राम मंदिर को लेकर सुप्रीम कोर्ट पर दबाव क्यों

punjabkesari.in Tuesday, Jan 15, 2019 - 03:51 AM (IST)

मुहावरा है कि डायन भी एक घर छोड़ देती है लेकिन आज की राजनीति वह घर भी नहीं बख्शा करती। लिहाजा सुप्रीम कोर्ट पर यह दबाव है कि अयोध्या विवाद पर जल्दी फैसला दे। अदालत के खिलाफ, जजों के खिलाफ  तख्ती लगाए लोग सड़कों पर खड़े हैं। 

गेरुआ पहने ‘संत’ टी.वी. चैनलों पर अपने बयान में देश की सबसे बड़ी कोर्ट की गरिमा को खंडित करने का हर प्रयास कर रहे हैं। मीडिया का एक भाग भी ‘नो-होल्ड्स-बार्ड’ (दंगल जीतने के लिए कोई भी पकड़ चलेगा) के स्तर तक यानी अदालत की अवमानना की हर सीमा पार करने में लगा है। क्या रोजी-रोटी के लिए संघर्ष कर रही आम जनता या आसमान में मेघ की बाट जोहते किसान के लिए यही सर्वाधिक प्राथमिकता का विषय है? और अगर है तो मंडी में प्याज की कीमत जमीन पर आने से वह कीटनाशक खाकर क्यों मौत को गले लगा लेता है? 

केन्द्र में अचानक जब चुनाव में केवल 3 महीने ही रह जाते हैं और जब तीन बड़े राज्यों के चुनाव में हार मिलती है तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को गरीब सवर्णों की याद आती है। गरीब, वह दलित हो, बैकवर्ड हो या सवर्ण हो, उसकी तर्क-शक्ति पर अक्सर भावना बलवती हो जाती है क्योंकि वह गरीब है तो अशिक्षित भी है, अतार्किक भी है और भावुकतापूर्ण भी। नतीजतन, इस बिल के लोकसभा में पारित होने के अगले दिन ही प्रधानमंत्री ने आगरा की एक जनसभा में कहा, ‘मैं जब गुजरात का मुख्यमंत्री था तब से मेरी प्रबल इच्छा थी कि हमारे आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए ऐसा कानून बने। जब मैं प्रधानमंत्री बना तब जा कर मेरी यह इच्छा पूरी हुई’। किसी ने नहीं पूछा कि इतने बड़े सपने का न तो पिछले यानी 2014 के चुनाव में जिक्र किया, न इन 4 साल 9 महीने के शासन काल में? क्यों लगा इतना वक्त? 

इतना बड़ा सपना
इतना बड़ा सपना तो पार्टी के घोषणा-पत्र का प्रमुख बिंदू होना चाहिए था। फिर लगभग 1700 दिनों के कार्यकाल में कभी भी इन आर्थिक गरीबों को आरक्षण देने पर कोई चर्चा नहीं। खैर, सपने व्यक्तिगत होते हैं, दूसरों को नहीं बताने चाहिएं जब तक कि पूरे न हों। लेकिन देरी क्यों? अगर 2014 में ही यह सपना अमल में आ जाता तो कितने लाख आर्थिक गरीब (सवर्ण लिखने में छोटी-सी टैक्निकल प्रॉब्लम है) आज सरकारी ओहदों पर होते। क्या हाल में दोनों सदनों में सत्तापक्ष की संख्या में कुछ इजाफा हुआ है? सच तो यह है कि कुछ सहयोगी दल कम ही हुए हैं और राज्यसभा में भी कमोबेश अपेक्षित संख्या बगैर विपक्ष के समर्थन के तब भी हासिल नहीं होती और आज भी नहीं होती। 

क्या वजह है कि सभी धार्मिक-सामाजिक संगठन अचानक तत्काल मंदिर बनाने के लिए दबाव बनाने लगे हैं? ‘मंदिर नहीं तो वोट नहीं’ नारा लग रहा है। यह दबाव दरअसल प्रधानमंत्री पर कम है अदालत पर ज्यादा। प्रधानमंत्री ने तो हाल ही में एक इंटरव्यू में साफ कर दिया कि अदालत के फैसले का इंतजार रहेगा और तब तक अध्यादेश नहीं आएगा। लिहाजा जन-आक्रोश को अदालत की ओर मोड़ दिया गया। कक्षा 10 का सामान्य-ज्ञान वाला छात्र भी बता सकता है कि चुनाव के ठीक पहले इस दबाव का  सत्ताधारी गठबंधन को क्या राजनीतिक लाभ मिल सकता है।

अगर फैसला हिन्दुओं के यानी ‘राम लला विराजमान’ और निर्मोही अखाड़ा के पक्ष में जाता है तो कल से भावना का एक और हैवी डोज देते हुए हर हिंदू घर से ‘एक-एक पवित्र ईंट’ ‘भव्य मंदिर’ के निर्माण के लिए मंगवाने का अभियान शुरू कर दिया जाएगा। जाहिर है ‘जो बहन जी या भाई साहेब’ ईंट देंगे वे वोट किसी और को तो नहीं ही देंगे। और अगर यह फैसला मुसलमानों के हक में गया तब तो कुछ कहने की जरूरत ही नहीं है। यानी दोनों हाथों में लड्डू। चित्त भी मेरी और पट्ट भी मेरी’। 

अदालत का नैतिक दायित्व
देश की सबसे बड़ी अदालत का यह नैतिक दायित्व है कि वह किसी भी जन-दबाव के आगे न झुके क्योंकि अदालत के लिए सत्य का तराजू वह नहीं होता जो संसद में वोट के जरिए संख्यात्मक बहुमत हासिल कर सत्ता पाने के लिए होता है। अगर किसी फैसले के मात्र 3 माह पहले देने से किसी एक पक्ष को लाभ मिल रहा है तो इतिहास अदालत को गलत ठहराएगा क्योंकि फैसला 3 महीने पहले या बाद में देने पर किसी पहाड़ का गिरना या न गिरना निर्भर नहीं करता। 

इस विवाद पर अदालती सुनवाई 133 साल पुरानी है जब पहला वाद रघुबर दास ने पूजा-अर्चना के लिए दायर किया था। सब-जज, अयोध्या के फैसले को बहाल करते हुए जिला जज एफ.ई.ए. शैमिअर ने कहा था ‘यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक मस्जिद उस जमीन पर बनी है जिसे हिन्दू विशेष रूप से पवित्र स्थल मानता है लेकिन चूंकि यह घटना 356 साल पुरानी है इसलिए इस गलती को सुधारने में बहुत देर हो चुकी है’। 

स्वतंत्र भारत में भी इस विवाद के विभिन्न अदालतों में लंबित होने का इतिहास 70 साल पुराना है। 10 साल पहले, जब इलाहाबाद हाई कोर्ट ने फैसला सुनाया, जिसके तहत तीनों पक्षों-रामलला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ  बोर्ड के बीच विवादित जमीन का बराबर हिस्सा बांटा गया तो सभी पक्ष सुप्रीम कोर्ट पहुंचे। इन 10 सालों में कभी कोई बड़ी मांग जल्द फैसला देने की नहीं हुई। यहां तक कि पिछले 4 साल 9 महीने में भी नहीं। लेकिन शायद सत्ताधारी वर्ग यह जानता है कि भारत में भावना आज भी तर्क पर भारी पड़ती है। राजनीति -शास्त्र का सिद्धांत भी कहता है कि अद्र्ध-शिक्षित समाज में संवैधानिक-ताॢकक सोच पर अक्सर भावना भारी पड़ जाती है। 

समझने में गलती
लेकिन शायद यहां जनमत और उसके वोट में तबदील होने की गति, समय और सीमा को भारतीय जनता पार्टी समझने में गलती कर रही है। विश्वनाथ प्रताप सिंह मंडल कमीशन की 10 साल पुरानी रिपोर्ट दबी फाइलों से निकाल कर लाए और लागू किया। उन्हें उम्मीद थी कि देश का 50 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग इस अप्रत्याशित लाभ (सरकारी नौकरियों में आरक्षण) से प्रभावित होकर उन्हें अपना मसीहा मान कर वोट देगा पर उनकी पार्टी बुरी तरह चुनाव हार गई। 

अयोध्या में जब विवादित ढांचा गिरा तो न तो उसके एक साल पहले भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई, न ही उसके 7 साल बाद तक, हालांकि देश में तब भी 80 प्रतिशत से ज्यादा हिन्दू थे और वे सभी राम भक्त भी थे और राम मंदिर भी चाहते थे। येन-केन प्रकारेण अगर 1998 में गठबंधन करके भाजपा आई भी तो अकेली कांग्रेस पार्टी से उसका मत 3 प्रतिशत कम था, आगे 1999, 2004 और 2009 में भाजपा का मत प्रतिशत लगातार गिरता रहा जबकि कांग्रेस का लगभग अपनी पूर्व की स्थिति में बना रहा। 

मोदी को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 2014 के चुनाव में अगर भाजपा को 2009 के 18.3 प्रतिशत के मुकाबले 31.3 प्रतिशत वोट मिले भी तो वह मोदी के विकास की छवि के कारण, न कि ‘हिन्दू-हृदय सम्राट’ माने जाने के कारण। हर सरकार के काल में विकास के आंकड़े कई मामलों में कम होते हैं तो कई पैरामीटर्स पर अच्छे भी। एक विकासशील देश में अचानक सभी आंकड़े आसमान पर पहुंच जाएं, यह संभव नहीं। लेकिन अगर जनता को भरोसा रहे कि यह नेता या दल हमारे दुर्दिन बदलने में पूरी निष्ठा से लगा है तो वह वोट देती है। भावनात्मक खेल मोदी की गरिमा को गिराएगा न कि जन-विश्वास बढ़ाएगा।-एन.के. सिंह 


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