सबरीमाला पर राजनीतिक रोटियां सेंक रहे सभी दल

punjabkesari.in Monday, Nov 19, 2018 - 04:39 AM (IST)

करीब एक महीने पहले चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को अनुमति देते हुए अपने आदेश में कहा था, ‘‘धर्म व्यक्ति के सम्मान तथा पहचान के लिए है’’ और ‘‘धर्म-पालन करने का अधिकार पुरुष तथा महिला दोनों को है।’’ परंतु उनके आदेश का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा था कि ‘‘जब भगवान ही लिंग भेद नहीं करते तो ऐसा करने वाले हम कौन होते हैं?’’ 

जिस मंदिर को रजस्वला स्त्रियों के लिए अपने दरवाजे खोलने का यह आदेश दिया गया वह एक ऐसे राज्य में है जहां साक्षरता की दर 100 प्रतिशत है, महिलाओं को पुरुषों के समान उत्तराधिकार का हक बहुत समय से प्राप्त है और कुछ हद तक इसे मातृसत्तात्मक समाज माना जाता रहा है। महिलाओं के मंदिर में प्रवेश की पाबंदी हटाए करीब एक महीना होने को है और भारत में धर्म तथा राज्य के मध्य संबंधों को लेकर कुछ परेशान करने वाले प्रश्न खड़े हो चुके हैं। 

महिलाओं से अपने भगवान की रक्षा के नाम पर, जो वे मानते हैं उनके ब्रह्मचर्य के लिए खतरा हैं, प्रदर्शनकारियों ने महिलाओं को मंदिर में प्रवेश करने से रोकने के लिए सड़कों को बंद कर दिया, महिला श्रद्धालुओं पर हमले किए, बसों सहित अन्य सार्वजनिक सम्पत्ति को नुक्सान पहुंचाया। यह मंदिर केरल के पेरियार टाइगर रिजर्व में 18 पहाडिय़ों के बीच एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। सबरीमाला को घेरे हर पहाड़ी पर मंदिर हैं। सबसे पवित्र स्थलों में से एक माने जाने वाले सबरीमाला में प्रति वर्ष 1 करोड़ 70 लाख से 3 करोड़ तक श्रद्धालु पहुंचते हैं। 

10वीं सदी में निर्मित सबरीमाला मंदिर तक केवल 12वीं सदी में पहुंचना सम्भव हुआ। यह मंदिर समृद्धि के देवता भगवान अयप्पन को समॢपत है जिन्हें केरल में विशेष रूप से माना जाता है। भगवान शिव जी तथा मोहिनी (विष्णु जी के स्त्री अवतार) की संतान अयप्पन में माना जाता है कि दोनों देवों की शक्तियां हैं तभी वह आसुरी शक्तियों को पराजित कर सके थे। 

हालांकि 28 सितम्बर को सुप्रीमकोर्ट में एक समीक्षा याचिका दायर हुई थी परंतु कोर्ट ने मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर रोक नहीं लगाई थी। ऐसे में क्या सुप्रीमकोर्ट के आदेश जोकि संविधान पर आधारित हैं, को मानना नागरिकों व राजनीतिक दलों का सर्वप्रथम कत्र्तव्य नहीं होना चाहिए? ऐसा प्रतीत तो नहीं हुआ जब गत शुक्रवार को मंदिर में प्रवेश के लिए पहुंची पुणे की भूमाता ब्रिगेड की लीडर तृप्ति देसाई तथा अन्य 6 महिलाओं का हवाई अड्डे पर ही भारी विरोध शुरू हो गया। उन्हें सबरीमाला तक ले जाने से टैक्सी ड्राइवरों ने इंकार किया और पुलिस तथा प्रशासन की ओर से उनकी मदद करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई गई।

यहां मंदिर के निदेशकों और संचालकों को मंदिर के राजस्व के कम होने की चिंता अधिक थी न कि श्रद्धालुओं की सुरक्षा की। यही कारण था कि उन्होंने रात को भी दुकानें खुली रखीं जबकि सुरक्षाबल रात 11 बजे के बाद दुकानें खुलने व श्रद्धालुओं के वहां रुकने के हक में नहीं थे। राजनीतिक दलों की बात करें तो हमेशा की तरह इस मुद्दे पर भी विभिन्न दल अपनी-अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं। भाजपा ने पहले तो इस आदेश का स्वागत किया परंतु राज्य में विरोध शुरू होते ही केरल में अपनी राजनीतिक पैठ बनाने के लिए इस मसले को हवा दे रही है। 

दूसरी ओर केरल में कांग्रेस का अधिकतर मुस्लिम वोट बैंक है। ऐसे में उसने इस फैसले का स्वागत तो किया है परंतु इस पर चुप्पी साधे हुए है। सी.पी.आई. क्योंकि अपने पारंपरिक हिन्दू वोटरों को नाराज नहीं करना चाहती इसलिए बेशक वह सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लागू करने तथा महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करने की बातें अवश्य कर रही है परंतु वास्तव में कोई पुख्ता कदम उठाने में उसकी दिलचस्पी नजर नहीं आ रही है। यही कारण है कि भारी-भरकम सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद वे एक भी महिला को मंदिर में प्रवेश नहीं करवा पाए। 

ऐसे में आश्चर्य होता है कि कई सौ साल पहले देश में सामाजिक परम्पराओं तथा धार्मिक प्रथाओं में सुधार कैसे हुए होंगे? कबीर तथा तुलसी जैसे कवि 15वीं सदी के भारत में किस तरह उदार विचारों तथा प्रथाओं को लाए होंगे? यह भी अध्ययन का विषय है कि 18वीं और 19वीं सदी में स्वामी दयानंद सरस्वती, राजा राम मोहन रॉय, स्वामी विवेकानंद देश के रूढि़वादी सामाजिक ढांचे में किस तरह सुधार ला सके? उन्होंने महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए न केवल नए कानून बनवाए बल्कि समाज में उन्हें स्वीकृति दिलवाने में भी सफल रहे थे। शायद उन्हें वोट बैंक की परवाह नहीं करनी पड़ी थी और वे मजबूत इरादों तथा उच्च नैतिक मूल्यों वाले पुरुष थे।


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Pardeep

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