दो राज्यों द्वारा प्रतिबंध क्या सी.बी.आई. ने अपनी विश्वसनीयता गंवा ली है

punjabkesari.in Tuesday, Nov 20, 2018 - 05:06 AM (IST)

केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सी.बी.आई.) में ऐसा क्या है कि विपक्ष इसे खतरे के रूप में देखता है? नेता लोग इसके बारे में तरह-तरह की आपत्तियां क्यों उठाते हैं? नेता लोग सी.बी.आई. पर यह आरोप क्यों लगाते हैं कि वह अपने राजनीतिक माई-बाप की शह पर सरकार विरोधियों के विरुद्ध झूठे केस दर्ज करती है? क्या सी.बी.आई. के प्रति आकर्षण उलटा पड़ रहा है? 

क्या प्रबल प्रतिद्वंद्वी वास्तव में इसके जाल में फंस रहे हैं? आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिस्थापन अधिनियम 1976 की धारा 6 द्वारा राज्य के क्षेत्राधिकार में सी.बी.आई. द्वारा अपनी शक्तियों का प्रयोग करने को दी गई सामान्य सहमति को वापस लेने के अप्रत्याशित कदम से ये प्रश्न उठते हैं। 

इन मुख्यमंत्रियों द्वारा यह कदम उठाने से स्पष्ट है कि सी.बी.आई. इन राज्यों में केन्द्रीय अधिकारियों, सरकारी उपक्रमों और निजी व्यक्तियों की जांच नहीं कर सकती है और यहां तक कि सी.बी.आई. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अधीन भी इन अधिकारियों के विरुद्ध कदम नहीं उठा सकती है। इन मुख्यमंत्रियों ने यह आदेश उनके और केन्द्र सरकार के बीच चल रहे संघर्ष के बाद दिए हैं। नायडू के राजग से अलग होने और ममता की मोदी विरोधी विपक्ष का नेतृत्व करने की महत्वाकांक्षा इन आदेशों की जड़ में है। इनका कहना है कि केन्द्र सरकार सी.बी.आई. का उपयोग उन्हें और उनके मंत्रियों को निशाना बनाने के लिए कर रही है। आयकर प्राधिकारियों द्वारा तेलुगू देशम पार्टी के घनिष्ठ कुछ व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर छापा मारने से नायडू गुस्से में हैं। इसके अलावा वह प्रधानमंत्री का मुकाबला करने के लिए विपक्षी एकता में मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। 

घोटालों में फंसे हैं कई नेता
ममता की तृणमूल पार्टी के विभिन्न नेता शारदा, नारदा और अन्य विभिन्न घोटालों में फंसे हैं और उनका कहना है कि सी.बी.आई. ने अपनी विश्वसनीयता खो दी है। नायडू द्वारा जारी आदेश की पृष्ठभूमि में सी.बी.आई. निदेशक आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के बीच चल रहा संघर्ष भी है, जिसमें आंध्र प्रदेश के विवादास्पद व्यवसायी सतीश बाबू साना केन्द्र में हैं। इसके अलावा तेदेपा के एक अन्य सांसद और नायडू के घनिष्ठ व्यवसायी सहयोगी सी.एम. रमेश आदि भी इस प्रकरण से जुड़े हैं। 

साना ने कथित रूप से सी.बी.आई. निदेशक और विशेष निदेशक को बारी-बारी से रिश्वत दी है। उन्होंने शिकायत की है कि उन्होंने मांस निर्यातक मोइन कुरैशी के मामले में अपने विरुद्ध कार्रवाई न करने के लिए अस्थाना को 2 करोड़ रुपए की रिश्वत दी है। एजैंसी ने अस्थाना के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की जिन्होंने कैबिनेट सचिवालय को शिकायत की कि साना ने अपनी गिरफ्तारी से बचने के लिए तेदेपा सांसद सी.एम. रमेश के माध्यम से सी.बी.आई. निदेशक को 2 करोड़ रुपए की रिश्वत दी। साना ने अब पुन: अस्थाना के विरुद्ध शिकायत की है और उन पर आरोप लगाया है कि उन्होंने सी.बी.आई. निदेशक को मोइन कुरैशी केस में फंसाने के लिए एक डी.एस.पी. के माध्यम से उनका झूठा बयान दर्ज करवाया है। अब दोनों अधिकारियों को सरकार ने छुट्टी पर भेज दिया है। 

अस्थाना द्वारा यह आरोप लगाने से यह मामला और उलझ गया है कि रमेश ने साना की ओर से मध्यस्थता की और रमेश ने आरोप लगाया है कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह द्वारा उन्हें फंसाने के लिए एक उच्च स्तरीय षड्यंत्र रचा गया है। उन्होंने आरोप लगाया है कि आयकर और प्रवर्तन निदेशालय ने उनकी कम्पनियों पर छापे डाले और उन कम्पनियों के रिकार्ड में वित्तीय अनियमितताएं पाईं। कुरैशी मामले में तेदेपा के 3 अन्य नेता सी.बी.आई. की निगाहों में हैं। किंतु यह प्रवृत्ति बहुत खतरनाक है। पहली बार दो राज्यों ने अपनी एजैंसियों के माध्यम से केन्द्र सरकार को आंखें दिखाई हैं। 

उनका कहना है कि सी.बी.आई. की विश्वसनीयता गिर गई है, जिसके चलते सी.बी.आई. के कामकाज में राजनीतिक हस्तक्षेप हो रहा है और उसकी कार्यशैली पर प्रश्न चिन्ह लग गए हैं। यू.पी.ए. के कार्यकाल में भाजपा सी.बी.आई. को कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वैस्टीगेशन कहती थी और कोयला घोटाले में 2013 में उसने इसे पिंजरे में बंद तोता कहा था। अब कांग्रेस इसे भाजपा ब्यूरो ऑफ इन्वैस्टीगेशन कह रही है। भाजपा के कर्नाटक के दिग्गज नेता येद्दियुरप्पा 2011 में खनन कम्पनियों से पैसा लेने के लिए दोषी पाए गए थे और अब सी.बी.आई. द्वारा उन्हें दोषमुक्त कर दिया गया है। 

राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल
वस्तुत: यह चोर-चोर मौसेरे भाई का खेल है। दोनों पार्टियों ने राजनीतिक लाभ के लिए सी.बी.आई. का उपयोग, दुरुपयोग और कुप्रयोग किया है। यू.पी.ए. सरकार के दौरान कांग्रेस ने कथित रूप से सी.बी.आई. का भय दिखाकर बसपा की मायावती और सपा के मुलायम पर अंकुश लगाया और अब इसी तरह के आरोप मोदी और भाजपा पर लगाए जा रहे हैं कि वे अपने राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाने के लिए सी.बी.आई. का उपयोग कर रहे हैं। सी.बी.आई. कथित रूप से मायावती के विरुद्ध मामले पुन: खोलने के तरीके ढूंढ रही है क्योंकि वह मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में अलग से चुनाव लड़ रही हैं। 

सी.बी.आई. प्रत्येक सरकार के दौरान उसकी धुन पर नाचती रही है। यह विरोधियों के साथ राजनीतिक हिसाब चुकता करने का माध्यम बना जिसके चलते भ्रष्टाचार को समाप्त करने की इसकी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा पर गंभीर प्रश्न उठे और इस क्रम में घबराए राजनेताओं ने अपनी मनमर्जी करने के लिए सी.बी.आई. को अधिकाधिक शक्तियां दीं। सी.बी.आई. ने भी अवसरवादी नीति अपनाई। 

वह सरकार के साथ रही और इसके अधिकारी सेवानिवृत्ति के बाद के लाभों के लिए अपने राजनीतिक माई-बापों की सेवा करते रहे। इन आरोप-प्रत्यारोपों के बीच में लगता है राजनेता भूल गए हैं कि किसी भी कानून को लागू करने वाली एजैंसी की शक्ति उसकी कानूनी शक्तियों में नहीं अपितु कानून का उल्लंघन करने वालों के मन में उसके भय पर निर्भर करती है। वर्तमान विवाद से सी.बी.आई. की प्रतिष्ठा को धक्का लगा है और अब वह प्रमुख जांच एजैंसी नहीं रह गई है। इससे एक प्रश्न उठता है कि सी.बी.आई. के प्रति अपराधियों के मन में क्या अभी भी भय रहेगा? न्यायालय में चल रहे सी.बी.आई. के मामलों का हश्र क्या होगा? सी.बी.आई. के अभियोजक या जांच अधिकारी न्यायालय का सामना कैसे करेंगे? कौन आई.पी.एस. अधिकारी सी.बी.आई. में जाना चाहेगा? 

केन्द्र के साथ टकराव बढ़ेगा
देखना यह है कि क्या नायडू और ममता के इन कदमों से केन्द्र के साथ टकराव बढ़ेगा? सी.बी.आई. की स्वतंत्रता, स्वायत्तता और जवाबदेही के बारे में एक नई बहस शुरू होगी। दोनों के बीच क्या संतुलन होगा? यह एजैंसी अपने कार्यों को विवेकपूर्ण ढंग से त्वरित कैसे कर पाएगी? सी.बी.आई. के कार्यकरण के बारे में 2011 की संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट पर धूल जमी पड़ी है, जिसमें कहा गया था कि सी.बी.आई. को एक प्रवर्तन एजैंसी बनाया जाए। इसके कार्यकरण में राजनीतिक हस्तक्षेप को रोकने के लिए इसे स्वतंत्र और स्वायत्त दर्जा दिया जाए। रिपोर्ट में यह भी सिफारिश की गई थी कि एक नए केन्द्रीय आसूचना और अन्वेषण ब्यूरो अधिनियम के माध्यम से इसे जांच और अभियोजन चलाने की शक्तियां दी जाएं और उसे उसी तरह का दर्जा दिया जाए जैसा कि अमरीका में एफ.बी.आई. को प्राप्त है। सभी पश्चिमी लोकतंत्रों में जांच एजैंसियों में  बड़ा सुधार आया है, इसलिए हमें भी सी.बी.आई. को स्वतंत्र बनाना चाहिए। 

समय आ गया है कि हम सी.बी.आई. को एक शीर्ष संस्था बनाएं। हमारे राजनेताओं को सी.बी.आई. को नौकरशाही के अधीन रखने से बाज आना चाहिए। भारत में एक ऐसी चुस्त-दुरुस्त सी.बी.आई. की आवश्यकता है जो बिना पक्षपात के कार्य कर सके। कुल मिलाकर हमारे शासक वर्ग को सी.बी.आई. के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। उन्हें इन प्रश्नों का उत्तर देना चाहिए कि क्या सी.बी.आई. देश के कानून द्वारा निर्देशित होगी या सरकार द्वारा? प्रश्न यह उठता है कि पहला पत्थर कौन उठाएगा?-पूनम आई. कौशिश


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Pardeep

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