'एक वृक्ष की आत्मकथा'

punjabkesari.in Thursday, Sep 26, 2019 - 02:15 PM (IST)


'एक वृक्ष की आत्मकथा'
--------------------------
देखे मौसम, देखी सदियाँ,
मैं मूलों से ही जुड़ा रहा।
नभ अंचल में उड़ते पँछी,
मैं वृक्ष वहीं था खड़ा रहा।

ऋतुओं का प्रकोप झेला,
जेठ की दुपहरिया झेली।
तड़ित प्रहार, ओला वृष्टि,
चिरकाल से पीड़ा झेली।

झेला मैंने घोर एकाकीपन
सहा कुठार का आघात।
मूक-विवश मैं जन्मजात
ना रोक सका कोई त्रास।

मुझे काटने में दिन सारा बिताया
खूब पसीना था उसे भी आया।
टुकड़े भी गिरते देखे थे खुद के ,
विकल्प न था, मैं भाग न पाया।

फलों का मौसम आना था पर,
वो नव पल्लव अब सिकुड़ गए।
टूटी टहनियाँ और बिखरे पत्ते,
रिस-रिस प्राण मेरे उजड़ गए।

जिन पथिकों को छांव दिया,
उन सबने भी मुझे मरोड़ा था।
सड़कें बड़ी बनानी थी सो,
मैं खड़ा बीच रास्ते रोड़ा था।

वहीं कहीं घोंसले अपने ढूंढने,
शाम को चिड़ियां आयी थी।
सौंप के गयी थी नन्हें बच्चे,
पर देख दृश्य अकुलाई थी।

अथक परिश्रम से उसने,
तिनका-तिनका जोड़ा था।
अपना छोटा-सा परिवार,
उसने मेरे भरोसे छोड़ा था।

भूखों को फल भी देता था,
मैं ज़हर शहर का चखता था।
हँसते-खेलते बच्चों को मैं,
बस यूँ ही तकता रहता था।

किसे सुनाऊँ मैं अपनी पीड़ा,
क्या यह हत्या अपराध नहीं?
कोई लड़ने भी ना आया क्यूं,
असहाय का वध पाप नहीं?

दानवों की इस धरती में,
मानवता का ज़ोर कहाँ था?
सबको मैंने साँसे बाँटी पर
मेरी साँसों का मोल कहाँ था...

 जया पाण्डेय 'अन्जानी'
 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Tanuja

Recommended News