हिंदी का अखिल भारतीय स्वरूप

punjabkesari.in Sunday, Sep 13, 2020 - 01:54 PM (IST)

स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद हमारे देश के नेताओं, विचारकों और हित-चिंतकों ने एक सपना देखा था कि एक राष्ट्गीत,एक राष्ट्रध्वज,एक राष्ट्रीय पक्षी आदि की तरह ही इस देश की एक राष्ट्रभाषा हो। संविधान-निर्माताओं ने हिन्दी को राष्ट्भाषा का दर्जा भी दिया था। मगर हम सभी जानते हैं कि यह सब होते हुए भी, लगभग सत्तर वर्ष बीत जाने के बाद भी, हिन्दी को अभी तक अखिल भारतीय भाषा, जिसे हम कभी-कभी सम्पर्क-भाषा भी कहते हैं, का दर्जा प्राप्त नहीं हुआ है और इसके लिए उसे बराबर संघर्ष करना पड़ रहा है। इस गतिरोध का आखिर कारण क्या है? क्या भारत की जनता को एक भाषा, एक राष्ट्र वाली बात में अब कोई दिलचस्पी नही रही? क्या सरकार या व्यवस्था की नज़र में राष्ट्रभाषा की अस्मिता का प्रश्न महज फाइलों तक सीमित रह गया है? क्या हमारे हिन्दी- प्रेमियों एवं हिन्दी सेवियों को कहीं किसी उदासीनता के भाव ने घेर लिया है? आदि कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके उत्तरों की तलाश हमें करनी होगी।यह सब मैं इस लिए कह रहा हूँ क्योंकि लगभग सात दशक बीत गये हैं और हम हिन्दी को अभी तक राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानजनक स्थान दिलाने में पूरी तरह से कामयाब नहीं हुए हैं। हिन्दी के सेवा-कार्य, लेखन कार्य तथा अध्ययन-अध्यापन कार्य से मैं पिछले चार दशकों से भी ज्यादा समय से जुडा हुआ हूँ।मेरे मस्तिष्क में कई बातें उभर रही हैं जो हिन्दी को ‘अखिल भारतीय स्वरूप’ प्रदान करने में बाधक सिद्ध हो रही हैं।बातें कई हैं, मगर मैं यहां पर अपनी बात मात्र एक विशेष मुद्दे तक ही सीमित रखूंगा। देखिये,किसी भी भाषा का विस्तार या उसकी लोकप्रियता या उसका वर्चस्व तब तक नहीं बढ़ सकता जब तक कि उसे ज़रूरत; यानि आवश्यकता से नही जोड़ा जाता। यह ज़रूरत अपनेआप उसे विस्तार देती है और लोकप्रिय बना देती है।

हिन्दी को इस जरूरत से जोड़ने की सख्त आवश्यकता है।मुझे यह कहना कोई अच्छा नहीं लग रहा और, सचमुच, कहने में तकलीफ भी हो रही है कि हिन्दी की तुलना में अंग्रेजी ने अपने को इस जरूरत से हर तरीके से जोडा है। जिस निष्ठा और गति से हिन्दी और गैर-हिन्दी प्रदेशों में हिन्दी प्रचार-प्रसार का कार्य हो रहा है, उससे दुगुनी रफतार से अंग्रेजी माध्यम से ज्ञान-विज्ञान के नये-नये क्षितिज उदघाटित हो रहे हैं जिनसे परिचित हो जाना आज हर व्यक्ति के लिए लाजिमी हो गया है।मेरे इस कथन से यह अर्थ कदापि न निकाला जाए कि मैं अंग्रेजी की वकालत कर रहा हूँ। नहीं, बिल्कुल नहीं। मैं सिर्फ यह रेखांकित करना चाहता हूं कि अंग्रेजी ने अपने को जरूरत से जोड़ा है।अपने को मौलिक चिंतन, मौलिक अनुसंधान व सोच तथा ज्ञान-विज्ञान के अथाह भण्डार की संवाहिका बनाया है जिसकी वजह से पूरे विश्व में आज उसका वर्चस्व अथवा दबदबा है। हिन्दी अभी जरूरत की भाषा नहीं बन पाई है।आज हमें इसका जवाब ढूंढना होगा कि क्या कारण है अब तक उच्च अध्ययन, खासतौर पर विज्ञान,तकनालॉजी, चिकित्साशास्त्र,प्रबंधन आदि के अध्ययन के लिए हम स्तरीय पुस्तकें तैयार नहीं कर सके हैं? क्या कारण है कि सी0डी०एस0 और एन0डी०ए0 प्रतियोगिताओं के लिए हिन्दी को एक विषय के रूप में सम्मिलित नहीं करा सके हैं? क्या कारण है कि बैंकिग-प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेजी एक विषय है, हिन्दी नहीं है? ऐसी अनेक बातें हैं जिनका उल्लेख किया जा सकता है।

यह सब क्यों हो रहा है?अनायास हो रहा है या जानबूझकर किया जा रहा है, इन बातों पर खुलकर चर्चा होनी चाहिए।मैं दुबारा यह रेखांकित करना चाहता हूं कि मेरी बातों से यह निष्कर्ष कदापि न निकाला जाए कि हिन्दी के सुन्दर भविष्य के बारे में मुझ में कोई निराशा है।नहीं, ऐसी बात नहीं है। उसका भविष्य उज्ज्वल है।वह धीरे-धीरे अखिल भारतीय स्वरूप ले रही है।मगर इसके लिए हम हिन्दी प्रेमियों को अभी बहुत काम करना है।एकजुट होकर युद्ध-स्तर पर राष्ट्रभाषा हिन्दी की स्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष करना है। भाषण देने,बाज़ार में सौदा-सुलफ खरीदने या फिर फिल्म या सीरियल देखने के लिए हिंदी ठीक है,मगर अच्छी नौकरियों के लिए या फिर उच्च अध्ययन के लिए अब भी अंग्रेजी का दबदबा बन हुआ है।इस दबदबे से कैसे मुक्त हुआ जाय?निकट भविष्य में आयोजित होने वाले हिंदी दिवसों अथवा हिंदी पखवाड़ों के दौरान इस विषय पर भावुक हुए विना वस्तुपरक तरीके से विचार-मंथन होना चाहिए।एक बात और। निजी क्षेत्र के संस्थानों में हिंदी की स्थिति शोचनीय बनी हुई है और मात्र कमाने के लिए इसका वहां पर ‘दोहन’ किया जा रहा है? इस प्रश्न का उत्तर भी हमें निष्पक्ष होकर तलाशना होगा। वैसे, हिन्दी प्रचार-प्रसार या उसे अखिल भारतीय स्वरूप देने का मतलब हिन्दी के विद्वानों,लेखकों,कवियों या अध्यापकों की जगात तैयार करना नहीं है। जो हिन्दी से सीधे-सीधे आजीविका या अन्य तरीकों से जुडे हुए हैं, वे तो हिन्दी के अनुयायी हैं ही।यह उनका धर्म है, उनका नैतिक कर्तव्य है कि वे हिन्दी का पक्ष लें,हिंदी में काम करें और हिंदी का प्रचार-प्रसार करें।मैं बात कर रहा हूँ ऐसे वातावरण को तैयार करने की जिसमें भारत देश के किसी भी भाषा-क्षेत्र का किसान, मजदूर, रेल में सफर करने वाला हर यात्री, अलग-अलग काम-धन्धों सेजुड़ा आम-जन हिन्दी समझे और बोलने का प्रयास करे। टूटी-फूटी हिन्दी ही बोले, मगर बोले तो सही। यहां पर मैं दूरदर्शन और सिनेमा के योगदान का उल्लेख करना चाहूंगा जिसने हिन्दी को पूरे देश में लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। कुछ वर्ष पूर्व जब दूरदर्शन पर ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ सीरियल प्रसारित हुए तो समाचारपत्रों के माध्यम से सुनने को मिला कि दक्षिण भारत के कतिपय अहिन्दी भाषी अंचलों में रहने वाले लोगों ने इन दो सीरियलों को बड़े चाव से देखा क्योंकि भारतीय संस्कृति के इन दो अद्भुत महाकाव्यों को देखना उनकी भावनागत जरूरत बन गई थी और इस तरह अनजाने में ही उन्होंने हिन्दी सीखने का उपक्रम भी किया। हम ऐसा ही एक सहज सुन्दर और सौमनस्यपूर्ण माहौल बनाना चाहते हैं जिसमें हिन्दी एक ज़रूरत बने और उसे जन-जन की वाणी बनने का गौरव उसे प्राप्त हो।

 

(डा० शिबन कृष्ण रैणा)


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