देश का ‘आईकॉन’ नहीं बन सकता माओवाद

punjabkesari.in Wednesday, Nov 14, 2018 - 04:16 AM (IST)

माओवाद को जनता ने नकार दिया है। माओवादियों को कड़ा व सबककारी संदेश दिया गया है कि भारत में सत्ता माओ त्से तुंग की बंदूक की गोली के सिद्धांत से नहीं बल्कि मतदान से निकलती है। कहने का अर्थ है कि हमारी लोकतांत्रिक शक्ति और विचार की जीत हुई, विदेशी अवधारणा माओवाद की पराजय हुई जो अब चीन में भी विलुप्त हो गया है। 

छत्तीसगढ़ में माओवाद ग्रसित क्षेत्रों में माओवादियों के विरोध और धमकियों की बीच मतदान हुआ और मतदान में उत्साह के साथ जनता सक्रिय थी, मतदान का प्रतिशत भी ठीक-ठाक रहा। छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में माओवाद की कैसी ङ्क्षहसा, कैसी पकड़ है, यह कौन नहीं जानता, उन क्षेत्रों में पुलिस तक जाने से डरती है, अद्र्धसैनिक बलों पर हमले होते रहते हैं, विकास के सभी काम ठप्प पड़े हुए हैं। 

माओवादियों के खिलाफ बोलने या फिर असहमति जताने वाले लोगों का रहना मुश्किल है, उन पर हिंसा बरपती है, माओवादियों की गोलियां उन पर चलती हैं। कुछ दिन पूर्व ही माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में लोकतंत्र के प्रति उत्साह को देखने-समझने गई दूरदर्शन की टीम को माओवादियों ने कैसे निशाना बनाया था, उसके कैमरामैन की किस प्रकार से हत्या हुई थी, यह भी जगजाहिर है। पत्रकारों को निशाना बनाने की हिंसा यह बताती है कि माओवाद कितना क्रूर, कितना हिंसक है। अगर ये पत्रकार तक की जान लेने में शर्मसार नहीं होते हैं तब ये आम जनता के साथ किस प्रकार से व्यवहार करते होंगे, इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। 

माओवाद तानाशाही व हिंसा का प्रतीक
सबसे बड़ी बात यह है माओवादियों ने बड़ी-बड़ी सभाएं कर आम जनता को धमकियां पिलाई थीं कि वोट करने वाले लोगों को सीधे गोलियां मिलेंगी, इस क्षेत्र से खदेड़ दिया जाएगा। माओवादियों का इतिहास भी क्रूर है। पहले भी मतदान करने वाली जनता पर माओवादी कहर बन कर टूटे हैं, पर जनता के सामने अपने जनप्रतिनिधि चुनने की चुनौती थी, जिसने यह चुनौती स्वीकारी और मतदान के लिए कूद पड़ी। इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनप्रतिनिधि ही विकास और उन्नति के प्रतीक होते हैं, अगर आम जनता लोकतांत्रिक व्यवस्था से कट जाए तो फिर विकास और उन्नति कैसे हासिल की जा सकती है। माओवाद कभी उन्नति और विकास का प्रतीक नहीं हो सकता है, वह सिर्फ तानाशाही और हिंसा का प्रतीक है। 

माओवाद क्या भारतीय जनता का आईकॉन हो सकता है? माओवाद, माक्र्सवाद, लेनिनवाद, स्टालिनवाद आदि विदेशी मानसिकताएं हैं, जो दुनिया भर में निरर्थक, अप्रासंगिक हो गई हैं। सोवियत संघ के पतन के बाद पूरी दुनिया से एक तरह से इन सभी वादों की विदाई हो चुकी है। गिने-चुने जिन राष्ट्रों में ये मानसिकताएं हैं, वहां इनके रूप-रंग बदले हुए हैं। इन सभी मानसिकताओं को पूंजी के प्रवाह से परहेज नहीं है, मजदूरवाद गौण हो चुका है, अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए पूंजी को आवश्यक मान लिया गया है। आधुनिक दौर में जहां पर भी ऐसी मानसिकताओं का थोड़ा-बहुत अस्तित्व रहा है, वहां पर खून-खराबा, तानाशाही और भुखमरी पसरी होती है, तानाशाही के प्रताडि़त और शोषित लोग अपने देश को छोड़कर पलायन करने के लिए मजबूर होते हैं। 

लातिनी अमरीकी देश वेनेजुएला एक सशक्त और मजबूत अर्थव्यवस्था वाला देश था लेकिन 1999 में वहां पर ह्यूगो शावेज नामक एक व्यक्ति पूंजी के खिलाफ सत्ता पर बैठ गया। शावेज अमरीका को समाप्त करने की कसमें खाता रहा। उसकी इस सनकी भरी नीति पर दुनिया भर के कम्युनिस्ट तालियां बजाते थे और कहते थे कि दुनिया में माओवाद, माक्र्सवाद, लेनिनवाद, स्टालिनवाद की वापसी हो रही है। दुष्परिणाम बहुत ही दर्दनाक और भयानक हो गया। वेनेजुएला की अर्थव्यवस्था चौपट हो गई, महंगाई इतनी बढ़ी कि आम आदमी त्राहिमाम करने लगा। भूख और तंगहाली फैल गई, जिस कारण वेनेजुएला की जनता अपने देश से पलायन करने लगी। लाखों लोग अपना देश छोड़कर लातिन अमरीकी देशों में शरणार्थी बनने के लिए बाध्य हुए। 

चीन में भी दफन हो चुका है माओवाद
माओवाद तो चीन में भी दफन हो चुका है। चीन में कहने के लिए कम्युनिस्ट तानाशाही है, पर चीन आज की तारीख में एक पूंजीवादी देश है। चीन की अर्थव्यवस्था पूंजी आधारित है। माओ त्से तुंग की क्रांति के अवशेष तक नहीं हैं। मजदूरों-किसानों के हित की बात गौण हो गई है। चीन में एक श्रम कानून बड़ा ही अमानवीय है। इस कानून का नाम ‘हायर एंड फायर’ है। इस कानून के तहत कोई भी कम्पनी अपनी मनमर्जी से मजदूर रख और निकाल सकती है। मजदूर अपने हक के लिए आंदोलन नहीं कर सकते हैं। आंदोलन करने पर कड़ी सजा है। चीन में मानवाधिकार की बात सोची तक नहीं जा सकती है। 

यही कारण है कि दुनिया भर की कम्पनियां सस्ते मजदूरों के लालच में चीन में अपनी इकाइयां लगाती हैं। अगर सस्ती श्रम व्यवस्था नहीं होती और श्रम तथा अन्य कानूनों से छूट नहीं मिली होती तो चीन में दुनिया भर की कम्पनियां क्यों और किसलिए जातीं? अधिकतम लाभ अर्जित करना पूंजी का सिद्धांत है। माओवाद भारत की जनता का आईकॉन क्यों नहीं बन सकता है? इसके पीछे कौन-कौन से अवरोधक बिन्दू हैं, जिन पर विचार किया जाना चाहिए। सबसे पहली बात तो यह है कि माओवाद एक विदेशी व ङ्क्षहसक अवधारणा है, एक शत्रु अवधारणा है। 

भारत के माओवादी चाहे जितनी भी ङ्क्षहसा कर लें, चाहे जितना भी खून बहा दें, आगे भी सालों-सालों जंगली क्षेत्रों में हाहाकार मचाते रहें पर भारत की जनता माओवाद को नहीं अपना सकती है। भारत में माओवाद तो उसी दिन दफन हो गया था जिस दिन माओ त्से तुंग ने भारत पर हमला किया था और जिस दिन माओवादियों तथा कम्युनिस्ट पार्टियों ने माओ त्से तुंग को अपना आईकॉन, अपना गॉडफादर घोषित किया था। चीनी सैनिकों के स्वागत में बैनर लगाए थे, भारतीय रक्षा उत्पादन कारखानों में हड़ताल कराई थी ताकि भारतीय सैनिकों को हथियार उपलब्ध न हो सकें और चीनी सैनिकों की जीत हो सके। 

भारत के माओवादी माओ त्से तुंग की बदौलत भारत में कम्युनिस्ट सरकार कायम करना चाहते थे। आज भी माओवादी और कम्युनिस्ट पाॢटयां चीन को हमलावर या फिर माओ त्से तुंग को रक्तपिपासु मानने से इंकार करती हैं। माओ त्से तुंग ने लगभग एक करोड़ गरीब जनता को अपने देश में भूखे मार दिया था। जिस माओ त्से तुंग ने हमारे पांच हजार सैनिकों की हत्या की थी, हमारी 90 हजार वर्ग मील भूमि कब्जाई थी, उस माओ त्से तुंग को देश की जनता कैसे स्वीकार कर सकती है? 

नेपाल के माओवादियों से भी भारत के माओवादी सीख लेने के लिए तैयार नहीं हैं। नेपाल में माओवादियों ने तानाशाही छोड़कर लोकतंत्र को अपना लिया है। आज माओवादी संसदीय प्रणाली के वाहक हैं, चुनाव के माध्यम से सत्ता हासिल करते हैं। नेपाल की कम्युनिस्ट सत्ता भी देश भक्ति और राष्ट्रीयता की कसौटी पर चलती-बढ़ती है, पर भारत के माओवादी देशभक्ति और राष्ट्रीयता को बुरी चीज मानते हैं। अभी भी ये माओ त्से तुंग के सिद्धांत से अलग हटने को तैयार नहीं हैं। माओवादी जब तक ङ्क्षहसा नहीं छोडेंग़े तब तक प्रतिहिंसा उन पर टूटती रहेगी। छत्तीसगढ़ की जनता की हिम्मत की प्रशंसा करनी चाहिए। राज्य सत्ता को भी चाकचौबंद रहना चाहिए ताकि मतदान करने वाली जनता को सुरक्षा मिले।-विष्णु गुप्त


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Pardeep

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