राज्यपाल मलिक को हटाया तो गलत संदेश जाएगा

punjabkesari.in Tuesday, Dec 11, 2018 - 08:09 AM (IST)

सत्यपाल मलिक के रूप में जम्मू-कश्मीर को डा. कर्ण सिंह के बाद राजनीतिक पृष्ठभूमि वाला और जगमोहन मल्होत्रा के बाद बोल्ड फैसले लेने वाला पहला राज्यपाल मिला है, लेकिन उनकी विवादास्पद बयानबाजी और दृढ़ निर्णय क्षमता के कारण राजनीतिक दलों में मची अफरा-तफरी के बीच उन्हें जम्मू-कश्मीर से हटाने की अटकलें तेज हो गई हैं। केंद्र सरकार द्वारा उनके उत्तराधिकारी की तलाश भी शुरू कर दी गई है और इसके लिए कई नाम चर्चा में हैं, लेकिन इस समय राज्यपाल सत्यपाल मलिक को हटाने से न केवल केंद्र सरकार की नीयत के प्रति गलत संदेश जाएगा बल्कि राष्ट्र एवं राज्यहित को लेकर बनने वाली सतत् दूरगामी रणनीति पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा। 

यू-टर्न लेना बड़ी कमजोरी
राजनीतिक पृष्ठभूमि होने के चलते बेवजह बयानबाजी और विभिन्न मुद्दों पर स्पष्टीकरण देते हुए यू-टर्न लेना निश्चित तौर पर राज्यपाल मलिक की बहुत बड़ी कमजोरी साबित हुई है और राजभवन के स्पष्टीकरण भवन बन जाने से राज्यपाल पद की गरिमा को भी गहरा आघात पहुंचा है लेकिन साढ़े तीन माह के अल्प कार्यकाल में उनकी उपलब्धियां भी कम नहीं हैं। जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद पर अंकुश लगाने के अलावा राज्यपाल द्वारा लिए गए ऐतिहासिक फैसलों की फेहरिस्त भी बहुत लंबी है। 

विशेष तौर पर राज्य विधानसभा को भंग करने, जम्मू-कश्मीर बैंक को सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत लाने, भूमि घोटालों की जड़ रोशनी एक्ट को रद्द करने और गड़बड़ी की भनक मिलते ही स्वास्थ्य बीमा योजना को निरस्त करने संबंधी निर्णयों ने तो राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी है। जो राजनेता जम्मू-कश्मीर बैंक को अपनी बपौती समझकर परिवार एवं रिश्तेदारों समेत दोनों हाथों से लूट रहे थे, मनमाने ढंग से अपने चहेतों की नियुक्तियां कर रहे थे, उन्हें तो राज्यपाल ने जोर का झटका दिया है। इन नेताओं को अपने चहेतों के नामों का खुलासा होने का डर सता रहा है। 

नैशनल कांफ्रैंस और पी.डी.पी. अधिक खफा
नैशनल कान्फ्रैंस और पी.डी.पी. नेतृत्व तो राज्यपाल के फैसलों से कुछ ज्यादा ही खफा हैं। राज्यपाल ने दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए कश्मीर आधारित इन दोनों बड़ी पाॢटयों के चुनाव बहिष्कार के आह्वान को दरकिनार करते हुए राज्य में शहरी स्थानीय निकायों और पंचायतों के चुनाव करवा दिए। इस मुहिम में राज्यपाल को इतनी सफलता मिली कि लोगों ने रिकार्ड मतदान करके नैशनल कान्फ्रैंस व पी.डी.पी. की हेकड़ी निकाल दी। हालांकि इन दोनों दलों के कुछ नेताओं ने अपनी पाॢटयों से विद्रोह करके और कुछ ने मूक सहमति के तहत इन चुनावों में हिस्सा लिया लेकिन मतदान प्रतिशत से यह सवाल तो खड़ा होता ही है कि यदि चुनाव बहिष्कार के बावजूद राज्य में विशेषकर कश्मीर घाटी में कई स्थानों पर 80 प्रतिशत तक मतदान हुआ तो क्या राज्य का प्रतिनिधित्व करने का दम भरने वाली नैशनल कान्फ्रैंस और पी.डी.पी. का इन क्षेत्रों में कोई अस्तित्व ही नहीं है? 

नैकां-पी.डी.पी. के लिए समस्या
नैशनल कान्फ्रैंस और पी.डी.पी. नेतृत्व के लिए इससे भी बड़ी समस्या यह है कि स्थानीय निकायों और पंचायतों का बहिष्कार करने के बाद अब लोकसभा एवं विधानसभा चुनावों में वे किस मुंह से भाग लेंगे क्योंकि राज्य के विशेष दर्जे एवं धारा-35ए जैसे मुद्दों पर तो केंद्र सरकार के रुख में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है। दोनों पाॢटयों के रुख से स्पष्ट है कि ये पाॢटयां अब लोकसभा एवं विधानसभा चुनावों का बहिष्कार करने का जोखिम नहीं उठाएंगी और चुनाव के बाद राज्य में यदि इनमें से किसी भी पार्टी की सरकार बनी तो सबसे पहले वह राज्यपाल सत्यपाल मलिक द्वारा लिए गए निर्णयों की समीक्षा करेगी और बहुत से निर्णयों को रद्द भी कर सकती है। 

90 के दशक में राज्यपाल रहे जगमोहन का कार्यकाल आज भी जम्मू-कश्मीर के लिए एक मिसाल है और यदि उस समय उन्हें पद से हटाकर आतंकवाद का समूल नाश करने से न रोका गया होता तो आज 28 वर्ष बाद भी हम आतंकवाद की समस्या से न जूझ रहे होते। केंद्र की तत्कालीन सरकार ने कमजोर इच्छाशक्ति दिखाई जिसके चलते अनेक परिवारों को आतंकवाद का दंश झेलना पड़ा और यदि आज सही निर्णय ले रहे राज्यपाल सत्यपाल मलिक को हटाया गया तो इतिहास फिर से खुद को दोहरा दे तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।-बलराम सैनी


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Pardeep

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