धर्म- जीवन की अनिवार्य अवधारणा

Wednesday, Jan 30, 2019 - 04:54 PM (IST)

धर्म, प्रकृति और ब्रह्माण्ड के प्रति हमारा कृतज्ञता ज्ञापन है। पृथ्वी से लेकर सूर्य तक, सनातन संस्कृति की मान्यताएँ हर उस तत्व में व्याप्त ईशत्व का साक्षात अनुभव करती हैं जिनसे जीवन के तीनों चरण (आरम्भ, पालन एवं अंत) प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होते हैं।

“कण-कण में भगवान” जैसा हमारा चिरंतन विश्वास, विज्ञान को पिछले दशक में “गॉड पार्टिकल” के रूप में समझ आया। “धर्म” शब्द का वितान अंग्रेजी के “रिलिजन” से कहीं अधिक व्यापक और ग्रहणीय है। धर्म कोई संप्रदाय नहीं अपितु जीवन की उपस्थिति के लिए एक अनिवार्य धारणा है।धार्मिक दृष्टिकोण, प्राप्ति का स्वयं श्रेय नहीं लेता और अप्राप्ति का दोषारोपण किसी अन्य पर नहीं करने देता. दोनों ही स्थितियों में मनुष्य का कल्याण है। 

उसे न तो अहंकार हो सकेगा और न ही समाज के किसी वर्ग पर आक्रोश। धर्म से हटने पर परिस्थितियाँ ठीक इसके विपरीत हो जाती हैं। संसार की कोई भी वस्तु, धर्म से परे नहीं है। “धर्म को नहीं मानना” जैसी बात भ्रम के सिवा कुछ नहीं।जीवित-निर्जीव, हर चीज अपने धर्म का पालन करती है।

धर्म वो जिसे धारण किया जाए। पूजा-पाठ, धर्म का एक अंग है, सम्पूर्ण धर्म नहीं। धर्म को ठीक से नहीं समझ पाने के कारण केवल पूजा-पाठ को ही धर्म मान लिया जाता है और इसकी भाँति-भाँति से नकारात्मक विवेचना होने लगती है। पूजा, हमारी धार्मिक  अवधारणा को पुष्ट करने एवं दैवीय उर्जाओं के अंश को आशीर्वाद के रूप में प्राप्त करने का साधन है। धर्म, मनुष्यता के समग्र विकास के लिए सकारात्मक वातावरण निर्मित करता है। इसलिए अपने धर्म की रक्षा करने वाला अपने आप ही रक्षित हो जाता है।

लेखक - कुमार गौरव अजीतेन्दु

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