आखिर कहां हैं पंजाब के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ की जड़ें

punjabkesari.in Friday, Nov 02, 2018 - 04:21 AM (IST)

पंजाब हमेशा ही अपने डील-डौल को लेकर भ्रम में रहा है कि वह स्वस्थ है, जबकि 90 के दशक के बाद के आॢथक दौर के साथ ही इसके स्वास्थ्य में गिरावट शुरू हो गई थी। 

पहले-पहल यह केवल केरल से स्वास्थ्य के मामले में पीछे था मगर इस दौर के बाद इसके स्वास्थ्य में लगातार गिरावट आई और यह केरल के साथ-साथ तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात और यहां तक कि हरियाणा व हिमाचल से भी स्वास्थ्य के लिहाज से पिछड़ गया है। इसकी मालवे की कपास पट्टी इस समय ‘कैंसर पट्टी’ बन गई है और दोआबे को दिल के रोगों ने खा लिया है। बाकी पंजाब का भी जैसे पैरालाइज्ड बुजुर्ग की तरह एक हिस्सा मरा पड़ा है। 

अब प्रश्र यह भी उत्पन्न होता है कि फलता-फूलता पंजाब, विशेष कर हरित क्रांति के बाद का पंजाब आखिर बीमारियों की चपेट में कैसे आ गया और इसकी वर्तमान हालत कैसी है? इन प्रश्रों की जड़ें हरित क्रांति के बाद ही पंजाब की अर्थव्यवस्था में हैं, जिस समय पंजाब में प्रति व्यक्ति आय बहुत अधिक थी और 90 के दशक के समय पंजाब को एक प्रयोगशाला की तरह इस्तेमाल किया गया। पंजाब में विश्व बैंक की 400 करोड़ रुपए की सहायता से ‘पंजाब हैल्थ सिस्टम्स कार्पोरेशन’ बनाया गया। 

हमें यह मालूम होना चाहिए कि पंजाब में इस समय जो स्वास्थ्य प्रणाली है, वह तीन पक्षों के पास है। पंजाब सरकार के पास जिला स्तरीय प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, मैडीकल कालेज आदि हैं। इसी तरह पंचायती राज के पास ग्रामीण स्वास्थ्य से संबंधित डिस्पैंसरियां वगैरा हैं और पंजाब हैल्थ सिस्टम्स कार्पोरेशन के पास वे बड़े-बड़े अदारे हैं, जिनको इसके बनने के समय ही ‘टारगेट’ किया गया था। ये लगभग 150 संस्थाएं थीं जो उस समय शिखर पर थीं और इन पर लोगों का विश्वास भी बहुत था। 

प्रयोग यह किया गया कि इन सभी संस्थाओं में सबसे पहले ‘यूजर चार्जिज’ शुरू किए गए। यह पंजाब की नब्ज पहचानने के लिए था कि इसके पास कितने लोग हैं, जो अपने स्वास्थ्य पर खर्च कर सकते हैं और कहां तक। पंजाब में निजी अस्पतालों की पकड़ बनाने की खातिर यह सबसे पहला प्रयोग था। फिर हमने देखा कि कैसे फोर्टिस, आई.वी., आई.वी.वाई., अपोलो, मैक्स आदि पंजाब में आए। इसके साथ ही पंजाब में अन्य बड़े-बड़े अस्पताल खुलते गए। पंजाब में जालंधर तथा फगवाड़ा तो सम्भवत: अस्पतालों की संख्या में दुनिया का रिकार्ड तोड़ रहे हों। 

अब स्वास्थ्य के साथ क्या हुआ? स्वास्थ्य के साथ यह हुआ कि कृषि लागत कम करने तथा मुनाफा बढ़ाने की जैसे दौड़ लग गई। पैसा तथा पदार्थ व्यक्ति पर भारी पड़ गए। हरित क्रांति की चमक ने आंखें चुंधिया दीं और पंजाब अंधी दौड़ में बीमारों की एक नस्ल ही पैदा कर गया। मालवा कैंसर लेकर बीकानेर वाली ट्रेन में बैठ गया। हमने बाहरी बीमारियां तो अपनाईं ही थीं, आत्मिक बीमारियां भी जुटा लीं। अपनी संस्कृति से टूट गए, दया-भावना समाप्त हो गई, क्षमा जाती रही। हमारे पूर्वजों की जो शिक्षाएं थीं, सूफियों का जो संदेश था, गुरुओं का जो मनुष्य की मानवता का संदेश था वह हमने भुला दिया। 

उधर निजीकरण ने लूट बढ़ा दी, धोखे बढ़ गए। केवल और केवल पैसा रह गया, व्यक्ति कहीं पीछे छूट गया। जहां भारत में 70 प्रतिशत लोग ‘आऊट ऑफ पैकेट’ स्वास्थ्य पर खर्च कर रहे हैं, वहीं अकेला पंजाब ऐसा है जहां 85 प्रतिशत लोग ‘आऊट ऑफ पैकेट’ खर्च कर रहे हैं। हमने शूगर के मरीज बढ़ा लिए, दिल के रोगी बढ़ा लिए, यह भी भ्रम ही है कि बाकी राज्यों के मुकाबले हमारी माताएं कम मरती हैं या हमारे बच्चों का स्वास्थ्य उस स्तर का है जिसको ‘गुणवत्तापूर्ण’ कहा जा सके। नहीं, हम स्वस्थ नहीं हैं। 

मेला गदरी बाबेयां दा: माक्र्स की वापसी 
पंजाब के हजारों की संख्या में कतारबद्ध होकर जालंधर के देश भगत यादगार हाल में पहुंचे लोग इस बात की गवाही देते हैं कि देशभक्त गदरी बाबों की जो विरासत है, उसकी लौ अभी भी जलती है। गदरी बाबों का यह मेला हर वर्ष नवम्बर की पहली तारीख को लगता है। इससे पांच दिन पहले ही सांस्कृतिक तथा साहित्यिक कार्यक्रम शुरू हो जाते हैं। 

इस बार का यह मेला विश्व के महान चिंतक कार्ल माक्र्स के 200वें जन्मदिन को समर्पित था। यह मेला माक्र्स को समर्पित करने का कारण बहुत गहरा है। कारण यह है कि पिछले कुछ वर्षों से माक्र्स के विचारों की दुनिया भर में पुन: वापसी के संकेत मिले हैं। विश्व के बड़े चिंतक थॉमस पिकेटी की एक पुस्तक आई-‘कैपिटल इन द ट्वंटी फस्र्ट सैंचुरी’। इस पुस्तक का महत्व यह है कि थॉमस ने खोज करके, माक्र्स की तरह ही तथ्यों को लेकर, कोटेशनें लेकर, संदर्भ लेकर, आंकड़े देकर, ग्राफ बना-बनाकर यह सिद्ध किया कि आज के पूंजीवाद का खाका भी बिल्कुल वैसा ही है जैसा कार्ल माक्र्स के समय था। इसलिए आज माक्र्स अपने समय से भी अधिक महत्वपूर्ण हैं। 

गदरी बाबेयों के मेले में माक्र्स के जीवन तथा विचारों को लेकर कमेटी द्वारा ही एक पुस्तक पंजाबी चिंतक हरविन्द्र डम्भाल से तैयार करवाई गई-‘माक्र्स: व्यक्ति, युग ते सिद्धांत’। इस पुस्तक के आधार पर ही कालेजों की टीमों में क्विज मुकाबला करवाया गया। यहां तक कि ‘द पीपुल्स वायस संस्था’ द्वारा फिल्मों को दर्शकों के रू-ब-रू किया गया। गौहर रजा की फिल्म ‘जुल्मतों के दौर में’ तथा आनंद पटवद्र्धन की ‘जमीर के बंदी’ फिल्में भी माक्र्सी नजरिए से बनी दिखाई गईं। मेले का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष पुस्तक प्रदर्शनी होता है। लाखों रुपए का साहित्य बिकता है। कवि दरबार के समय भी पंजाबी कविता के तीखे सुर ही सुनाई दे रहे थे। कवि रोमांस से ऊपर उठकर जामा मस्जिद के गुंबदों पर बैठे कबूतरों के डर की भी बात कर रहे थे और इस डर के विरुद्ध लामबद्ध हो रहे लोगों के गुस्से की भी बात कर रहे थे।-देसराज काली(हरफ-हकीकी)


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Pardeep

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