के आगू समझते थे।
इन की इस समझ का लाभ कश्मीर का राज्यपाल यह सोच कर लेना चाहता था कि यदि यह मुस्लमान बन जाए तो बाकी हिन्दूओं को इस्लाम के झण्डे तले लाने में सहज व आसान हो सकता है।कश्मीर के हिन्दू भाईचारे को धार्मिक तौर पर ज़लील करने के लिए उनके धार्मिक चिन्हों की बेअदबी की जाने लगी।जनेऊ तोड़ कर तिलक साफ किये जाने लगे।इस के अतिरिक्त उन्हें गाय का मास भी खाने को दिया जाने लगा। धर्म के साथ-साथ बहु-बेटियों की इज्जत भी दाँव पर लग गई।बहुत से हिन्दू परिवारां ने इफ्तिखार खान के आगे हार मान ली तथा इस्लाम को कबूल कर लिया।
सिर्फ कुछ ही परिवार बचे थे जो किसी चमत्कार की उम्मीद लगाए बैठे थे।जब कोई चमत्कार नहीं हुआ तो उनकी चिन्ता भी बढने लगी।इस चिन्ता को कम करने भाव अपने डूबते धर्म को बचाने के लिए इन परिवारों के ज्ञानी लोगों ने सोचना आरम्भ किया।सोच के समंदर में गोते खाते हुए उन्हें श्री आनंदपुर साहिब का राह दिखाई देने लगा।कश्मीर के पंडित यह बात भली भान्ति समझ चुके थे इन अति संकटकाली परिस्थितयों में उनकी बांह केवल श्री आनंदपुर साहिब के वासी श्री गुरू तेग बहादुर साहिब ही पकड़ सकते है।क्यों कि गुरू साहिब ने अपने प्रचार दौरान संगतों को न किसी से डरने व न डराने की बात कही थी तथा निराशाजनक स्थितिओं को आशाजनक स्थिति में बदलने के भरपूर यत्न किए थे।
इन यत्नों की बदौलत कई हिन्दू परिवार भी गुरू-घर से जुड़े गए थे। कश्मीरी पंडित ब्रहमदास के खानदान में एक पंडित किरपा राम पैदा हुआ जो बचपन से ही गुरू-घर आता रहता था। 25 मई 1675 ई0 के दिन वह 16 मुखी पन्डतों को साथ ले कर श्री आनंदपुर साहिब आ गया।बहुत दुखी मन से यहाँ कशमीरी पंडितों ने अपने साथ हुए अत्याचार की र्दद-कहानी कह दी वहाँ सरकारी ज़ुल्म से बचाव की विनती भी कर दी।पंडितों की दर्दनाक व्यथा सुनकर दरबार में बैठी संगतों के दिल पसीज गए।
बाल गोबिद राय जी (जिन की आयु उस समय 9 साल की थी) गुरू तेग बहादुर जी के पास आए तथा उदासी भरे माहौल का कारण पूछने लगे।गुरू जी ने अपने लाल को जहां कश्मीरी पण्डितों की दर्दनाक दास्तान सुनाई वही कह दिया कि इस दर्द को दूर करने के लिए किसी महान व पवित्र आत्मा की कुर्बानी की आवश्यकता है जो ज़ालिमों का मन बदल दे।बाल गोबिन्द राय के मुखारविन्द से स्वभाविक ही निकल गया की वह महान व पवित्र आत्मा आप से अतिरिक्त ओर कौन हो सकती है।
साहिबज्रादे का जवाब सुनकर संगत में हैरानी छा गई परन्तु गुरू तेग बहादुर अपने फरजंद की राय से प्रसन्न हो गए।उन्होने गोबिन्द राए को कस कर छाती से लगा लिया और कहा कि ”लाल जी! आप की बात सुनकर मेरी चिन्ता दूर हो गई।“ बाल गोबिन्द राय के सतोषजनक जवाब तथा दूरदर्शक दृष्टिकोण के कारण नौवें गुरू ने पण्डित कृपा राम को कहा दिया की ओरंगज़ेब तक मेरा यह संदेश पहुंचा दे कि यदि वह गुरू तेग बहादुर को मुस्लमान बना ले तो देश के सारे हिन्दू अपने आप ही इस्लाम को कबूल कर लेंगे।गुरू साहिब के इस दलेराना ऐलान के कारण कश्मीरी पण्डितों की जान में जान आ गई।उनको पक्का यकीन हो गया कि उनका धर्म अब डूबने से बच जाएगा।
8 जुलाई 1675 ई0 को श्री गुरू तेग बहादुर जी ने अपने पुत्र श्री गोबिन्द राय को गुरूआई की जिम्मेवारी संभाल दी तथा साथ ही आने वाले समय की गभीरता से ज्ञात करवा दिया। इधर गुरू साहिब का संदेश दिल्ली के हाकम ओरंबजेब तक पहुंच गया।बादशाह कट्टर धार्मिक इरादे का मालिक था।उस ने गुरू साहिब की ओर से कश्मीरी पण्डितों के प्रति दिखाई हमदर्दी को अपने मनोरथ की सिद्धी में रूकावट समझ लिया ओर हसन अबदाल से गुरू तेग बहादुर साहिब की गिरफ्तारी का हुकम जारी कर दिया। ओरंगजे़ब के हुकम के मुताबिक श्री गुरू तेग बहादुर साहिब तथा तीन सिक्खों को गिरफ्तार करके केन्द्रीय जेल में कैद कर दिया।इस जेल में गुरू साहिब तथा उनके साथी तीन महीने से ज्यादा समय तक रहे।
4 नवम्बर 1675 ई0 को श्री गुरू तेग बहादर साहिब को सुबेदार साफीखान के सामने पेश किया गया।उसने गुरू साहिब के साथ नर्म व्यवहार करते हुए गुरू जी को कोई करामात दिखाने के लिए कहा परन्तु गुरू जी ने कहा कि,“करामात का परमेश्वर की भगति से कोई संबंध नही यह तो केवल मनुष्य के अहंकार का ही प्रगटावा होता है। 5 नवम्बर वाले दिन काज़ी कोतवाली आ गया।उसने दरोगा को गुरू साहिब को खोफनाक तक्लीफें देने की सलाह दी ता की वो अपनी हार मान कर इस्लामी कदरों-कीमतों को अपना ले।दरोगा ने लगातार तीन दिन तरह-तरह के अत्याचार कर के गुरू साहिब को अपनी शर्त मनाने की नाकाम कोशिश की।
अडोल चित सतिगुरू ज़बर को अकाल-पुरख की रज़ा जान कर खिल्ले चेहरे से प्रवान करते गए।भयानक से भयानक अत्याचार करके भी काज़ी की कोई पेश नहीं गई।हार के उस ने एक ओर पैंतरे का प्रयोग किया।इस पैंतरे तहत उस ने गुरू-घर के तीन सिदकी सिक्खों भाई मती दास,भाई सती दास और भाई दयाला जी को घोर यातनाएंँ देकर गुरू तेग बहादर साहिब की आँखों के सामने शहीद कर दिया। 11 नवम्बर 1675 ई0 के दिन गुरू तेग बहादर साहिब को कोतवाली से बाहर निकाला गया।यदि गुरू साहिब के सिक्ख इन खोफनाक यातनाओं के आगे नही झुके थे तो गूरू साहिब के झुकने की क्या उम्मीद की जा सकती थी।झुंझलाहट में आ कर काजी़ अब्दुल वहाब ने गुरू तेग बहादर जी का सीस धड़ से (तलवार के साथ) जुदा कर देने का फ़तवा जारी कर दिया।इस फ़तवे के मुताबिक चांदनी चौक के कोतवाली वाले (बरगद के) पेड़ के नीचे जलाद जलालुदीन ने तलवार के जोरदार वार से गुरू तेग बहादर साहिब को शहीद कर दिया। मानवता के इतिहास में इस शहीदी को एक अद्वितीय शहीदी के तोर पर प्रवान किया जाता है।
रमेश बग्गा चोहला
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