घाटे में चल रहे सार्वजनिक उद्यम ‘विनिवेश’ ही संकट का समाधान

punjabkesari.in Thursday, Jan 17, 2019 - 05:09 AM (IST)

भारत सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों (पी.एस.यूज) के रणनीतिक विनिवेश कार्यक्रम को फिर से शुरू करने का फरवरी 2016 में लिया गया निर्णय, वाजपेयी सरकार द्वारा ऐसी इकाई का निजीकरण करने के 13 वर्षों बाद, एक दूरगामी कदम था। लेकिन लगभग 3 वर्ष बीतने को हैं, भारत के ऐसे लगभग 250 पी.एस.यूज में से एक को भी सरकारी स्वामित्व के बाहर स्थानांतरित नहीं किया गया है। 

एक ऐसी सरकार, जो अपनी घोषणाओं के कार्यान्वयन पर बहुत अधिक जोर देती है, के लिए यह हैरानीजनक है कि रणनीतिक विनिवेश के लिए कैबिनेट द्वारा स्वीकृत लगभग 25 पी.एस.यूज में से एक को भी बेचा नहीं गया। जहां ‘रणनीतिक विनिवेश’ हुआ भी है वह एक अन्य पी.एस.यू. द्वारा अधिकार लेने के रूप में हुआ है (एच.पी.सी.एल. का ओ.एन.जी.सी. द्वारा) या किसी अन्य सरकारी ईकाई द्वारा (ड्रैजिंग कार्पोरेशन ऑफ इंडिया का पोर्ट्स ट्रस्ट द्वारा)। जहां ऐसी बिक्री भारत सरकार को अपने बजटीय लक्ष्य हासिल करने में मदद करती है, हालांकि इसमें भी हम पिछड़ रहे हैं, फिर भी प्रश्र के घेरे में आए ऐसे उद्यमों की कुशलता बढ़ाने के लिए कुछ नहीं किया जा रहा। यदि भारत सरकार वास्तव में ऐसी इकाइयों से बाहर होने के प्रति गम्भीर है तो एक नया दृष्टिकोण जरूरी है। 

विनिवेश असफल क्यों हुआ
क्यों वास्तविक रणनीतिक विनिवेश असफल हुआ? शुरूआत करने वालों में इसके उद्देश्यों को लेकर स्पष्टता का अभाव है। क्या यह सरकार के लिए गैर-कर राजस्व बढ़ाने के लिए है या न केवल पी.एस.यूज में बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था में भी बड़ी कार्यकुशलता लाने के बारे में है? एक सफल कार्यक्रम के लिए अर्थव्यवस्था एक आवश्यक प्रेरणादायक कारक होना चाहिए जबकि गैर-कर राजस्व एक सकारात्मक बाई-प्रोडक्ट है। इसके अतिरिक्त भाजपा नीत राजग सरकार द्वारा 1999 तथा 2003 के बीच किए गए 12 रणनीतिक विनिवेशों को लटकाने का भी अनुभव है। विडम्बना देखिए कि जहां वे कम्पनियां (तथा होटल), जिनका निजीकरण किया गया था, बाद में अत्यंत सफल रही हैं, वहीं नौकरशाहों द्वारा सीखे गए सबक बिल्कुल भिन्न हैं, प्रश्रचिन्ह तथा पूछताछ, जो उन विनिवेशों के संबंध में उठाए गए।

असल से कम कीमत पर बेचने का डर
इसमें वास्तविक डर कोई सम्पत्ति किसी निजी पार्टी को असल से कम कीमत पर बेचने का है। सामान्यत: यह ङ्क्षचता नहीं होनी चाहिए। प्रतिस्पर्धात्मक निविदाएं उचित कीमत की खोज के सक्षम बनाती हैं, जैसा कि प्राकृतिक स्रोतों के मामले में किया जा रहा है। हालांकि घाटे में चल रहे लगभग 80 पी.एस.यूज तथा अन्य के मामले में सम्पत्ति की कीमत आम तौर पर उद्यम की कीमत से कहीं अधिक होती है। ऐसे मामलों में कीमत खोजने की समस्या होती है। इसका एक रास्ता उस जमीन को बेचना है जिस पर कोई कार्य संचालन नहीं हो रहा। मगर फिर निवेशक के लिए पी.एस.यू. का आकर्षण कम हो जाता है। एक दूरगामी सोच वाला खरीदार अपनी गतिविधियों को फैलाने के लिए अतिरिक्त जमीन का इस्तेमाल करना चाहेगा जबकि एक विक्रेता शीघ्र धन बनाने के लिए इसे प्रीमियम पर बेचना चाहेगा। 

समस्या का समाधान
इस समस्या का समाधान प्रत्येक लाभकारी पी.एस.यू. को शेयर बाजार में सूचीबद्ध करके किया जा सकता है। यद्यपि सम्पत्ति को मूल्य से कम कीमत पर बेचने की (गलत) अवधारणा बनी रहेगी विशेषकर जब पी.एस.यू. के शेयर की कीमत सरकारी स्वामित्व तथा नियंत्रण से निकलने के बाद तेजी से बढ़ेगी। कोई भी निजीकरण अथवा रणनीतिक विनिवेश जो किसी निजी व्यावसायिक घराने को स्वामित्व स्थानांतरित करता है, निश्चित रूप से पक्षपात के आरोपों का शिकार बनेगा, चाहे इसके लिए प्रतिस्पर्धात्मक निविदा ही की गई हो। 

मगर एक वैकल्पिक रास्ता है। सभी लाभकारी पी.एस.यूज को शेयर बाजार में सूचीबद्ध करने के बाद सरकार को इन पी.एस.यूज में अपनी हिस्सेदारी आवश्यक तौर पर 49 प्रतिशत तक घटा देनी चाहिए। यह सुनिश्चित करने के लिए कि कोई एक उद्यमी कम्पनी का नियंत्रण न सम्भाले, सरकार विनिवेश की गई इकाई को व्यापक रूप से छितरा सकती है और एक सीमा निश्चित कर सकती है जैसे कि अधिकतम 10 प्रतिशत, जिसे कोई भी व्यक्ति अथवा व्यावसायिक इकाई अधिग्रहित कर सके। इससे कम्पनी का एक स्वतंत्र बोर्ड तथा प्रोफैशनल मैनेजमैंट द्वारा प्रबंधन किया जा सकेगा। 

खामियां दूर की जाएं
पी.एस.यूज की कुछ जानी-मानी खामियों-मूल मंत्रालयों के माध्यम से निर्णय लेने की लम्बी प्रक्रियाएं, केन्द्रीय सतर्कता आयोग (सी.वी.सी.) की गिद्द आंखें, केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सी.बी.आई.) तथा नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) आदि को दूर करना होगा। और फिर भी भारत सरकार सबसे बड़ी अकेली शेयर हिस्सेदार बनी रह सकती है तथा बोर्ड में बने रहते हुए ‘बिकाऊ नहीं’ की अवधारणा को बनाए रख सकती है। एक बार जब कम्पनी अधिक कुशल बन जाए तो सरकार धीरे-धीरे इसमें अपनी हिस्सेदारी कम कर सकती है, किसी भी शेयर होल्डर पर अधिकतम हिस्सेदारी की सीमा बनाए रखते हुए।

निजीकरण अपने आप में अंत नहीं है। इसका उद्देश्य पी.एस.यूज तथा उन बाजारों में कुशलता सुनिश्चित करना है, जिनमें वे संचालित हैं। सरकार के इरादे सही हैं लेकिन शोरपूर्ण राजनीतिक अर्थव्यवस्था की सच्चाइयों को समाहित करने के लिए इसे बेहतर तरीकों की जरूरत है। प्रोमोटर्स की बजाय स्वतंत्र बोड्स के स्वामित्व तथा प्रबंधन वाली कम्पनियों का एक वर्ग बना कर सरकार भारत में पूंजीवाद के विकास में बड़ा योगदान डाल सकती है।-डी. नैय्यर


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