भारतीय राष्ट्रवाद की विशिष्टता
punjabkesari.in Saturday, Nov 25, 2017 - 12:32 PM (IST)
दो-दो विश्वयुद्धों की विभीषिका के काफी पहले सत्रहवीं शताब्दी में यूरोप ने लगातार चलने वाले तीस वर्ष के युद्ध से जूझता रहा। जर्मनी के वेस्टफेलिया क्षेत्र में आखिरकार एक शांति-संधि की गयी, जिसमें सभी पक्षों ने एक दूसरे की सीमाओं का आदर करने और आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का संकल्प लिया। अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की विश्व राजनीति इस क्षण से हमेशा के लिए बदल गयी। किसी राष्ट्र-राज्य के संप्रभु होने की अवधारणा का भी विकास हुआ और साथ ही ज्यों ज्यों यूरोप में साम्राज्यवाद के फलस्वरूप सम्पन्नता आती गयी अपने ही क्षेत्रीय-सांस्कृतिक पहचान को राष्ट्रीय पहचान में तब्दील कर उसे महानता का स्तर देकर राष्ट्रवाद की संकल्पना उपजती गयी।
इस उत्कट राष्ट्रवाद ने यूरोप को प्रगति तो दी पर आगे चलकर विश्वयुद्धों का अविस्मरणीय दंश भी दिया। उपनिवेशवाद के जवाब के फलस्वरूप उत्तर-औपनिवेशिक प्रयासों के तहत भारत जैसे राष्ट्रों ने भी राष्ट्रवाद की संकल्पना को अपनाकर सम्पूर्ण देश की विविधता के विखंडन को रोकने की कोशिश की। स्पेन के कैटेलोनिया सहित यूरोप में दो दर्जन से अधिक छोटे-बड़े क्षेत्र स्वतन्त्र राष्ट्र बन जाने का स्वप्न देख रहे हैं।
ऐसे में भारत जो विभाजन के बाद बचे हिस्सों के साथ पाँच सौ से अधिक रियासतों के विलय पश्चात् स्वतंत्र भारत के वर्तमान स्वरुप में आया, अलगाववादी आंदोलन के उदाहरण सचमुच बेहद कम हैं और राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया को समय के साथ और भी मजबूती मिलती जा रही है। एक राष्ट्र के तौर पर महज सत्तर सालों में ही भारत की यह बेहद उल्लेखनीय उपलब्धि है। भारत में भानमती के कुनबे बहुत है । ये इसकी खूबसूरती है, पहचान भी और है इसकी मजबूती भी । अपने देश में जाने कितने देश बसते हैं । तरह-तरह के लोग, तरह-तरह की आदतें, रस्में तरह-तरह की और तहजीबें तरह-तरह की । तरह-तरह के पकवान, तरह-तरह के परिधान, तरह-तरह की बोलियाँ और तरह-तरह के त्यौहार ।
अपना देश तो त्योहारों का देश है और भारत देश है मेलों का भी । हमारे यहाँ मंडी तो नहीं पर मेलों की रिवायत रही है । कोस-कोस पे पानी का स्वाद बदलता है और तीन-चार कोस पे बोली बदल जाती है और तकरीबन हर पंद्रह-बीस कोस बाद भारत में कोई न कोई मेले का रिवाज मिल जायेगा ।प्रसिद्द मेलों की बड़ी लम्बी फेहरिश्त है और कमोबेश पूरे भारत में है यह । मेले जो कभी हर महीने लगते हैं, कुछ बड़े मौसम-परिवर्तन पर लगते हैं और कुछ साल के अंतराल पर लगते हैं ।
इन सतरंगी मेलों में भांति-भांति के लोग एक-दूसरे से मिलते हैं, एक-दूसरे की खासियतें समझते हैं, जरूरतें साझा करते हैं, रिश्ते बनते हैं, नाटक, खेल देखते हैं, इसप्रकार मेले दरअसल स्थानीयता का उत्सव होते हैं । त्योहारों का भी मूलभूत दर्शन उत्सव ही है । कभी प्रकृति-परिवर्तन का उत्सव है, कभी संबंधों का उत्सव है, कभी फसल पकने का उत्सव है तो कभी आस्था का उत्सव है । आस-पास की प्रत्येक वस्तु की महत्ता समझना, हो रहे हर परिवर्तन का स्वागत करना सिखलाते हैं ये उत्सव, ये त्यौहार ।
भारत का राष्ट्रवाद, पश्चिमी राष्ट्रवाद से मूलतः भिन्न है । पश्चिमी राष्ट्रवाद के हिसाब से चलते तो इस देश के जाने कितने विभाजन सहसा ही हो जाते और यकीन मानिए लोकतंत्र की राह को अपनाने वाला भारत लोकतंत्र के अंतर्गत आने वाले ‘आत्मनिर्णयन के अधिकार की वज़ह से उन्हें शायद ना रोक पाता ना नाज़ायज ही ठहरा पाता..! पर स्वतंत्रता-संघर्ष के जमाने से ही लड़ते-भिड़ते हमारे युगनायकों ने भविष्य के भारत की यह तस्वीर भांप ली थी और उन्होंने राष्ट्रवाद के भारतीय संस्करण के मूलभूत मायने ही बदल दिए । भारतीय राष्ट्रवाद ‘अनेकता में एकता’ के सिद्धांत पर चलता है । यह हेट्रोजेनेयटी (विभिन्नता-विविधता) का आदर करता है जबकि पश्चिमी राष्ट्रवाद होमोजेनेयटी (समुत्पन्नता-समरूपता) पर आधारित है। हमारे देश के राष्ट्रवाद की करारी नींव में जो इटें जमी हैं वे सतरंगी हैं, वे एक रंग की नहीं हैं । इसलिए जैसे ही और जिस मात्रा में हम साम्प्रदायिक होते हैं, उतनी ही मात्रा में हम राष्ट्रवादी नहीं रह जाते ।
आँख मूंदकर हम पश्चिमी राष्ट्रों से तुलना करते हैं और उनके राष्ट्रवाद के मानकों से हम अपने सतरंगी समाज के बाशिंदों को चाहते हैं एक ही रंग में रंगना, यहीं चूक होती है । भानमती के भिन्न-भिन्न कुनबों से भारत एक राष्ट्र बन सका है तो राष्ट्रवाद की स्वदेशी संकल्पना से ही । राष्ट्रवाद की यह स्वदेशी संकल्पना ‘अनेकता में एकता’ की चाशनी में भीगी-पगी है और आधुनिक राष्ट्रवाद के मानकों को भी संतुष्ट करती है । समझने की जरुरत है कि –भारत की एकता, ‘एक-जैसे’ होने से नहीं हैं बल्कि भारत की एकता, अनेकताओं की मोतियों को एक सूत्र में जोड़ने वाली भारतीय राष्ट्रप्रेम से उर्जा पाती है और निखरती जाती है ।
जिस क्षण से हमने भारत की विविधता को मान देना समाप्त किया, हमारा राष्ट्रीय कलेवर, सारा ताना-बाना बिखर जायेगा । चर्चिल जैसे लोग हमारे राष्ट्रवाद में अन्तर्निहित कमजोरी देखते थे, मजाक उड़ाते थे, कहते थे-आजादी के पंद्रह साल भीतर ही यह कुनबा बिखर जाएगा, हमने उन्हें गलत साबित किया; हमने जता दिया कि पश्चिमी राष्ट्रवाद जिसकी विश्व कवि रवीन्द्र खुलकर आलोचना करते थे, उस राष्ट्रवाद से विश्वयुद्ध उपजते हैं, यूरोप में छोटे-बड़े कई विभाजन होते हैं, कई छोटे राष्ट्र उभरते हैं, पर भारतीय राष्ट्रवाद से अलग-अलग, तरह-तरह के लोग भी साथ मिलजुलकर उसकी अस्मिता अक्षुण्ण रखते हैं ।
भारतीय राष्ट्रवाद सफल हो सका, अपनी परम्पराओं को निभाने की जीवटता से । अलग-अलग धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, नृजाति, प्रजाति, समुदाय, खान-पान होने के बावजूद सभी लोग उत्साह से सभी के त्योहारों में शामिल होते हैं । सभी उत्सव
धूमधाम से मनाये जाते हैं । सरकारें भी इन त्योहारों को मनाती हैं और अपना समसामयिक सहयोग देती हैं । फिर समय-समय पर जगह-जगह आयोजित मेले, पारस्परिक मेलजोल का खूब मौका देते है । भारतीय रेल ने भारतीय राष्ट्रवाद के सफ़र में निर्णायक अप्रतिम योगदान दिया है और यह जारी है ।
ऐसे समय में जब राष्ट्रवाद की जननी यूरोप स्वयं में राष्ट्रवाद की अपनी सैंद्धांतिक कमी का नुकसान उठाने की रह पर है, भारतीय राष्ट्रवाद की इस विविधता में एकता की खूबी को समझकर हमें उसे सराहने और अपनाने की आवश्यकता है। यह एक विशिष्ट उपलब्धि है हमारे पास जिसे हमारे स्वतंत्रता-संघर्ष के नायकों ने प्रदान किया और भारतीय जनों ने मिलकर उसे निभाया है। ऐसी कोई भी कोशिश जो भारत की विविधता पर अंकुश लगाती है, उसका विरोध एकस्वर में समवेत देना होगा। लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।
डॉ.श्रीश पाठक