जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है
punjabkesari.in Wednesday, Jun 10, 2020 - 05:28 PM (IST)

जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है
बचपन से लेकर आज तक देखता आया हूँ जब भी घर में कोई धार्मिक अनुष्ठान या आयोजन होता है तो पंडित जी उस आयोजन की शुरुआत सर्वप्रथम धरती को जल व पुष्प अर्पित करवा कर करते हैं ठीक उसके बाद अन्य देवी-देवताओं का पूजन होता है। मन में हर बार प्रश्न पैदा होता कि आखिर धरती को ही सर्वप्रथम इस तरह क्यों पूजा जाता है? जबकि पूजा-अर्चना या यज्ञ तो किसी और आराध्य देवी या देव के नाम से हो रहा है। इसी जिज्ञासा को शांत करने के लिए मैंने अपने एक परिचित पंडित जी से पूछा कि आखिर भूमि पूजन क्यों? उनका उत्तर बड़ा तथ्यात्मक था कि धरा ही हर चीज़ का आधार है, आज जो भी कार्य इस धरती पर हो रहे हों इन सबका आधार पृथ्वी ही तो है, आप जिस स्थल पर बैठकर पूजा-अर्चना कर रहे हैं वह स्थल भी धरती ही है मतलब तुम्हारे उस कार्य को करने का आधार पृथ्वी ही है। हम सबकी और सभी कार्यों की नींव, हमारी संस्कृति का आधार भी धरती है।
दुनिया में 200 से अधिक देश हैं सभी की अपनी-अपनी भाषा व संस्कृति है लेकिन भारतवर्ष ही एक ऐसा राष्ट्र है जहां अखंड रूप से धाराप्रवाह चलने वाली संस्कृति को विश्वभर में सर्वश्रेष्ठ संस्कृति माना गया है। हिजरी संवत लगभग चौदह सौ चालीस वर्ष पूर्व प्रारंभ हुआ है तो वहीं अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार 2020 इसवी संवत है। जिस पुण्य भूमि भारत की बात होती है, उसे आदि काल से ही मातृभूमि की संज्ञा दी गई है। भारतीय अनुभूति में पृथ्वी आदरणीय बताई गई है।इसे पृथ्वी माता कह कर संबोधित किया गया है। महाभारत के यक्ष प्रश्नों में भी इसी अनुभूति का खुलासा होता है जब यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा कि आकाश से भी ऊंचा क्या है और पृथ्वी से भी भारी क्या है? तो युधिष्ठिर ने यक्ष को बताया कि आकाश से ऊंचा पिता है और माता पृथ्वी से भी भारी है। हम भी उनके अंश हैं। इस बात का वर्णन अथर्ववेद में किया गया है कि ‘माता भूमि’:, पुत्रो अहं पृथिव्या: अर्थात भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूं। यजुर्वेद में भी कहा गया है- नमो मात्रे पृथिव्ये, नमो मात्रे पृथिव्या:। अर्थात माता पृथ्वी (मातृभूमि) को नमस्कार है, मातृभूमि को नमस्कार है। ऐसा ही एक वृतांत रामायण में देखने को मिलता है जब भगवान राम लक्षमण से कहते हैं कि हे लक्ष्मण लंका यद्यपि सोने की बनी है पर हमें अच्छी नहीं लगती क्योंकि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है इसलिए उन्होंने भी इस भारत भूमि को माता ही कहा है।
पुण्य भूमि भारत की संस्कृति भी पुण्य है। यही भारतीय संस्कृति व्यक्ति को महान कार्यों के लिए प्रोत्साहित करने का व्यक्तित्व तो देती है किंतु व्यक्तित्व के चरम विकास को यह सामाजिक स्तर पर ही स्वीकार करती है। अन्य देशों की संस्कृतियां समय की धारा के साथ-साथ नष्ट होती रही हैं, उनमें उतार-चढ़ाव आते रहे किंतु भारत की संस्कृति आदिकाल से ही अपने परंपरागत अस्तित्व के साथ अजर-अमर बनी हुई है। अपने अस्तित्व के मूल को सुरक्षित रखते हुए उदारता तथा समन्यवादी गुणों से भारतीय संस्कृति ने अन्य संस्कृतियों को भी खुद में समाहित किया हुआ है।
हमारी संस्कृति व भौगोलिक विविधता को लेकर एक बहुत पुरानी कहावत प्रचलित है कि, 'कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी अर्थात एक कोस पर पानी का स्वाद और चार कोस पर हमारे देश के लोगों की भाषा बदल जाती है। भाषा ही नहीं लोगों के अलग-अलग रीति-रिवाज, खान-पान, रहन-सहन आदि भी एक दूसरे से भिन्न है वाबजूद इसके इस भिन्नता को ही हम अपनी एकता मानते हैं। यही भारतीय संस्कृति है जो विविधता के वाबजूद हमें आपस में मिलजुलकर रहना सिखाती है। हमें इससे फर्क़ नहीं पड़ता कि पड़ोसी के घर में हमारे घर से अलग पकवान बना है, हमें फर्क़ इस बात का पड़ता है कि पड़ोसी ने आपने बनाए हुए व्यंजन हमें खिलाए या नहीं भाव हम एक दूसरे के घर में बने हुए अलग-अलग व्यंजनों को मिलजुलकर एक साथ इकट्ठे खाने को ही भारतीय संस्कृति मानते हैं और शायद यह चीज हमारे राष्ट्र की बहुमुल्य धरोहर है।
महर्षि अरविन्द जो पहले श्रेष्ठ क्रांतिकारी थे बाद में वे एक सन्यासी का जीवन जीते हुए पांडिचेरी में आश्रम बनाकर आध्यात्मिक साधना करने लगे। उन्होंने भी अपनी साधना का आधार अखंड भारत को बनाया था। अखंड भारत में भारत माता की अनुभूति उन्होंने ही की थी। इसी तरह स्वतंत्र वीर विनायक दामोदर सावरकर भारत के विषय में कहते हैं मातृभूमि की सीमाएं माता के वस्त्रों की तरह होती हैं। जिस तरह से अच्छी संतान को अपनी माता के जीवन को सुरक्षित रखना चाहिए व इज्जत की रक्षा करनी चाहिए ठीक वैसे ही उसी समर्पित भाव से देश की सीमाओं की रक्षा होनी चाहिए। देश के लिए प्राणों की आहुति देने वाले क्रांतिकारी जिनमें सरदार भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव आदि असंख्य क्रांतिकारियों ने मेरा रंग दे बसंती चोला, माए रंग दे बसंती चोला... आदि गीतों में भी देश की भूमि को माँ के रूप में देखा।
खेल कोई भी हो, खिलाड़ी किसी भी देश के हों लेकिन खेल के मैदान में प्रवेश करने से पहले वे धरती को जरूर नमस्कार करते हैं उसकी मिट्टी को माथे से जरूर लगाते हैं, ऐसे संस्कार भारतीय संस्कृति की ही देन हैं। कोई इंसान कितना भी बड़ा या महान क्यों न बन जाए लेकिन माता-पिता का सदैव ऋणी रहता है, कोई भले ही विदेशों में जाकर बस जाए परंतु उसका आधार हमेशा उसकी मातृभूमि ही रहती है। हम सबकुछ भुला सकते है सबका ऋण उतार सकते हैं लेकिन माता-पिता व अपनी धरा का ऋण कभी नहीं उतार सकते। इंसान के जीवन की शुरुआत और अंत का आधार भी यही धरा है।
(राजेश वर्मा )