नज़रिया: क्या इसलिए चला राज्यपाल मलिक ने मास्टर स्ट्रोक ?

punjabkesari.in Thursday, Nov 22, 2018 - 01:50 PM (IST)

नेशनल डेस्क (संजीव शर्मा): जम्मू कश्मीर की एक और सियासी कथा का पटाक्षेप हो गया है।  बीजेपी की विरोधी पार्टियों द्वारा मिलजुलकर सरकार बनाने की कोशिशों के तेज़ होते ही केंद्र ने अपना मोहरा चल दिया और राज्य विधानसभा भंग हो गयी। अभी विधानसभा का दो साल का कार्यकाल बाकी था। जम्मू-कश्मीर में विधानसभा छह साल के लिए चुनी जाती है। पांच माह पहले जब बीजेपी पीडीपी की अविश्विसनीय सियासी दोस्ती टूटी थी तो  राज्यपाल शासन के तहत जम्मू-कश्मीर विधानसभा निलंबित रखी गयी थी। 

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राज्य के अलहदा संविधान के तहत इस तरह का प्रावधान है। एन एन वोहरा को हटाकर जब सत्यपाल मालिक को राजभवन भेजा गया तो बीजेपी की सत्ता पाने की छुपी मंशा फिर से जगजाहिर हुई। करीब 27 साल बाद कोई राजनीतिज्ञ सूबे का राज्यपाल बनाया गया था। ले दे कर खेल यही था कि जैसे तैसे बीजेपी को सत्ता दिलाने की कोशिश की जाए। यह कोशिशें सज्जाद लोन के रूप में पीडीपी से अलग गुट बनाकर आगे भी बढ़ीं। लेकिन इनका पूरी तरह सिरे चढ़ना थोड़ा मुश्किल काम था। इसलिए कि 87 की सदस्य संख्या वाली(दो मनोनीत और पीओके की 24 सांकेतिक सीटों से इतर)  विधानसभा में सीटों का बंटवारा कुछ ऐसा था कि एक से ज्यादा दलों में टूट की दरकार थी। 

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वैसे भी राज्य का जनादेश अब कुछ इस तरह से बंट चूका है कि बिना किसी के सहयोग से एक अकेली पार्टी के लिए सरकार गठन संभव नहीं है। साल 1996 में आखिरी बार किसी एक अकेले दल ने सरकार बनाई थी जो नेशनल कांफ्रेंस की थी। उसके बाद एनसी, कांग्रेस, पीडीपी और बीजेपी सबने गठबंधन सरकारें ही बनाईं। पीडीपी के पास 28, बीजेपी के पास 25 नैकां के पास 15 और कांग्रेस के पास 12 सीटें थीं। शेष आज़ाद या छोटे दलों वाले थे। ऐसे में बीजेपी को सरकार बनाने के लिए  जरूरी 44 का आंकड़ा पाना इतना आसान नहीं था। लेकिन कोशिशें जारी थीं कि  तोड़फोड़ करके  कुछ धमाका किया जाए । इससे उसे नेशनल लेवल पर भी लाभ होता। एक सन्देश जाता की बीजेपी और ज्यादा मजबूत हो रही है।
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बीजेपी राज्यपाल शासन की आड़ में यही कर रही थी। लेकिन इस बीच घाटी की पार्टियों ने उसकी यह चाल पहचान ली। ऐसे में " दुश्मन का दुश्मन दोस्त " वाली कहावत को चरित्रार्थ करते हुए  कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस सबसे पहले एक हुए। यह स्वाभाविक भी था दोनों पुराने सहयोगी रहे हैं। ऐसे केंद्र में महागठबंधन के सूत्रधार बने उमर अब्दुल्ला ने पीडीपी को भी साथ लेने का नुस्खा सुझाया तो गुलाम नबी आज़ाद फट से मान गए। यह एक तरह से बीजेपी को पांच राज्यों की विधानसभाओं के लिए जारी चुनाव से ऐन पहले एक बड़ा झटका देने की जुगत भी थी। अगर सिरे चढ़ जाती तो इसका असर उन राज्यों में मतदान पर भी पड़ता। 
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बीजेपी के कार्यकर्ताओं का मनोबल नीचे और विपक्ष का ऊपर जाता। इसलिए महबूबा ने जब राजभवन में सरकार बनाने का खत भेजा तो बीजेपी को लेने के देने पड़ते नज़र आये। उसके पाँव तले ज़मीन खिसक गयी। उसने आनन-फानन में लोन से भी ऐसा ही दावा करवाया और उसी की आड़ में मलिक ने मास्टर स्ट्रोक चल दिया। हालांकि इससे घाटी की सत्ता पाने का बीजेपी का " शाही फार्मूला " तो धराशायी हो गया लेकिन बीजेपी भी बड़े नुक्सान से बच गई। फिलहाल नागपुर और दीन दयाल मार्ग के दफ्तरों में बैठे बीजेपी के रणनीतिकारों को इसी की गनीमत मनाकर दिल को दिलासा देना होगा।   

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जब 35 के बजाए चल गया 53 तो हो गया उल्टा-पुल्टा 
जम्मू-कश्मीर में संविधान के आर्टिकल 35 A को लेकर रसे से सियासत गरमाई हुई है। मामला  जबसे सुप्रीम कोर्ट में है घाटी में अनेकों सियासी (और अलगाववादी भी)समीकरण बने हैं। लेकिन इससे पहले कि 35 A पर कोई अदालती फैसला आता राज्य में 35 के ठीक उलट 53 की संख्या प्रभावी हो गयी। राज्य के संविधान के आर्टिकल 53 में राज्यपाल को विधानसभा भंग करने की शक्ति प्रदत्त की गयी है। सत्यपाल मलिक ने उसी का इस्तेमाल करके विधानसभा भंग की है।


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vasudha

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