''मौलिक अधिकारों'' की आड़ में भूलते ''मौलिक कर्त्तव्य''

punjabkesari.in Tuesday, Jan 31, 2017 - 03:32 PM (IST)

विगत दिनों देश भर में 68वां गणतंत्र दिवस बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। इस दिन की महत्ता का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि आज हम जो कुछ भी हैं या आज हमारे पास जो कुछ भी है उसके पीछे इस दिन का बडा़ योगदान है। इसी दिन सन 1950 को भारत का संविधान लागू किया गया था। संविधान ही वह दस्तावेज है जिसमें वर्णित मौलिक अधिकारों के बल पर हम भारत में अपनी हर प्रकार की स्वतंत्रता का आनंद भोगते है। किसी भी प्रकार का अन्याय होने पर हम इन्हीं मौलिक अधिकारों को अपनी ढाल बना लेते हैं। मेरी तरह हर भारतीय खुद को सौभाग्यशाली समझता है कि उसे ऐसे मौलिक अधिकार मिले जिससे वह अपने जीवन को बिना किसी डर भय के व्यतीत कर सकता है। हम सब मौलिक अधिकारों की बात तो बडे़ जोर शोर से करते हैं लेकिन जब बात आती है देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियों की तो हम सब पीछे हटने और टाल मटोली वाली हालत में आ जाते हैं।


संविधान ने हमें समाज व देश के प्रति जो जिम्मेदारी तय करने के मौलिक कर्त्तव्य दिए उसकी बात या तो कोई करना नहीं चाहता या हम जानबूझकर नहीं करते मतलब साफ है हम पाना तो सबकुछ चाहते लेकिन बदले में या अपना दायित्व समझ कर कुछ करना नहीं चाहते। इसी संविधान में वर्ष 1976 में अपनाए गए 42वां संविधान संशोधन के द्वारा नागरिकों के मौलिक कर्तव्‍यों को सूचीबद्ध किया गया। संविधान के भाग IV में सन्निहित अनुच्‍छेद 51 'क' मौलिक कर्तव्‍यों के बारे में है। यह अन्‍य चीजों के साथ साथ नागरिकों को, संविधान का पालन करने, आदर्श विचारों को बढ़ावा देने और अनुसरन करने का आदेश देता है, जो भारत के स्‍वंतत्रता संग्राम से प्रेरणा लेता है, देश की रक्षा करने के साथ - 2 जरूरत पड़ने पर देश की सेवा करने और सौहाद्रता एवं समान बंधुत्‍व की भावना विकसित करने व धार्मिकता का संवर्धन करना, साथ ही भाषाविद और क्षेत्रीय एवं वर्ग विविधताओं का विकास करने का आदेश व प्रेरणा देते हैं।


सरदार स्वर्ण सिंह समिति की अनुशंसा पर ही संविधान के 42वें संशोधन - 1976 ई० के द्वारा मौलिक कर्तव्य को संविधान में जोड़ा गया। मौलिक कर्त्तव्यों को रूस के संविधान से लिया गया है कहने को तो मौलिक कर्तव्य की संख्या 11 है परंतु इन मौलिक कर्त्तव्यों में कुछेक कर्तव्यों को एक दूसरे में जोड़ दिया गया है अर्थात नाम अलग-2 कर दिया है बस। मैं बात करूं विशेष व जरूरी मौलिक कर्त्तव्यों की तो सबसे पहले बात आती है संविधान में वर्णित प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य बनता है की वह संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्र गान का आदर करे। प्रत्येक देशवासी का मौलिक कर्त्तव्य बनता है कि भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे लेकिन यहां भी हम कहां निभा पाते हैं इस कर्तव्य को। हमें यह याद जरूर रहती है कि हमें हमारी सुरक्षा का मौलिक अधिकार मिला है पर देश की सुरक्षा अखंडता की आज कितने लोग परवाह कर रहे हैं।


देश की रक्षा केवल सीमा पर जाकर या सैनिक बन कर ही नहीं हो सकती। हम देश या अपने क्षेत्र में भाईचारे की भावना को पैदा कर भी देश की रक्षा कर सकते हैं। आज जातिवाद या धर्म के नाम पर बंटने बांटने की बजाए हम क्यों नहीं अपने मौलिक कर्त्तव्य का पालन करते। हम अपने लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, व सड़क जैसी जनसुविधाएं पाने के लिए अपने मौलिक अधिकारों की बात तो करते हैं लेकिन कभी इन्हीं जनसुविधाओं को पा लेने के बाद इनके प्रति रख रखाव की बात हम क्यों नहीं करते? हमें परिवहन सुविधा मिलती है लेकिन हम उसी सुविधा के प्रति अपने मौलिक कर्त्तव्य को भूल जाते हैं। अपनी मांगों को मनवाने के लिए हम मौलिक अधिकार की आड़ लेकर आंदोलन करते हैं लेकिन मौलिक अधिकार में शांति पूर्वक रोष प्रकट करने की बात है न कि हिंसक प्रदर्शन? वहीं सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखने का मौलिक कर्त्तव्य भी इसी संविधान ने दिया है परंतु आवेश में आकर हम शांति को भूलकर इसी सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने लग जाते हैं कोई सरकारी भवनों को आग लगा देता है तो कोई सरकारी मशीनरी को आग के हवाले कर देता है आखिर सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट करने का अधिकार तो संविधान ने नहीं दिया। 


हमारा मौलिक कर्त्तव्य है पर्यावरण की रक्षा और उसका संवर्धन करना परंतु आए दिन जंगलो को अवैध रूप से काटने से खुद को या अन्य को कहां रोक पा रहे हैं। माता-पिता या संरक्षक द्वार 6 से 14 वर्ष के बच्चों हेतु प्राथमिक शिक्षा प्रदान करना (86वां संशोधन) जहां बच्चों का मौलिक अधिकार है वहीं यह दूसरी तरफ इनके अभिभावकों का मौलिक कर्त्तव्य भी है। देखा जाए तो अधिकारों एवं कर्तव्यों का परस्पर घनिष्ठ संबंध है। अधिकारों का अभिप्राय है की मनुष्य को कुछ स्वतंत्रताएं प्राप्त होनी चाहिए, जबकि कर्तव्यों का अर्थ है कि व्यक्ति के ऊपर समाज के कुछ ऋण हैं। समाज का उद्देश्य किसी एक व्यक्ति का विकास न होकर सभी मनुष्यों के व्यक्तित्व का समुचित विकास है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार के साथ कुछ कर्तव्य जुड़े हुए हैं जिनको निभाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते हम सब की अपने राष्ट्र के प्रति जबावदेही बनती है। मौलिक अधिकार जहां हमें देश में स्वतंत्रत रूप से रहने सहने की शक्तियां देते हैं वहीं मौलिक कर्त्तव्य हमें देश के प्रति बनते हमारे दायित्व को निभाने के आदेश देते हैं। मौलिक अधिकार व मौलिक कर्त्तव्य एक दूसरे के पूरक हैं न कि विरोधी।

                                                                                                                                                                                    - राजेश वर्मा 


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