जमीनी स्तर पर कटु हकीकतों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता

punjabkesari.in Saturday, Nov 03, 2018 - 05:24 AM (IST)

गत सप्ताह नई दिल्ली में अपने अटल बिहारी वाजपेयी मैमोरियल लैक्चर में वित्त मंत्री अरुण जेतली कई अत्यंत संवेदनशील मुद्दों को ध्यान में लाए जिनका असर देश में बदलते समय तथा बदलती स्थितियों के साथ भारतीय समाज के खुद को सामंजस्य के साथ विकसित करने के तरीके, जिसमें एक मूलभूत अधिकार दूसरे की अवहेलना या ‘समाप्त’ न करे, पर पडऩा लाजिमी है। उन्होंने कहा कि जिस संवैधानिक सभा ने ‘बराबरी तथा गरिमा का अधिकार दिया है उसी ने धर्म तथा धार्मिक संस्थाओं के संचालन का अधिकार भी दिया है।’ 

इस संदर्भ में उन्होंने एक प्रश्र उठाया कि क्या एक मूलभूत अधिकार किसी दूसरे का उल्लंघन या अवहेलना कर सकता है? क्या एक-दूसरे को अपने में शामिल कर सकता है? इसका उत्तर उनके अनुसार न है, जो सही भी है। उन्होंने कहा कि दोनों की ही मौजूदगी चाहिए और इसलिए दोनों को ही आपस में सामंजस्य बनाकर अपना अस्तित्व बनाए रखना होगा। अरुण जेतली एक बढिय़ा अधिवक्ता हैं, जिन्होंने कई संवेदनशील मामलों में अपनी प्रखर बुद्धि का प्रदर्शन किया है। यह कहते हुए उन्होंने ईमानदारी बरती कि वह ‘अपनी निजी राय दे रहे हैं।’ मैं बात करने तथा स्वतंत्रतापूर्वक व निडर होकर अंतव्र्यवहार करने को लेकर उनकी दुविधा तथा सीमाओं को समझ सकता हूं। हालांकि भारतीय समाज के सामने प्रमुख समस्या सामाजिक-धार्मिक मुद्दों का राजनीतिकरण है। इन दिनों हर चीज को वोट बैंक की राजनीति के नजरिए से ही देखा जाता है। किसी को इसे साबित करने के लिए अधिक दूर जाने की जरूरत नहीं है। 

विश्व प्रसिद्ध सबरीमाला मंदिर में 10 से 50 वर्ष की महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध उठाने संबंधी सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद केरल के हाल ही के घटनाक्रम को लेकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की हालिया टिप्पणी पर जरा करीब से नजर डालें। जो लोग प्राचीन परम्परा को बनाए रखने के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं, उनके कारण महिलाएं मंदिर में प्रवेश करने में असफल रही हैं। अरुण जेतली का विचार यह है कि व्याख्यात्मक प्रक्रिया में दो तरह के मूलभूत अधिकारों को समरसता के साथ रहने की इजाजत देने के लिए तरीके तलाशने हेतु विशेष शासनकला की जरूरत है। 

सैद्धांतिक रूप से मैं माननीय वित्त मंत्री से सहमत हूं कि समाज ‘सरकार से मिलने वाले आदेशों की बजाय अपनी खुद की प्रक्रियाओं के माध्यम से’ सुधार ला सकता है। यहां महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि विभिन्न राजनीतिक असंगतियों, बढ़ रही असहिष्णुता तथा इन दिनों आम देखी जाने वाली हिंसा की कार्रवाइयों के बीच आज भारतीय समाज में वह आदर्श स्थिति कहां दिखाई देती है? अटल बिहारी वाजपेयी निश्चित तौर पर अपने समय के सबसे ऊंचे कद के नेता थे। वह एक दूरद्रष्टा थे और हिंदुत्व की भावना को बनाए रखते हुए जनता के सामने अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को सफलतापूर्वक पेश किया। निश्चित तौर पर उन्होंने भारत के अत्यंत पेचीदा राजनीतिक परिदृश्य में भलाई करने वाले पिता की छवि बनाई। संभवत: हम आम तौर पर संघ परिवार तथा अन्य के साथ उनके सामने आने वाली समस्याओं को लेकर उनके साथ सहानुभूति जताते हैं। हमें भारतीय समाज की भलाई के लिए उनके दर्शन की समीक्षा करने की जरूरत है। 

मुझे वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से बहुत आशाएं हैं, जो भावपूर्ण ढंग से ‘भारत बदलो’ की बात करते हैं। मुझे उनसे वाजपेयी की विरासत को भी झूठी आशाएं जगाए बिना आगे बढ़ाने की आशा है, जो देश का ध्यान कड़ी जमीनी हकीकतों से भटकाते हैं। मेरी वर्तमान भाजपा नीत राजग शासन के प्रति निर्णायक बनने की इच्छा नहीं है मगर इसके साथ ही मेरा विचार यह है कि अभी तक सत्ता अधिष्ठान द्वारा जो भी उपलब्धियां प्राप्त की गई हैं, उनकी ‘खुशियां’ मनाने की बजाय इसे चीजों पर कड़ी नजर डालने की जरूरत है कि वे कैसे हो रही हैं। जमीन पर ठोस कार्रवाइयों तथा ‘बातें करने’ के बीच एक लंबे अंतर को देखना काफी परेशान करता है। इस प्रक्रिया में ऐसा दिखाई देता है कि देश गरीबों, सुविधाहीनों, समाज में बेरोजगार वर्गों की बेहतरी के लिए जरूरी बदलाव लाने का एक ऐतिहासिक मौका गंवा रहा है। दरअसल अब हमें देश के सामने वास्तविक मुद्दों तथा समस्याओं के प्रति सत्ताधारी वर्ग की बढ़ती असंवेदनशीलता दिखाई देती है। 

मेरा बिन्दु साधारण है: क्या हम मामलों तथा मुद्दों को एक व्यापक परिदृश्य में देखना शुरू कर सकते हैं? हर मामले में गुणवत्ता सबसे ऊपर होनी चाहिए न कि सही समय पर किसी के द्वारा तार खींचने की क्षमता। सत्तासीन लोगों द्वारा अपने दिल से सोचने पर बदलती हुई वैश्विक व्यवस्था के साथ-साथ हमारे समाज की विभिन्न जरूरतों के प्रति उनका नजरिया बदलने में मदद मिल सकती है। सबरीमाला के मामले में मेरा एकमात्र अफसोस यह है कि शीर्ष अदालत ने राज्य सरकार को यह कहने के सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दे को नजरअंदाज कर दिया कि मंदिर तक जाने के लिए महिलाओं के लिए एक सुरक्षित मार्ग बनाए तथा एक व्यापक पारम्परिक फ्रेमवर्क के भीतर उनके बराबरी तथा गौरव के अधिकार को सुनिश्चित करे। 

निश्चित तौर पर अरुण जेतली का कहना सही है कि देश किसी भी संस्था अथवा सरकार से ऊंचा है। हालांकि मैं उनकी इस बात के साथ नहीं जाना चाहता कि चुनी हुई सरकार का अधिकार ‘गैर जवाबदेह संस्थानों’ से बड़ा है। बहुत कुछ हमारी विधायिकाओं के चुने हुए सदस्यों की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। यह याद रखने की जरूरत है कि संसद हमारे लिखित संविधान की रचना है न कि उसकी रचयिता। हम जमीनी स्तर पर कटु हकीकतों को नजरअंदाज नहीं कर सकते। यह सर्वविदित है कि देश में संसद तथा राज्य विधानसभाओं में कम से कम 1765 जनप्रतिनिधि आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे हैं। यह भारत में सभी जनप्रतिनिधियों का एक-तिहाई से कुछ अधिक बनता है। यह हमारे संसदीय लोकतंत्र के स्वस्थ विकास के लिए अच्छी स्थिति नहीं है। यदि हमारे चुने हुए प्रतिनिधियों की गुणवत्ता खजाने की कीमत पर आपराधिक कार्रवाइयों तथा धन बनाने में नहीं डूबती तो कहानी अलग होगी। 

निश्चित तौर पर हमारी सभी संस्थाएं, चुनी हुई हों या व्यावसायिक, उन्हें संविधान में उनके लिए निर्दिष्ट विशेष उद्देश्य तथा जरूरी स्वायत्तता के अनुसार निष्पक्षतापूर्वक कार्य करना चाहिए। चुनाव आयोग, आर.बी.आई. अथवा अन्य सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं का सत्ताधारियों द्वारा दुरुपयोग जनता की नजरों में उनकी वैधता तथा अधिकार को कम करता है। हम निश्चित तौर पर अपनी कार्यशील संस्थाओं को समकालीन सत्ताधारी वर्ग के ‘पिंजरे के तोते’ के रूप में नहीं देखना चाहते।-हरि जयसिंह


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Pardeep

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