मेरा भी इस्तीफा...

punjabkesari.in Thursday, Dec 13, 2018 - 04:25 AM (IST)

यह खेल अच्छा है! आप कल तो अच्छे-बुरे जैसे भी थे, थे; अच्छी हैसियत, अच्छी सुविधाएं, अच्छा पैसा और अच्छी शोहरत सब पा और समेट रहे थे। अगर कहीं, कोई परेशानी होती भी होगी तो वह आप ही जानते थे या फिर आपके आका! हम अगर जानते थे तो इतना ही कि आप जहां हैं वहां से जो होना चाहिए था, जो सुना जाना चाहिए था, जो कहा जाना चाहिए था और जब, जो किया जाना था, वह न कहा गया, न सुना गया और न किया गया। बाकी सब कुछ ठीक था, ठीक चल रहा था और एक-दूसरे के साथ तालमेल बिठाने के सारे प्रयास भी चल रहे थे। अनुभवी लोग कह रहे थे कि हां, ठीक ही है। लोकतांत्रिक जिम्मेदारियां इसी तरह निभाई जाती हैं, निभाई जानी चाहिएं...और फिर एक दिन हम सुनते हैं कि आपने इस्तीफा दे दिया। जैसे भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर उॢजत पटेल ने 10 दिसम्बर को इस्तीफा दे दिया। 

9 दिसम्बर तक हम यही जानते थे कि उनके और भारत सरकार के बीच कुछ मतभेद हैं। क्या मतभेद थे? रिजर्व बैंक के गवर्नर की खिड़की के पर्दों का रंग कैसा हो, इस पर मतभेद था, यानी लम्बे समय से बीमार  देश के अर्थतंत्र को स्वस्थ करने की जद्दोजहद में लगे, लम्बे समय से बीमार वित्त मंत्री को अपना इलाज किस डाक्टर से कराना चाहिए, इस पर मतभेद था? बीमार वित्त मंत्री के स्वस्थ दिखाए जाते बयान तो कभी-कभार पढऩे को मिल भी जाते थे, हमारी बैंकिंग व्यवस्था के शीर्ष पुरुष को भी देश की वित्तीय स्थिति के बारे में कुछ कहना है, यह तो हमें कभी पता भी न चला। 

रघुराम राजन जब तक रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे, हमें पता चलता रहा कि पैसा सिर्फ दिखता नहीं है, वह बोलता भी है। रघुराम राजन ने रिजर्व बैंक की वैसी ही लोकतांत्रिक साख बना दी जैसी कभी चुनाव आयोग की शेषण साहब ने बनाई थी। वैसी साख बनाना बहुत कठिन होता है, क्योंकि वैसी साख बाजार में मिलती नहीं है, कमानी पड़ती है। नरेन्द्र मोदी-अरुण जेतली की जोड़ी रघुराम राजन जैसे गवर्नर को पचा नहीं सकेगी,यह अंदेशा सारे देश को था। इसलिए जब रघुराम राजन को सरकार ने दोबारा गवर्नर बनाने में आनाकानी की तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया। किसी को हैरानी नहीं हुई क्योंकि हम सभी जानते थे कि देश के सबसे बड़े बैंक और केन्द्रीय सरकार के बीच रिश्ते ऐसे नहीं हैं कि वे लम्बा चल सकेंगे। रघुराम राजन ने पद छोडऩे और ऊंची तनख्वाह वाली नौकरी पर जाने से पहले कहा कि वे नितांत निजी कारणों से इस्तीफा दे रहे हैं। जो वे कह रहे थे उसमें विमर्श संभव नहीं था। बेटी नहीं चाहती है कि मैं आगे भी रिजर्व बैंक का गवर्नर रहूं यानी बीवी को बाजार ले जाने का समय मैं नहीं निकाल पाता हूं, इसलिए अब गवर्नर नहीं रहना चाहता हूं आदि नितांत निजी कारण ऐसे हैं कि इन पर देश कहे भी तो क्या!

आज साधारण दौर नहीं
लेकिन देश जिस दौर से गुजर रहा है, यह सामान्य दौर नहीं है। देश भयंकर आॢथक संकट से गुजर रहा है, सरकार आंकड़े बदलने और छिपाने का सारा खेल खेलने के बाद भी यह कैसे छिपा सकती है कि विकास दर लगातार गिरती जा रही है, महंगाई पर किसी तरह का अंकुश काम नहीं कर रहा है, बेरोजगारी खतरनाक हद तक पहुंच गई है और स्वत: रोजगार पैदा करने वाले विकास की कोई  रूपरेखा हम बना नहीं पा रहे हैं। खुदरा व्यापार और छोटे कारोबारी, जो किसी भी अर्थव्यवस्था की नींव के पत्थर होते हैं, बुरी तरह कुचल दिए गए हैं और विश्व बाजार में हमारे रुपए की साख खतरे में है। शिक्षा व्यवस्था हमारे भविष्य से ऐसा खेल कर रही है कि वर्तमान और भविष्य दोनों नष्ट हो रहे हैं। यह देखने के लिए किसी दिव्य दृष्टि की जरूरत नहीं है कि समाज का माफियाकरण तेजी से हो रहा है-शिक्षा माफिया, स्वास्थ्य माफिया, शराब माफिया, किसान माफिया, रक्षा सौदा माफिया, चुनाव माफिया, विकास माफिया आदि-आदि पूरा समाज लीलते जा रहे हैं और राजनीतिक माफिया मुस्करा रहा है। 

अर्थतंत्र का कत्लेआम
यह भारतीय लोकतंत्र का असामान्य दौर है। वे सभी इसके अपराधी हैं जो निर्णायक पदों पर बैठ कर सामान्य ढंग से काम चला रहे हैं। कभी कवि ‘दिनकर’ ने इनके लिए ही लिखा था : ‘‘समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध/जो तटस्थ है समय लिखेगा उनका भी अपराध।’’ तो समय के पन्नों पर दर्ज है कि जब रघुराम राजन ने इस्तीफा दिया तो उर्जित पटेल ने उनके छोड़े जूते में ऐसे पांव धर दिया मानो उन्हें इसके खाली होने का इंतजार था और फिर अर्थतंत्र में ऐसा कत्लेआम हुआ जैसा किसी ने न देखा था, न सुना था। नोटबंदी हुई। किसने की? उस प्रधानमंत्री ने जिसकी आॢथक समझ का रोना आज भी देश रो रहा है लेकिन अभी हम नोटबंदी सही या गलत की बात नहीं कर रहे बल्कि नोटबंदी जिस तरह हुई, उसकी बात कर रहे हैं। मुद्रा और मुद्रा से जुड़ी तमाम फैसलों की जिम्मेदारी भी रिजर्व बैंक की होती है और देश के हर बाशिंदे के प्रति वह जवाबदेह भी है। 

आखिर हमारे हर नोट पर वही तो लिखित वचन देता है कि यह कागज का टुकड़ा नहीं, मुद्रा है जो हर हाल में अपनी कीमत के बराबर की कीमत आपको देगी। रिजर्व बैंक इसके लिए वचनबद्ध है लेकिन एक रात, एक आदमी आकर देश से कह देता है कि जिसे आप मुद्रा समझ रहे हैं वह रद्दी का कागज भर है और उसे आप रद्दी के भाव भी बेच नहीं सकते और रिजर्व बैंक इतना भी कह नहीं सका कि यह फैसला उसकी सहमति से हुआ है और हमने प्रधानमंत्री से कहा है कि इसका ऐलान वे ही करें। उर्जित पटेल एक शब्द नहीं बोले। करोड़ों-करोड़ भारतीय, जिन्होंने रिजर्व बैंक पर भरोसा किया था, पशुओं की तरह हांक कर सड़कों पर ला दिए गए, रिजर्व बैंक कुछ नहीं बोला! जिन्होंने रिजर्व बैंक की सफेद मुद्रा का चेहरा काला कर दिया था, वे सब कहीं भी परेशान नहीं थे। काला धन जिनकी नसों में दौड़ता है वे सारे राजनीतिबाज अपने खेल में लगे रहे, देश की बैंकिंग व्यवस्था जिस आम आदमी के कंधों पर सवारी करती है, वह गंदी सड़कों-गलियों में अपमानित किया जाता रहा, बैंकों व दूसरे सरकारी महकमों में जलील किया जाता रहा लेकिन रिजर्व बैंक ने कुछ भी नहीं कहा। उसने तो दबी जुबान से कभी यह भी नहीं कहा कि नोटबंदी का फैसला न तो उसका था और न ही वह उससे सहमत था। 

आर्थिक सलाहकार भी कुछ नहीं बोले
आप वह पूरा दौर देख लीजिए, आपको उस वक्त के आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यन का एक शब्द भी कहीं दर्ज नहीं मिलेगा कि नोटबंदी का निर्णय उन्हें अंधेरे में रख कर लिया गया, उनका एक शब्द भी नहीं कहीं मिलेगा कि जी.एस.टी. का फैसला भी और उसका कार्यान्वयन भी गलत है। वे उस पूरे असामान्य समय में, अपनी मालदार कुर्सी पर बैठे सामान्य समय काटते रहे। फिर ‘निजी कारणों’ से नौकरी छोड़ दी और दूसरी मालदार नौकरी पर विदेश चले गए। वहां बैठे-ठाले एक किताब लिखी और अब देश में आकर उस किताब की बिक्री सुनिश्चित करने में लगे हैं।

अब वे उन सारी कमियों-कमजोरियों की सविस्तार बात कर रहे हैं जो उनके विचार से मोदी-जेतली मार्का अर्थतंत्र की पहचान है। ऐसा ही अब उर्जित पटेल करेंगे। हम उनकी किताब भी पढ़ेंगे कि कैसे मोदी-जेतली रिजर्व बैंक की स्वायत्तता खत्म करते जा रहे हैं, असामान्य आर्थिक संकट से देश को उबारने के लिए जो एक संवैधानिक कोष रिजर्व  बैंक के पास रखा होता है, वह पैसा भी मोदी-जेतली अपने चुनावी वायदों को पूरा करने में उड़ा देना चाहते हैं और मैं, उॢजत पटेल अपनी गर्दन हथेली पर लेकर उनके सामने खड़ा हो गया। प्रमाण पूछते हैं तो पढि़ए मेरी यह किताब! इसे कहते हैं : आम तो आम/गुठलियों के दाम। यह कायरता है कि बहादुरी? फैसला आप करेंगे या वक्त। तब तक आप मेरा भी इस्तीफा ले लीजिए ताकि मैं भी एक किताब लिख कर देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करूं।-कुमार प्रशांत


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Pardeep

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