क्यों प्रिय है भगवान शिव को बिल्व पत्र ?

punjabkesari.in Monday, Mar 04, 2019 - 02:07 PM (IST)

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हिंदू धर्म में भगवान शिव को देवों के देव महादेव भी कहा जाता है। आज महाशिवरात्रि के पावन पर्व पर महादेव की सच्चे मन से अराधना करने पर सारी मनोकामनाएं पूरी होती है। आज के दिन भोलेनाथ का अभिषेक बहुत सी चीज़ों से किया जाता है। जैसे भांग, धतूरे, फल, फूल और बिल्व पत्र इत्यादि। ऐसा माना जाता है कि भगवान शंकर की पूजा बिल्व पत्र के बिना अधूरी होती है। शास्त्रों में माना गया है कि बिल्व पत्र भगवान को अति प्रिय है। तो आज हम आपको इसी बिल्व पत्र से जुड़ी एक ऐसी कथा के बारे में बताने जा रहे हैं जो शायद ही किसी को पता होगी। 
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एक पौराणिक कथा के अनुसार नारद जी ने एक बार भोलेनाथ की स्तुति की और पूछा कि प्रभु! आपको प्रसन्न करने के लिए सबसे आसान साधन क्या है? अर्थात आपको क्या प्रिय है?

नारद की बात सुनकर शिव जी बोले नारद! वैसे तो मुझे भक्त के भाव सबसे प्रिय हैं, फिर भी आपने पूछा है तो बताता हूं। मुझे जल के साथ-साथ बिल्वपत्र बहुत प्रिय है। जो भी भक्त अखंड बिल्व पत्र मुझे श्रद्धा से अर्पित करते हैं, मैं उन्हें अपने लोक में स्थान देता हूं।
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ये बात सुनकर नारद जी अपने लोक को चले गए। लेकिन उनके जाने के बाद माता पार्वती ने भगवान से पूछा कि प्रभु! मेरी यह जानने की बड़ी इच्छा हो रही है कि आपको बिल्व पत्र इतने प्रिय क्यों है? कृपा करके मेरी जिज्ञासा शांत करें।

इस पर भगवान ने कहा कि बिल्व के पत्ते मेरी जटा के समान हैं। उसका त्रिपत्र यानि 3 पत्ते ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद हैं और उसकी शाखाएं समस्त शास्त्र का स्वरूप हैं। मनुष्य को बिल्ववृक्ष को पृथ्वी का कल्पवृक्ष समझना चाहिए। जोकि ब्रह्मा, विष्णु, शिव स्वरूप हैं। स्वयं महालक्ष्मी ने शैल पर्वत पर बिल्ववृक्ष रूप में जन्म लिया था। भगवान के मुख से ऐसी बात सुनकर पार्वती जी सोच में पड़ गईं कि माता लक्ष्मी ने आखिर बिल्ववृक्ष का रूप क्यों लिया? 
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माता पार्वती को इस तरह दुविधा और आश्चर्य में देखकर भगवान ने कहा कि देवी! सतयुग में ज्योतिरूप में मेरे अंश का रामेश्वर लिंग था। ब्रह्मा आदि देवों ने उसका विधिवत पूजन-अर्चन किया था, फलत: मेरे अनुग्रह से वाग्देवी सबकी प्रिया हो गईं। वे भगवान विष्णु को सतत प्रिय हो गईं। मेरे प्रभाव से भगवान केशव के मन में वाग्देवी के लिए जितनी प्रीति हुई वह स्वयं लक्ष्मी को नहीं पंसद आई। अत: लक्ष्मी देवी चिंतित और रुष्ट होकर परम उत्तम श्री शैल पर्वत पर चली गईं। वहां उन्होंने मेरे लिंग विग्रह की उग्र तपस्या करनी शुरु कर दी।
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तपस्या के कुछ समय बाद महालक्ष्मी ने मेरे लिंग विग्रह से थोड़ा ऊर्ध्व में एक वृक्ष का रूप धारण कर लिया और अपने पत्र-पुष्प द्वारा निरंतर मेरा पूजन करने लगीं। इस तरह उन्होंने कोटि वर्ष यानि 1 करोड़ वर्षों तक आराधना की और अंतत: में उन्हें मेरा अनुग्रह प्राप्त हुआ। वरदान के रूप में महालक्ष्मी ने मांगा कि श्रीहरि के हृदय में मेरे प्रभाव से वाग्देवी के लिए जो स्नेह हुआ है, वह समाप्त हो जाए। तब भगवान शिव ने देवी लक्ष्मी को समझाया कि श्रीहरि के हृदय में आपके अतिरिक्त किसी और के लिए कोई प्रेम नहीं है। वाग्देवी के प्रति तो उनकी केवल श्रद्धा है। यह सुनकर लक्ष्मी जी बहुत प्रसन्न हो गईं और पुन: श्रीविष्णु के हृदय में स्थित होकर निरंतर उनके साथ विहार करने लगीं।
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हे पार्वती! महालक्ष्मी के हृदय का एक बड़ा विकार इस प्रकार दूर हुआ था। इस कारण हरिप्रिया उसी वृक्षरूप में सर्वदा अतिशय भक्ति से भरकर यत्नपूर्वक मेरी पूजा करने लगीं। बिल्व इस कारण मुझे बहुत प्रिय है और मैं बिल्ववृक्ष का आश्रय लेकर रहता हूं। बिल्व वृक्ष को सदा सर्व तीर्थमय एवं सर्व देवमय मानना चाहिए। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। जो भी भक्त बिल्वपत्र, बिल्व फूल, बिल्व वृक्ष और बिल्व काष्ठ के चंदन से मेरा पूजन करता है, वह भक्त मुझे अति प्रिय है। 
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