मजदूरों, किसानों और नौजवानों की ‘बगावत’ को दर्शाते हैं चुनाव परिणाम

punjabkesari.in Wednesday, Dec 12, 2018 - 04:14 AM (IST)

भले ही राजस्थान में कांग्रेस मामूली अंतर से जीती हो या मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने कड़ी टक्कर दी हो लेकिन तय है कि यह मजदूर-किसानों और नौजवानों का विद्रोह है। छत्तीसगढ़ का चुनाव यही बात साफ  तरीके से बता रहा है और तेलंगाना में किसानों के पक्ष में लिए गए फैसलों से वहां टी.आर.एस. सरकार की वापसी हो रही है। 

कहानी साफ  है कि किसान नाराज हैं कि खेती करना लगातार मुश्किल होता जा रहा है और सरकार 2022 तक आय दोगुना करने का झुनझुना थमा रही है। मजदूर परेशान है कि नोटबंदी और जी.एस.टी. की मार उसे झेलनी पड़ रही है। नौजवान तंग है कि सरकारी नौकरियां नहीं के बराबर हैं और स्वरोजगार के मौके भी नहीं मिल रहे हैं। कुल मिलाकर चुनावी नतीजे इसी तरफ  इशारा कर रहे हैं जिससे साफ  है कि 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले मोदी सरकार के लिए इसका तोड़ निकालना बेहद जरूरी हो गया है। 

देश में सरकारी आंकड़ों के अनुसार 12 करोड़ किसान हैं, अगर एक किसान परिवार के यहां औसत रूप से चार  वोटर भी हुए तो कुल वोटर 48 करोड़ बैठते हैं। इसी तरह देश में नौजवान वोटरों की तादाद भी करोड़ों में है जो कुछ बनना चाहते हैं। युवा मेहनत करने को तैयार है लेकिन आगे बढऩे के तमाम मौके चाहता है। उसे जब ऐसा माहौल नहीं दिखता तो वह अंदर ही अंदर खदबदाता है। नेताओं की तरफ  आस भरी नजरों से देखता है, निराश होता है तो सत्ता पलट देता है। 

छत्तीसगढ़ के नतीजे बताते हैं कि आप किसानों को गुमराह नहीं कर सकते। युवाओं को आंकड़ों का खेल दिखा कर उम्मीदों का झुनझुना नहीं थमा सकते। दलितों को सिर्फ  वायदों के जाल में नहीं उलझा सकते, आदिवासियों को विकास की राह पर लाने का झूठा सपना नहीं दिखा सकते। पहली बार वोट देने वाले वोटरों को साफ -सुथरी पारदर्शिता वाली जवाबदेह सरकार चाहिए जिसे मापदंड पर खरा उतरना ही होगा। पहले धान पर बोनस नहीं देना और आखिरी साल में बोनस की घोषणा कर देना। आखिरी साल में तेंदुपत्ता के दाम बढ़ा देना, महिलाओं को पचास लाख मोबाइल फोन थमा देना आदि के आधार पर चुनाव लड़ा तो जा सकता है लेकिन जीता नहीं जा सकता। 

कांग्रेस ने एक कदम आगे बढ़ कर सत्ता में आने पर दस दिनों के भीतर कर्जा माफ  करने का वायदा किया। इसे किसानों ने हाथों -हाथ लिया और कांग्रेस की सरकार बनवा दी। देखा गया है कि कई बार मुफ्त में खैरात बांटना आपके खिलाफ जाता है तो कई बार फायदा भी करवा देता है। यू.पी. में किसानों का कर्जा माफ  करना भाजपा के पक्ष में गया था। इसे पंजाब और कर्नाटक में कांग्रेस ने दोहराया और सत्ता में लौटी। अक्सर यह भी देखा गया है कि विपक्षी दल का ऐसा आह्वान ही उसे सीटें दिलाता है। एक नई बात देखने में आई कि पन्द्रह साल की सरकार से लोग ऊबने लगते हैैं, कुछ नया चाहते हैं, बदलाव चाहते हैं। छत्तीसगढ़ में नौजवान पीढ़ी ऐसी थी जिसने कभी कांग्रेस का शासन तक नहीं देखा था। ऐसे नौजवानों ने रमन सिंह को अच्छा तो बताया लेकिन साथ ही यह भी कहा कि बहुत हो गया, अब उनको भी मौका देकर देखते हैं। ऐसी सोच की काट क्या भाजपा मुख्यमंत्री को केन्द्र में ले जाकर उनकी जगह नए चेहरे को लाकर पेश नहीं कर सकती थी।

किसानों और नौजवानों को साथ लेकर चलना पड़ेगा
राजस्थान में भी किसान और नौजवानों को सही दाम और हाथों को काम दिया होता तो यह हालत नहीं होती। लोकसभा चुनावों के लिए निष्कर्ष यही है कि किसानों और नौजवानों को साथ में लेकर चलना ही होगा। उन्हें संतुष्ट करना ही होगा। जाहिर है कि सत्तारूढ़ दल यानि मोदी सरकार को कोई तोड़ निकालना होगा। वहीं इन चुनाव परिणामों से उत्साहित होकर कांग्रेस 2009 की तरह सत्ता में आने पर किसानों का कर्जा माफ  करने की रूपरेखा और योजना सामने रख सकती है। ऐसा करके मोदी सरकार को परेशानी में डाल सकती है। 

चुनावों में भाषा का स्तर गिरा
यूं तो पिछले कुछ सालों में चुनावों के समय भाषा का स्तर गिरा है लेकिन इस बार तो न्यूनतम स्तर तक पहुंच गया। किसी ने किसी की मां को चुनावों में घसीटा तो किसी ने विधवा तक को नहीं छोड़ा। किसी ने हनुमानजी की जात पूछी तो किसी ने गौत्र पालिटिक्स की। किसी ने किसी की सेहत को निशाने पर लिया तो किसी ने किसी की पशु से तुलना की। सभी दलों को यह समझना चाहिए कि वैसे भी नई पीढ़ी के बीच नेता अपनी विश्वसनीयता खोते जा रहे हैं और ऐसे में इस तरह के शब्दों का प्रयोग राजनीति को कहां ले जा रहा है। इस पर चुनाव आयोग को भी विचार करना चाहिए कि क्या भाषा पर संयम के लिए दल विशेष के अध्यक्ष को कसा जा सकता है। क्या ऐसे नेताओं को राज्य से चुनाव होने तक निकाल बाहर किया जा सकता है? क्या ऐसा हो सकता है कि एक सर्वदलीय कमेटी बने जो चुनावों के दौरान भाषा के प्रयोग पर नजर रखे और चुनाव आयोग से कार्रवाई करने को कहे। ऐसी कोई कमेटी बने तो उसमें वरिष्ठ नागरिकों को भी जगह दी जानी चाहिए। 

नेताओं की जुबान ने चुनावी भाषणों में कमाल तो किए ही, टी.वी. न्यूज चैनलों की लाइव डिबेट  में अपनी इस प्रतिभा के प्रदर्शन से भी नहीं चूके। किसी चैनल पर किसी नेता को चपरासी कहा गया तो पलटवार उस नेता के बाप को चपरासी कहने से हुआ। किसी चैनल पर दो दलों के नेता आपस में एक-दूसरे का कुर्ता फाडऩे लगे। स्टूडियो में पुलिस बुलानी पड़ी और नेता को थाने में रात गुजारनी पड़ी। यहां टी.वी. चैनलों की भी जिम्मेदारी बनती है कि ऐसे नेताओं को ब्लैक लिस्ट करें और हालात खराब होने का अंदेशा होते ही ब्रेक ले लें। चैनलों ने देखा होगा कि उनकी विश्वसनीयता भी जनता की नजरों में गिरी है और ऐसी कपड़ा फाड़ या गिरेबान पकड़ डिबेट से वे अपना ही नुक्सान कर रहे हैं। आमतौर पर जनता यह समझती है कि अपनी टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए टी.वी. एंकर ऐसे कपड़ा फाड़ नेताओं को उकसाते हैं या बढ़ावा देते हैं या फिर वक्त रहते टोकते नहीं हैं। इस भ्रम को दूर करने की जिम्मेदारी भी टी.वी. चैनलों की ही बनती है।-विजय विद्रोही


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Pardeep

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