वंशवाद की राजनीति और कांग्रेस

punjabkesari.in Friday, Aug 28, 2020 - 05:16 PM (IST)

हिंदी सिनेमा का यह लोकप्रिय संवाद तो आपने सुना ही होगा- '' अब, तेरा क्या होगा रे कालिया!''' उत्तर भी आप जानते ही हैं- ''सरदार, मैंने आपका नमक खाया है!'' दरअसल भारतीय राजनीति भी प्रायः इसी लोकप्रिय संवाद और दृश्य का अनुसरण करती प्रतीत होती है| अधिकांश दलों के लोकप्रिय, अनुभवी एवं वरिष्ठ-से-वरिष्ठ नेता भी येन-केन-प्रकारेण किसी परिवार विशेष के 'शहजादे' या 'शहज़ादी' के समक्ष साष्टांग दंडवत की मुद्रा में या तो लोटते प्रतीत होते हैं या अंजुलि में गंगाजल अथवा मुख में दूब धारण कर वंश विशेष के प्रति समर्पण एवं निष्ठा की दुहाई देते दृष्टिगोचर होते हैं| चाहे वे युवा हों या बुजुर्ग, धुरंधर हों या नौसिखिए, ज़्यादातर नेताओं की यही ख़्वाहिश होती है कि जैसे भी हो वे किसी स्थापित राजनीतिक परिवार के कृपा-पात्र बन जाएं और उनकी राजनीतिक वैतरणी पार लग जाए| यही कारण है कि इन राजनीतिक परिवारों-वंशों की शान में कसीदे पढ़ने का एक भी मौका वे अपने हाथ से नहीं जाने देते| और कहीं जो किसी ने थोड़ी-सी भी रीढ़ सीधी रखने की कोशिश की तो उसे दल से बाहर का रास्ता दिखाने में क्षण मात्र की देरी नहीं की जाती|  क्या यही है- ''जनता की, जनता के लिए तथा जनता द्वारा संचालित लोकतंत्र?'' क्या ऐसे ही लोकतंत्र का सपना संजोया था हमारे महापुरुषों-मनीषियों ने? यदि यही लोकतंत्र है तो फिर राजतंत्र में क्या बुराई थी? बल्कि राजतंत्र में भी पात्रता और योग्यता की कसौटी पर कसकर ही कई बार 'युवराज' जैसे पद पर किसी को अभिसिक्त किया जाता था| क्या यह उचित है कि अनुभव, संघर्ष, शुचिता, योग्यता, नैतिकता, प्रतिबद्धता, कर्त्तव्यपरायणता जैसे मूल्यों को तिलांजलि देकर अयोग्यता, अनैतिकता, चाटूकारिता, अवसरवादिता को प्रश्रय एवं प्रोत्साहन दिया जाय?

एक ओर वंशवाद की विष-बेल को सींचने और परिपुष्ट करने के लिए नवोदित राजनीतिक प्रतिभाओं की भ्रूण-हत्या अनुचित है तो दूसरी ओर सत्ता के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता को खूँटी पर टाँगने को भी न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता| समर्पित-संघर्षशील-प्रतिबद्ध-परिपक्व कार्यकर्त्ताओं के अरमानों का गला घोंटकर चाँदी का चम्मच मुँह में लेकर पैदा होने वाले 'युवराजों' या 'आयातितों' को थाली में परोसकर सत्ता सौंप देना नितांत अलोकतांत्रिक चलन है| ज़रा कल्पना कीजिए, कल्पना कीजिए कि कोई वर्षानुवर्ष जी-तोड़ परिश्रम करे, निजी सुख-सुविधाओं एवं ऐशो-आराम को तिलांजलि देकर निर्दिष्ट-निर्धारित कर्त्तव्यों के निर्वहन को ही जीवन का एकमात्र ध्येय माने और मलाई कोई और चट कर जाय, क्या यह स्थिति किसी को स्वीकार्य होगी? सच तो यह है कि जिस प्रकार आग में तपकर ही सोना कुंदन बनता है, शिल्पकार के छेनी और हथौड़े की चोट सहकर ही अनगढ़ पत्थर सजीव और मूर्त्तिमान हो उठता है, उसी प्रकार संघर्षों की रपटीली राहों पर चलकर ही कोई नेतृत्व सर्वमान्य और महान बनता है| चाटूकारों और अवसरवादियों की भीड़ और उनकी विरुदावलियाँ किसी नेतृत्व को सार्वकालिक और महान नहीं बनातीं| 

सभी राजनीतिक दलों को वैचारिक निष्ठा एवं प्रतिभा को प्रोत्साहन देना चाहिए और वंशवाद व  दल-बदल जैसी प्रवृत्तियों को हतोत्साहित करना चाहिए| बीते कुछ वर्षों में यह वंशवाद दल-बदल का भी प्रमुख कारण बनता रहा है| सच तो यह है कि वंशवाद अधिनायकवादी, तानाशाही, प्रतिगामी एवं यथास्थितिवादी विचारों एवं वृत्तियों का पोषक है, वह परिवर्तन एवं सुधारों का अवरोधक है| वह अधिकारों, अवसरों एवं सत्ता-संसाधनों को वंश विशेष तक सीमित रखने के कुचक्र रचता रहता है| उसका विश्वास सामूहिकता में न होकर मनमाने निर्णयों के पृष्ठपोषण में होता है| असहमति और विरोध के हर सही स्वर को कुचल डालना वह अपना एकमेव नैतिक उत्तरदायित्व समझता है| वंशवाद की ख़ुराक़ पाकर पले-बढ़े नेता किसानों और ग़रीबों के हितों की बातें तो खूब करते हैं, पर उनका ज़मीनी ज्ञान प्रायः शून्य होता है| भारत जैसे कृषि प्रधान देश में आश्चर्यजनक रूप से कई बार तो उन्हें 'गेहूँ' और 'जौ' तक का अंतर नहीं पता होता, उन्हें नहीं पता होता कि 'लाल मिर्च' उगाई जाती है कि तैयार की जाती है| मुँह का ज़ायका बदलने और लोकप्रियता बटोरने के लिए वे किसी 'कलावती' जैसों के घर का भोजन तो बड़े चाव से करते हैं, पर ग़रीबी उनके लिए केवल एक मानसिक स्थिति है, चुनावी झुनझुना है और इसीलिए वे ग़रीबी बनाए रखने में यक़ीन रखते हैं| नीति और नीयत के अभाव में भारतीय राजनीति प्रायः नारे गढ़ने, उछालने और उसे बार-बार भुनाने तक सीमित रहती है|

राजस्थान की राजनीति में मची वर्तमान उथल-पुथल को सत्ता-संघर्ष या राज्य-स्तर पर सत्ता में बराबर की हिस्सेदारी तक ही सीमित रखना समस्या को सीमित दायरे में देखना-समझना होगा| दरअसल इसे एक युवा, ऊर्जावान, तेजतर्रार नेता द्वारा क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ी भूमिका निभाने की दावेदारी और तैयारी के रूप में देखा जाना चाहिए और जो वंशवाद कभी गाँधी-नेहरू परिवार की ताक़त थी, उसे ही इन युवा क्षत्रपों ने अपनी ताक़त बनाया है| विरासत में मिली ताक़त और अपनी मेहनत के बल वे सत्ता-संतुलन साधना चाहते हैं| और इसमें कोई नैतिक बाधा भी उनके आड़े नहीं आती| क्योंकि कांग्रेस की राजनीति में तो वंशवाद को प्रारंभ से ही विशेष प्रश्रय एवं प्रोत्साहन मिला है| उसके आधार पर तो कई बार वहां नेतृत्व पैराशूट से टपकाए जाते रहे हैं| और विकल्प के अभाव में धीरे-धीरे जनमानस भी उन्हें स्वीकार करता रहा है| परंतु यह भी सत्य है कि जब-जब शीर्ष केंद्रीय नेतृत्व कमज़ोर पड़ा है, क्षेत्रीय क्षत्रपों ने सिर उठाया है| वे सत्ता-सुख में राज्य से लेकर केंद्र तक एक बड़ी हिस्सेदारी चाहते रहे हैं| यदि स्थानीय स्तर पर किसी नेता के साथ जातीय एवं ज़मीनी आधार भी हो तो उसकी महत्त्वाकांक्षा पर अंकुश रख पाना केंद्रीय नेतृत्व के लिए और भी चुनौतीपूर्ण रहा है| वे केंद्रीय नेतृत्व का छत्र तभी तक धारण किए रहना चाहते हैं, जब तक उन्हें किसी मलाईदार या शक्तिशाली पद पर बनाए रखा जाता है या जब तक केंद्रीय नेतृत्व उन्हें जिताऊ वोट दिलवा पाने की स्थिति में रहता है| उधर केंद्रीय नेतृत्व को भी सदैव यह डर सताता रहता है कि स्थानीय क्षत्रप का आभामंडल कहीं उससे अधिक बड़ा न हो जाय|

जगनमोहन रेड्डी और माधव राव सिंधिया जैसों का हालिया उदाहरण उनके सामने है| बल्कि कई बार तो इन प्रतिभाशाली, क्षेत्र या जाति विशेष में लोकप्रिय, मज़बूत पारिवारिक पृष्ठभूमि वालेे युवा एवं उदीयमान राजनेताओं के लिए केंद्रीय नेतृत्व बोझ-सा बन जाता है| काँग्रेस में मचे हाल-फिलहाल के ज़्यादातर घमासान केंद्रीय नेतृत्व के असुरक्षा-बोध और क्षेत्रीय नेतृत्व के बढ़ते आभामंडल का परिणाम है| युवा भारत में अन्यान्य कारणों से गाँधी-नेहरू परिवार का तिलिस्म धीरे-धीरे टूटता जा रहा है| हर गाँव-गली-घर में उन समर्थक बुजुर्गों का युग बीत चुका है जो काँग्रेस को कमोवेश आज़ादी दिलाने वाली पार्टी मानते रहे| आलम यह है कि हाल के चुनावों में इस सबसे पुरानी पार्टी को कई तहसीलों-गाँवों में पोलिंग एजेंट बनाने के लिए ख़ासा मशक्क़त करनी पड़ी| कुल मिलाकर इस दल और इसके प्रथम परिवार का राजनीतिक भविष्य दाँव पर है| सोनिया गाँधी का प्रभाव अवसान की ओर है और राहुल गाँधी को अभी तक भारतीय राजनीति और लोकमानस ने गंभीरता से लेना प्रारंभ नहीं किया है| इन राजनीतिक घटनाक्रमों और उठा-पटक में राजनीति के इन धुरंधरों ने क्या खोया, क्या पाया इस पर तमाम बहसें हो सकती हैं, मतभेद भी हो सकते हैं, परंतु एक बात तो तय है कि जोड़-तोड़ की इस राजनीति में जनता को केवल खोना ही खोना है| लोकतंत्र में विपक्ष की अपनी भूमिका होती है और मज़बूत विपक्ष का जन-भावनाओं और सरोकारों को उठाने में सर्वाधिक योगदान होता है| पर दुर्भाग्य से बीते कुछ वर्षों में वंशवादी विरासत को सहेजता-संभालता काँग्रेस अब महज़ कुछ परिवारों और रसूखदारों का दल बनता जा रहा है| वंशवाद से निकले नेताओं में उस अनुभवजनित-ज़मीनी-देसी तपिश की आँच नहीं होती, देश की आम जनता हमेशा से जिसकी क़ायल रही है| यह अकारण नहीं है कि स्वतंत्र भारत में हुए किसी भी जनांदोलन में वंशवादी राजनेताओं की कोई बड़ी भूमिका नहीं रही| बल्कि कथित पिछड़ी एवं दलित राजनीति पर भी परिवार विशेष का काबिज़ हो जाना उन जातियों और संपूर्ण देश के हितों के लिए एक अत्यंत चिंताजनक स्थिति है|

इसलिए यदि गंभीरता और गहनता से विचार करें तो यह वंशवाद, दलबदल एवं चुनावोपरांत  गठजोड़ भारतीय राजनीति में व्याप्त अनेकानेक बुराइयों की जननी है|  दुर्भाग्य से अधिकांश दल इसकी चपेट में आते जा रहे हैं| लोकतांत्रिक एवं युवा भारत की प्रगति एवं समृद्धि के लिए यह आवश्यक है कि वंशवाद से लेकर ऐसी तमाम ख़ामियों को अब जड़-मूल समेत उखाड़ फेंकना चाहिए| और जाति, परिवार, कुल-वंश आदि के स्थान पर गहरी सूझ-बूझ,  राजनीतिक परिपक्वता, प्रशासनिक दक्षता, व्यापक अनुभव एवं तदनुकूल कार्यकुशलता को प्रोत्साहन मिलना चाहिए| 

प्रणय कुमार


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