7 दिसम्बर झंडा दिवस पर विशेष सैनिकों के बलिदानों को न भुलाया जाए

punjabkesari.in Friday, Dec 07, 2018 - 03:59 AM (IST)

सारा देश 7 दिसम्बर यानी आज सशस्त्र सेना झंडा दिवस मना रहा है। स्वतंत्रता से पूर्व यह यादगार दिन ‘पॉपी-डे’ के तौर पर हर वर्ष 11 नवम्बर को मनाया जाता था। इस अवसर पर उस समय पॉपीज नामक चिन्ह जनता में बांटा जाता था और जनता द्वारा इसके बदले दान दिया जाता था। 

दान की यह राशि पूर्व अंग्रेज सैनिकों की एसोसिएशन के खाते में जाती थी मगर एसोसिएशन का अपना अधिकार था कि इस फंड का कुछ हिस्सा पूर्व भारतीय सैनिकों हेतु इस्तेमाल किया जाए या नहीं। देश के विभाजन के बाद जुलाई 1948 के दौरान भारत सरकार की रक्षा समिति द्वारा यह निर्णय लिया गया कि देश की सशस्त्र सेनाओं में सेवारत सैनिकों, पूर्व सैनिकों तथा उनके परिवारों के कल्याणार्थ दान एकत्र करने हेतु एक विशेष दिन निर्धारित किया जाए। इस तरह तत्कालीन रक्षा मंत्री की समिति द्वारा 28 अक्तूबर 1949 को हर वर्ष 7 दिसम्बर को सशस्त्र सेना झंडा दिवस मनाने का निर्णय लिया गया। 

दरअसल यह दिन सैनिकों के प्रति सद्भावना तथा उन बहादुर सैनिकों की स्मृति को ताजा करवाता है जो देश के विभाजन से पूर्व तथा स्वतंत्रता मिलने के बाद देश की एकता तथा अखंडता को बरकरार रखने की खातिर शहादत का जाम पी गए। देश के महान सपूतों द्वारा दिए गए बलिदानों को याद करके सारी मानवता का सिर गर्व से ऊंचा हो जाता है तथा विशेष तौर पर पंजाब तो अतीत से ही देश की दाईं बाजू रहा है। जब युद्ध का बिगुल बजता है तो सैनिक अपनी बैरकों तथा परिवारों को छोड़ कर युद्ध प्रभावित ठिकानों की ओर कूच कर देते हैं। एक जवान जंगलों, पर्वतों, बर्फीले, पथरीले, रेगिस्तानी आदि सीमांत क्षेत्रों में जाकर अपनी प्रतिज्ञा का प्रदर्शन करते हुए पलटन, कौम तथा देश की खातिर मर-मिटने के लिए सदा तैयार रहता है। 

नहीं थम रहा शहादतों का सिलसिला
इतिहास इस बात की पुष्टि करता है कि सन् 1947 से लेकर (कारगिल सहित) जितने भी युद्ध भारतीय सेना ने लड़े, उनमें 19,000 से अधिक सैनिकों ने बलिदान दिया। लगभग 33,000 सैनिक घायल/नकारा भी हो गए। शहादतों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा बल्कि लगातार बढ़ता ही जा रहा है। अफसोस की बात यह है कि हर बीते दिन विशेष तौर पर पंजाब, हिमाचल, हरियाणा में मातम मनाए जा रहे हैं। इस समय केवल पंजाब में ही कुल मिलाकर करीब 60,000 सैन्य विधवाएं हैं, जिनमें युद्ध विधवाएं भी शामिल हैं। 

यह एक कड़वी सच्चाई है कि ‘परमात्मा तथा सैनिक’ को केवल संकट की घड़ी में ही याद किया जाता है। जब खतरा टल जाता है तो सरकारें व समस्त समाज यह सब क्यों भूल जाता है? समस्त मानवता का यह कत्र्तव्य बनता है कि ऐसे परिवारों/विधवाओं, जिनकी रोजी-रोटी कमाने वाले बहादुर सैनिक देश की रक्षा खातिर सदा की नींद सो गए, या नकारा, लाचार हो गए तथा वृद्ध सैनिकों के पालन-पोषण तथा देखरेख व उनके पुनर्वास के लिए हम भी अपना विशेष तौर पर योगदान डालें। 

जरूरत इस बात की है कि सैनिक वर्ग की उपलब्धियों तथा मुश्किलों से भरपूर योगदान तथा सीमाओं की सुरक्षा से संबंधित कठिनाइयों बारे राजनीतिज्ञों, सांसदों, अफसरशाही, समस्त देशवासियों तथा विशेष तौर पर कालेजों व स्कूली विद्याॢथयों को जानकार करवाया जाए। देश की रक्षा सेवाओं से संबंधित सिविल प्रशासन के अधिकारियों के लिए समय-समय पर सीमांत क्षेत्रों में ‘ट्रेङ्क्षनग कैप्सूल कैम्प’ लगाए जाएं ताकि उनको सैनिकों की समस्याओं का एहसास हो सके। 

क्या हैं सैनिकों की समस्याएं
एक सिपाही को दिन के 24 घंटे तथा सप्ताह के सातों दिन तैयार रहते हुए ड्यूटी करनी पड़ती है, चाहे वह देश की सीमाओं पर तैनात हो या फिर बैरकों में। एक रिपोर्ट के अनुसार एक सैनिक को 24 साल की नौकरी के दौरान लगभग 18 वर्ष परिवार से अलग रह कर देश की सेवा करनी पड़ती है। सीमा पर तैनात सेना को दुश्मन, आतंकवादियों, घुसपैठियों के साथ मुठभेड़ के समय हर वर्ष औसतन 415 जानें कुर्बान करनी पड़ती हैं, जोकि बिना युद्ध लड़े बहुत अधिक हैं। इसके अलावा हर साल औसतन 5,000 सैनिक नकारा/घायल हो जाते हैं, उनको सेना अलविदा कह देती है। इसके अतिरिक्त बार-बार पोसिं्टग के कारण बच्चों की पढ़ाई पर असर पड़ता है।

प्रशासन, पुलिस तथा बाकी सिविल अधिकारियों द्वारा सम्मान तथा इंसाफ देने की बात तो छोड़ो, सैनिकों की दुख-तकलीफों को भी गम्भीरता से नहीं लिया जाता। नौकरी के समय मानसिक तथा कार्य से संबंधित तनाव पैदा होता रहता है। सियाचिन जैसे क्षेत्रों में स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। आत्महत्याएं बढ़ जाती हैं। आपसी खींचतान के कारण कई सैनिक एक-दूसरे को गोली से भूनने की हद तक चले जाते हैं। चिंताजनक विषय तो यह भी है कि वर्दीधारियों को अपने अधिकारों की रक्षा हेतु अदालतों के धक्के खाने पड़ते हैं। उदाहरण के लिए अफसरों के अंतर्गत अपनी जानों की परवाह न करते हुए देश की एकता तथा अखंडता को बरकरार रखने की खातिर आतंकवादियों से लोहा लेते समय यदि कोई सैनिक मानवाधिकारों का उल्लंघन करता है तो सेना द्वारा उसका कोर्ट मार्शल तक कर दिया जाता है। 

मगर हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मामले में 350 फौजियों की ओर से एफ.आई.आर. के विरुद्ध दायर की गई पटीशन को रद्द करना यह सिद्ध करता है कि सरकार द्वारा समस्त सेना के मनोबल तथा युद्धक क्षमता को प्रभावित करने वाले पहलू को तथ्यों सहित गम्भीरतापूर्वक पेश नहीं किया गया। क्या सर्जिकल स्ट्राइक का राजनीतिक लाभ लेने वाले शासकों द्वारा कभी इन मुद्दों पर विचार किया गया है? 

यदि हम शांति चाहते हैं तो हमें आंतरिक तथा बाहरी युद्ध लडऩे के लिए हमेशा तैयार रहना होगा। चीन की बढ़ती शक्ति के संदर्भ में अपनी सेनाओं को अधिक शक्तिशाली तथा आधुनिक बनाया जाए। सेना की गिनती कम करने बारे निर्णय पर पुनर्विचार किया जाए। पाकिस्तान की ओर से घुसपैठ से शक्ति से निपटा जाए। परमाणु शक्ति उत्पन्न करने वाले साधनों की सुरक्षा मजबूत करनी होगी और पाकिस्तान की आंतरिक स्थिति व विदेश नीति पर कड़ी नजर रखने की जरूरत होगी। 

समीक्षा तथा सुझाव
आने वाले समय को मुख्य रखते हुए यह कहना उचित होगा कि पड़ोसी देशों के साथ भगवान न करे अगर अगली लड़ाई लडऩी पड़ी तो वह पिछले युद्धों की तरह नहीं लड़ी जाएगी। सीमांत क्षेत्रों में घमासान युद्ध तो होगा लेकिन असली लड़ाई तो शहरों, कस्बों तथा अनंत आकाश व समुद्र तक भी पहुंचेगी जहां परमाणु हथियारों का इस्तेमाल भी सम्भव है। इस लेख के माध्यम से आज हम देश के शासकों तथा समाज को संदेश देना चाहते हैं कि देशवासियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी सरकार की होती है। यदि हम देश की खुशहाली तथा शांति चाहते हैं तो हमें आंतरिक सुरक्षा के साथ जुड़ी आतंकवाद/जातिवाद जैसी समस्याओं से गम्भीरतापूर्वक निपटना पड़ेगा तथा बाहरी युद्ध लडऩे के लिए सेना सहित सारे देश को तैयार रहना होगा ताकि फिर कहीं मुम्बई, पठानकोट, उड़ी, नगरोटा आदि जैसे घिनौने कांड तथा कारगिल की तरह धोखा न खा बैठें।-ब्रिगे. कुलदीप सिंह काहलों (रिटा.)


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Pardeep

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