कोरोना बनाम स्वदेशी

punjabkesari.in Tuesday, May 26, 2020 - 04:50 PM (IST)

कोरोना की महामारी के चलते समस्त विश्व में हाहाकार मचा हुआ है। सरकारें कोरोना से बचाव के लिए नई नई गाइडलाइन जारी कर रही हैं। इन सब गाइडलाइन को पढ़ कर हमें अपनी स्वदेशी भारतीय संस्कृति द्वारा निर्धारित जीवन पद्धति की याद आती है जो व्यक्ति आज 60 वर्ष या उससे अधिक आयु के हैं यदि वे अपने बचपन की अपने घर की संस्कृति को याद करें तो उन्हें बड़े-बड़े डॉक्टरों के द्वारा तैयार वर्तमान क्रोना की गाइडलाइन अपने घर की उस समय की संस्कृति में ही दिखाई दे जाएगी और स्पष्ट हो जाएगा कि इसमें कुछ भी नया नहीं है। जब तक हम स्वदेशी के संपर्क में रहे तब तक हमारा जीवन सुखमय तथा निरोग रहा लेकिन जब से हमने अपनी स्वदेशी संस्कृति को त्याग कर विदेशी संस्कृति की भूल भुलैया को प्रगति समझकर अपनायातो हम अनेक अनेक विदेशी बीमारियों से ग्रस्त हो गए जिनमें ब्लड प्रेशर, शुगर, हाइपरटेंशन, हार्ट अटैक जैसी अनेक बीमारियां हैं और उन्हीं की देन बीमारियों की सरताज करोना महामारी है। 

बिमारियों से बचकर स्वस्थ रहने की यह सब बातें भारतीय संस्कृति में पहले से ही प्रचलित है जिन्हे हमारे आदि ऋषियों ने खोज कर हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया था। यदि हम अपनी वैदिक जीवन पद्धति को अपनाए रखते तो आज करोना महामारी से ग्रस्त न होते। वस्तुतः यह महामारी पश्चिम देशों की देन हैI हमने अपनी संस्कृति को छोड़कर पश्चिम देशों की संस्कृति अपना ली थीI बिना सोचे समझे अपनी उत्तम संस्कृति को छोड़कर विदेशी घटिया संस्कृति को अपनाने के परिणाम आज सबके सामने हैं। प्रगति की आड़ में हमने अपनी संस्कृति को दिवालिया बना दिया। आज इस महामारी में वह प्रगति कुछ काम नहीं आई । लोगों ने दिन-रात की मेहनत से जो धन दौलत के अंबार लगाए ,कार कोठी बंगला सजाएं वे लोक डाउन में धरे रह गए। कार से लेकर चंद्रयान तक
बड़े-बड़े कल कारखाने, हवा से बात कराने वाले सुपर हाईवे लोक डाउन में बेकार सिद्ध हुएऔर लखपति और करोड़पति भी ना चाहते हुए भी मिर्च मसाले चटपटी पिज्जा बर्गर से हटकर अपनी भारतीय निरामिष भोजन पद्धति पर आ गए। जिस ग्लोबलाइजेशन को हमने प्रगति का मर्म समझा था उसी के कारण आज यह महामारी विश्व के एक देश से दूसरे देश में फैल गई ।अर्थात

“जिन्हें हम हार समझे थे गला अपना सजाने को I
वहीं अब नाग बन बैठे हमें काट खाने को ।I “

इसका एकमात्र कारण हमारा अपनी वैदिक संस्कृति को छोड़ना ही है I आज बड़ी-बड़ी साइंस लैब में बैठकर जो गाइडलाइन जारी कि जा रही है वो पहले से ही हमारी संस्कृति के मूल में हैं अर्थात हजारों वर्ष पहले भारत के ऋषि मुनियों ने जिस जीवन पद्धति को मानव के कल्याण के लिए सुनिश्चित किया था उन्ही अंशों को दोबारा प्रसारित कर हम नई खोज और रिसर्च बता रहे हैंI आजकल सबसे ज्यादा प्रचलित शब्द है क्वॉरेंटाइन अर्थात जिस व्यक्ति को बीमारी हो उसे सबसे अलग-थलग क्वॉरेंटाइन रखना इसके अंतर्गत हम बीमार को 14 दिन के लिए सबसे अलग-थलग रख देते हैंI क्वॉरेंटाइन अंग्रेजी का नया शब्द हो सकता है परंतु भारतीय संस्कृति में हजारों साल पहले से निहित हैI उदाहरण की बात करें तो उन दिनों और तो कोई गंभीर बीमारी होती नहीं थी केवल महिला (माहवारी आदि ) होती थी जिस में महिला को तीन यां चार दिन के लिए पूर्णतया क्वॉरेंटाइन किया जाता था I भारत में जब किसी महिला द्वारा बच्चे का जन्म होता था तो उस महिला को बच्चे सहित 30 से 40 दिन के लिए अलग-थलग कर दिया जाता था तथा उस के कक्ष यान परिवार से सभी प्रकार का लेन-देन बंद कर दिया जाता थाI आम भाषा में उसे सूतक लगना कहते थे Iकोई भी व्यक्ति जच्चा या बच्चा से नहीं मिल सकता था I यहां तक कि यदि महिला के मायके के परिवार से भी कोई आता था तो उन्हें चार-पांच घंटे तक अलग बिठाया जाता था अर्थात क्वॉरेंटाइन किया जाता था तत्पश्चात महिला के कमरे में भेजा जाता था I किसी भी सूतक वाले परिवार के घर से कोई अन्य सामग्री नहीं छुई जाती थी तथा क्वॉरेंटाइन के सभी नियमों का पालन किया जाता थाI 

फिर यह नियम कम होकर 10 दिन का हो गया उसके पश्चात ही घर का शुद्धिकरण किया जाता था अर्थात यझ के द्वारा घर को कीटाणुरहित सैनिटाइज किया जाता था तत्पश्चात सामान्य दिनचर्या आरंभ होती थी। इसी प्रकार जब किसी घर में किसी की मृत्यु हो जाती थी तो मृतक का सब सामान यहां तक कि चारपाई और बिस्तर तक जलाकर नष्ट कर दिया जाता था ताकि उसकी बीमारी के कीटाणु अन्यत्र न फैल सके I मृतक की शव यात्रा में भाग लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति को घर आकर स्नान करना पड़ता था तथा पहने हुए कपड़े तुरंत धोने पड़ते थेI इस व्यवस्था को और अधिक वैज्ञानिक रूप देने के लिए गांव से बाहर तालाब पर ही नहाने और कपड़े धोने की व्यवस्था की गई थी ताकि जो व्यक्ति शव यात्रा में गया वह संक्रमण रहित होकर अपने घर में प्रवेश करें इसके कुछ अंश भारतीय परंपराओं में आज भी दिखाई देते हैं।इस घर को भी क्वॉरेंटाइन कर दिया जाता था जिसे पातक लगना बोलते थे I उस घर कि किसी भी चीज को अलग रखा जाता था यहाँ तक कि उस घर का खाना भी पड़ोस याँ दूसरे घर से आता था I उस घर में रहने वाले भी उस घर का खाना नहीं खाते थे I उस का पातक तब ख़तम होता था जब यज्ञ द्वारा घर सैनिटाइज शुद्ध हो जाये I

घर की शुद्धि अर्थात सैनिटाइजेशन की संपूर्ण व्यवस्था निर्धारित की गई थी किसी घर में किसी की मृत्यु होने पर घर की साफ सफाई जरूरी थी तथा यज्ञ के द्वारा विभिन्न प्रकार की जड़ी बूटियों से कीटाणु नाशक यज्ञ करके तथा घर के प्रत्येक कोने में कीटाणु नाशक धूपबत्ती के द्वारा घर को सैनिटाइज किया जाता था इसके अतिरिक्त वर्ष में एक बार दिवाली पर समस्त घर को सैनिटाइज करने के लिए साफ सुथरा रंग रोगन से लीप पोत कर कीटाणु रहित किया जाता था इस को अनिवार्य रूप देने के लिए इसे दिवाली जैसे धार्मिक पर्व के साथ जोड़ दिया गया जिससे पठित और अपठित ज्ञानी और अज्ञानी दोनों के लिए घर को सैनिटाइज करना जरूरी हो गया था। हाथ धोना हमारी जीवन पद्धति का सबसे महत्वपूर्ण अंग था भारतीय जीवन पद्धति के अनुसार कोई भी कार्य हाथ धोए बिना नहीं किया जा सकता खाना खाने से पहले खाना खाने के बाद हाथ धोने का नियम सुनिश्चित था प्रत्येक प्रकार की पूजा अर्थात शुभ कर्म करने से पहले हाथ धोने का नियम था। मल मूत्र का त्याग करने के पश्चात हाथ धोने का नियम था चाहे दिन में कितनी बार भी व्यक्ति मल मूत्र त्याग करें उतनी बार ही हाथ धोने पड़ते थेI

यदि कोई व्यक्ति किसी बाहरी चीज या चमड़े से बनी हुई किसी वस्तु या अन्य अवांछित वस्तु का स्पर्श करता था तो उसके पश्चात हाथ धोना पढ़ता था इस प्रकार यदि इस नियम का विश्लेषण करें तो अनुभव होगा कि लगभग हर घंटे बाद हाथ धोने की व्यवस्था थी। घर से बाहर जूते निकालने की परंपरा भारत के प्रत्येक घर में थी कोई भी व्यक्ति बाहर से आकर जूतों सहित घर में प्रवेश नहीं कर सकता था जूते उतारने के पश्चात हाथ धोना ही नहीं पैर धोना भी जरूरी था Iप्रमाण के रूप में वर्तमान में भी पैर धुलाई की परंपरा एक धार्मिक परंपरा के रूप में कहीं कहीं दिखाई देती है। रसोईघर जहां से सब लोगों को भोजन मिलता था वह सबसे सेंसेटिव एरिया माना जाता था उसमें जूते पहन कर जाना तो दूर की बात जाने से पहले हाथ पैर धोना अनिवार्य था Iयह परंपरा उत्तर भारत में तो बहुत कम शेष है परंतु दक्षिण भारत में आज भी प्राय देखने में आती है Iआज भी हम मंदिर जैसी पवित्र जगह या घर में जिस जगह को हम पवित्र मानते हैं या पवित्र रखना चाहते हैं वहां जूते पहन कर जाना वर्जित होता है इस प्रकार के नियम वर्तमान करोना गाइडलाइन से भी ज्यादा शक्ति से पालन किए जाते थे भारतीय भोजन प्रोटीन विटामिन से भरपूर पोस्टिक भोजन होता था जिसमें हरी सब्जियां तथा वनस्पतियां प्रमुख होती थी मास मछली तथा शराब सेवन करने वालों की समाज में कोई जगह नहीं थी यदि कोई मांसाहारी भोजन करता था तो उन लोगों को गांव से बाहर बसाया जाता था। मांस मछली खाना तो दूर मांस मछली का काम करने वाले लोगों की बस्तियां अलग होती थी

अर्थात वे क्वॉरेंटाइन क्षेत्र में ही रह सकते थे यदि वे किसी गली से निकलते थे तो लोग उनसे 2 गज की दूरी बनाकर चलते थे और 2 गज दूर से ही बात करते थे अर्थात यह नारा कि दो गज की दूरी है बहुत जरूरी नया नहीं भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग हैI परंतु यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमने अपनी इन वैज्ञानिक परंपराओं को अपने अज्ञान के कारण पाखंड पूर्ण मानकर त्याग दिया तथा उस विदेशी संस्कृति को अपना लिया जहां शौच जाने के पश्चात भी हाथ धोने की परंपरा नहीं है I जब लोग घर तो दूर अपने आप को ही भली-भांति सैनिटाइज नहीं करेंगे और गंदगी से सने घूमेंगे तो अनेक प्रकार के कीटाणु पैदा करने की लबोंट्री बन जाएंगेI विदेशी रहन सहन, खानपान, मांस मदिरा के सेवन को जीवन का महत्वपूर्ण अंग बनाने वाले चाहे विदेश में हो या स्वदेश में हों उनका बीमार होना सुनिश्चित हैI इस प्रकार की गंदी प्रणाली का परिणाम महामारी होता हैI यह ठीक है कि भारत में इससे पहले भी महामारी फैलती थी परंतु ग्लोबलाइजेशन जैसीतथाकथित प्रगतिशील सोच ना होने के कारण वह महामारी एक क्षेत्र विशेष में ही हो कर समाप्त हो जाती थी तथा उक्त नियमों के स्वाभाविक पालन के कारण अन्यत्र प्रदेश में नहीं फ़ैल सकती थीI 

यह हमारा दुर्भाग्य है कि जिस विदेशी संस्कृति को हमने अपना पालक समझा आज उसी के परिणाम स्वरूप समस्त विश्व भारतीय संस्कृति को न जानने के कारण और हम जानते हुए भी छोड़ने के कारण आज बुरी तरह पीड़ित हैं I इसीलिए आज से 150 वर्ष पूर्व महर्षि दयानंद सरस्वती ने वेदो की ओर लोटो नारा दिया थाIउसी के आधार पर महात्मा गांधी ने स्वदेशी का शंखनाद किया जिसके आधार पर आज हमारे भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी स्वदेशी के द्वारा आत्मनिर्भर बनने का आह्वान कर रहे हैं Iवही प्रमाणिक और वैज्ञानिक संस्कृति मानव मात्र के लिए कल्याणकारी हैI अतः उक्त विवरण से स्पष्ट है कि हमारी संस्कृति हजारों वर्ष पहले उच्च कोटि के ऋषि मुनियों द्वारा शोध करने के बाद स्थापित सफल संस्कृति है जिसमें मानव मात्र को किसी भी महामारी से बचने की क्षमता है I जिसमे मानव मात्र को किसी भी महामारी से बचने कि क्षमता है I तो आओ अपनी भारतीय वैदिक संस्कृति को पुनर्जीवित कर अपने जीवन को निरोग और स्वस्थ बनाएं यदि हमने प्रकृति के इस संकेत को आज भी नहीं समझा तो यह उक्ति सत्य चरितार्थ होगी।

“ना समझोगे तो मिट जाओगे ए हिंदुस्ता वालों
तुम्हारी दास्तांतक भी न होगी दास्तानों में।।“

(डॉ, धर्मदेव विद्यार्थी)


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Author

Riya bawa

Recommended News