कम्बल विक्रेता बुलबुल राय कैंसर के मरीजों के लिए ‘मसीहा’ बनी

punjabkesari.in Thursday, Jan 25, 2018 - 04:15 AM (IST)

38 वर्षीय बुलबुल राय अपने पति के साथ फुटपाथ पर कम्बलों की दुकान चलाती थी। यह दुकान मुम्बई के परेल इलाके में स्थित प्रसिद्ध टाटा मैमोरियल अस्पताल के बिल्कुल नजदीक है। उसके द्वारा बेचे जाने वाले कम्बल जितनी गर्माहट देते हैं, उसका व्यवहार और भाषा भी उससे कम स्निग्धतापूर्ण नहीं। 

वह इस अस्पताल में इलाज करवाने के लिए आए कैंसर मरीजों की सहायता करने के लिए बहुत प्रयास करती है। किसी को मुफ्त कम्बल देती है और किसी को महानगर में आवासीय सुविधाओं के बारे में जानकारी। कई लोगों की जरूरत पडऩे पर वित्तीय सहायता भी करती है। कई मरीजों के मामले में भाषा की समस्या आती है तो वह खुद उनके साथ जाकर डाक्टरों से बातचीत करती है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह इन मरीजों की काऊंसलिंग भी करती है। 

बेशक उसके पास कोई अकादमिक योग्यता नहीं तो भी वह एक काऊंसलर की भूमिका अदा करती है और इसके लिए प्रमाण पत्र उसे किसी अन्य ने नहीं बल्कि उन बीसियों रोगियों ने दिया है जिन्हें उसने इस रोग से लडऩे की प्रेरणा दी। मूल रूप में कोलकाता से संबंधित बुलबुल को खुद इसी तरह की अग्निपरीक्षा में से तब गुजरना पड़ा था जब कैंसर ने उसके पिता की जान ले ली थी। तब वह मात्र 10 वर्ष की बच्ची थी। इसके कुछ ही महीने बाद उसकी माता भी मृत्यु की शिकार हो गई तो उसके मामा ने अपने बच्चों के साथ ही उसका पालन-पोषण किया। 

रतन राय के साथ शादी के बाद बुलबुल 2003 में मुम्बई आ गई। सौभाग्यवश रतन राय टाटा मैमोरियल अस्पताल के समीप कम्बल बेचा करते  थे। जब बुलबुल ने बाहरी इलाकों से आने वाले मरीजों को देखा कि वे एक अनजाने शहर में कितने असहाय होते हैं तो वह उनकी सहायता के लिए आगे आई। उसने देखा कि दूरदराज के इलाकों से आने वाले मरीजों को डाक्टरों के साथ बातचीत करने में दिक्कत आती है तो 2006 में उसने सबसे पहले 20 वर्षीय युवा मरीज की सहायता की। बुलबुल ने उसके लिए न केवल रहने की व्यवस्था की बल्कि उसकी काउंसिंगभी की। 

समय पाकर यह मरीज बीमारी पर विजय हासिल करने में सफल हुआ और एक प्राइवेट कम्पनी के लिए काम करता है। उसकी शादी हो गई है और उसका एक बच्चा भी है लेकिन अभी भी वह बुलबुल से मिलने आता है और उसके द्वारा की गई सहायता के लिए उसका धन्यवाद करना नहीं भूलता। बुलबुल ने बताया कि इस लड़के की सहायता करने के बाद उसने अन्य कई कैंसर मरीजों की सहायता करने का फैसला लिया है। इन मरीजों में से अधिकतर कड़ाके की ठंड में सड़कों पर ही रात काटते थे। उसने  उन्हें मुफ्त कम्बल दिए। बुलबुल का कहना है कि वे अपना पैसा कभी भी फिजूल खर्च नहीं करते और इस प्रकार बचे हुए पैसों से इन जरूरतमंद मरीजों की सहायता करते हैं। यहां तक कि उसकी 10 वर्षीय बेटी भी उन मरीजों के लिए प्रार्थना करती है। 

उसके पति ने बताया कि कभी-कभार वह रात को जब सो नहीं पाती तो वह मरीजों का पता लेने चली जाती है और वह कभी भी उसे ऐसा करने से रोकते नहीं। खास तौर पर बंगाल और पूर्वी भारत से आने वाले मरीजों के लिए वह सचमुच मसीहा सिद्ध हुई है क्योंकि इन मरीजों को स्थानीय भाषा नहीं आती।-राजू शिंदे एवं एम. लता


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