अकबर के इस्तीफे से सभी प्रश्नों का उत्तर नहीं मिल जाता

punjabkesari.in Thursday, Oct 18, 2018 - 01:23 AM (IST)

मर्यादा पुरुषोत्तम की रामलीला के बीच विदेश राज्य मंत्री मोबशर जावेद अकबर के इस्तीफे की खबर एक शुभ समाचार है। लेकिन क्या यह इस्तीफा यौन शोषण के विरुद्ध महिलाओं के आंदोलन की परिणति होगी या फिर इस आंदोलन के नए दौर की शुरूआत होगी। इस इस्तीफे के पीछे साधारण आरोप नहीं थे। अकबर के खिलाफ  पिछले दस दिनों में लगे आरोपों की बानगी देखिए। एक लड़की कहती है कि उन्होंने मुझे होटल में मिलने के लिए बुलाया और जब दरवाजा खोला तो वह सिर्फ अंडरवियर पहने खड़े थे। 

दूसरी लड़की बताती है कि अकबर ‘अंकल’ मेरे पिताजी के मित्र थे इसलिए इंटर्नशिप के लिए विदेश से उनके पास आई लेकिन उन्होंने मुझसे जबरदस्ती की। अनेक लड़कियां बताती हैं कि जब वह संपादक थे तो लड़कियों को अपने कैबिन में बुलाकर जबरदस्ती उनसे अश्लील हरकतें करते थे। अनेकों औरतें बताती हैं कि वह नौकरी का इंटरव्यू अपने दफ्तर में नहीं, होटल के कमरे में लेते थे और अभद्र प्रस्ताव रखते थे। उनके साथ काम करने वाली लगभग हर औरत कहती है कि वह औरतों को घूरते थे, अश्लील टिप्पणियां करते थे और अपनी ताकत का इस्तेमाल औरतों को फंसाने के लिए करते थे। अभी तक बलात्कार का आरोप किसी ने नहीं लगाया है लेकिन और कोई कसर बाकी नहीं है। 

अब तक कुल 20 महिला पत्रकार उन पर यौन शोषण के आरोप लगा चुकी हैं। ये आरोप अलग-अलग शहर, अलग-अलग साल और अलग -अलग अखबार के दफ्तर से हैं। आरोप लगाने वाली कई महिलाएं एक -दूसरे को जानती भी नहीं हैं। उन्हें जोडऩे वाला एक ही तार है,  ये सब जवान महिलाएं थीं, अकबर के अखबार में काम करती थीं या करना चाहती थीं या उनसे पत्रकार की हैसियत से मिलना चाहती थीं। इन सब पर बॉस की निगाह पड़ी और वे उनकी गंदी हरकतों का शिकार हुईं। अकबर का इस्तीफा इन महिलाओं की हिम्मत की जीत है जिन्होंने इतना जोखिम उठाकर मुंह खोला है। 

इस इस्तीफे को किसी राजनीतिक विचारधारा या पार्टी से जोड़कर देखना गलत होगा। एम.जे. अकबर आज भले ही भाजपा के मंत्री हों लेकिन अस्सी के दशक में वह सैकुलरवादियों के हीरो हुआ करते थे, नेहरू का महिमामंडन करते थे, सैकुलर दृष्टि से भारतीय इतिहास और समकालीन राजनीति पर लिखा करते थे। पिछले कुछ दिनों से कांग्रेस उछल-उछल कर अकबर का इस्तीफा मांग रही थी, लेकिन उन्हें राजनीति में प्रवेश देने का श्रेय भाजपा को नहीं, कांग्रेस को जाता है। राजीव गांधी के जमाने में एम.जे. अकबर उनके सलाहकार बने, बोफोर्स कांड में राजीव गांधी के बचाव में उतरे, वी.पी. सिंह के खिलाफ  सेंट किट्स घोटाले के फर्जी आरोप लगाए और इसके बदले में कांग्रेस की टिकट पाकर लोकसभा चुनाव जीता। गांधी परिवार से खटपट होने के बाद वाजपेयी की शरण में गए और अब मोदी मंत्रिमंडल में जगह पाई। 

अकबर के खिलाफ  ये आरोप किसी राजनीतिक घटनाक्रम का हिस्सा नहीं थे, बल्कि देश भर में महिलाओं के यौन शोषण के खिलाफ चल रही एक ‘मी टू’ (यानी ‘मैं भी’ यौन शोषण का शिकार हुई, मैं भी बोलूंगी) मुहिम का परिणाम थे। इस मुहिम के चलते पिछले पखवाड़े में मीडिया और फिल्म जगत की कई बड़ी हस्तियों की काली करतूतों का पर्दाफाश हुआ है। कई संपादकों को पद छोडऩे पड़े हैं, कई संस्थाओं में लोगों ने इस्तीफे दिए हैं, कई हस्तियों का बहिष्कार हुआ है। बहुत साल बाद औरतों को मुंह खोलने का मौका मिला है, बड़े-बड़े इज्जतदारों के ताज उछले हैं, मर्द सत्ता का तख्त हिला है। अगर इसके पीछे कोई विचारधारा है तो नारीवाद की विचारधारा है। अगर कोई राजनीति है तो महिला आंदोलन की राजनीति है। 

इस इस्तीफे से कुछ अटकलों पर तो विराम लग जाता है लेकिन सभी सवालों का जवाब नहीं मिलता। आखिर इतने संगीन आरोपों का सामना करने के बाद भी अकबर से तुरंत इस्तीफा क्यों नहीं मांगा गया? विदेश यात्रा से वापस आने पर इस्तीफे की बजाय अकबर ने बेशर्मी भरा बयान दिया, सभी आरोपों को झूठा और राजनीति से प्रेरित बताया और पहला आरोप लगाने वाली महिला पर मानहानि का मुकद्दमा और ठोंक दिया। जाहिर है उस वक्त उन्हें पार्टी और सरकार के मुखिया का आशीर्वाद प्राप्त था। सवाल है कि भाजपा को नैतिकता इतनी देर से क्यों याद आई? 

इस्तीफा तो आ गया है लेकिन सरकार ने इसके कारण नहीं बताए हैं,आगे क्या होगा,  यह स्पष्ट नहीं किया है। क्या इस्तीफे भर से मामले की इतिश्री हो जाएगी? सरकारों की रवायत है कि जब भी किसी अफसर के विरुद्ध संगीन आरोप लगते हैं तो बस उसका तबादला कर दिया जाता है और मान लिया जाता है कि तबादले से न्याय हो गया। क्या अकबर के मामले में भी यही रस्म निभाई जाएगी? या कि उन्हें अग्निपरीक्षा से गुजरने को कहा जाएगा? क्या एक ईमानदार सार्वजनिक जांच नहीं होनी चाहिए जिससे दूध का दूध और पानी का पानी हो जाए? 

जब इतने गंभीर आरोपों के बावजूद एम.जे. अकबर जैसे हल्के नेता को मंत्रिमंडल में बनाए रखने का संदेश आया था तो सरकार की मंशा के बारे में दो कयास लगे थे। या तो प्रधानमंत्री अपनी मजबूती का संदेश देना चाहते थे, मानो कह रहे हों कि महिलाओं की चिल्ल-पौं से मैं विचलित नहीं होता। यह यौन शोषण झेलने वाली इस देश की हर औरत के लिए मायूसी का कारण बना था। क्या हम मान लें कि अकबर के इस्तीफे से इस संदेह का निराकरण हो गया? क्या प्रधानमंत्री को यौन शोषण के सवाल पर अपनी चुप्पी तोडऩी नहीं चाहिए? 

अकबर से तुरंत इस्तीफा मांगने से एक दूसरा कयास लगा था कि प्रधानमंत्री को अंदेशा है कि आज एम.जे. अकबर का नंबर है, फिर उनके कई राजनीतिक सहयोगियों का नंबर आएगा। दिल्ली का हर पत्रकार उस किस्से को जानता है जिसमें नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री काल में गुजरात के आतंकवादी विरोधी सैल को एक महिला की जासूसी करने के लिए लगाया गया था। एक ऑडियो निकली थी जिसमे उस महिला के निजी जीवन की हर पल की जानकारी अमित शाह फोन पर ले रहे थे। फोन में बार-बार ‘साहब’ का जिक्र होता है। मीडिया के सहयोग से वह मामला तब दब गया था। लेकिन प्रधानमंत्री को कहीं यह तो नहीं लगता कि बात एम.जे. अकबर के बहाने से निकली है लेकिन दूर तलक जाएगी! क्या मीडिया उस खबर को उठाने की हिम्मत दिखाएगा? 

यह इस्तीफा मी टू आंदोलन की आवाज उठाने वालों के लिए भी एक सवाल छोड़ता है। क्या वे इस बड़ी सफलता पर जश्न मना कर रुक जाएंगी या अपने आंदोलन को और आगे और गहरे तक ले जाएंगी? यौन शोषण के विरुद्ध महिलाओं की आवाज अभी सिर्फ मीडिया और फिल्म जगत में उठी है। इसे राजनीति, शिक्षा, व्यापार से लेकर घर परिवार के भीतर जाने की जरूरत है। यह आवाज बड़े शहरों में उठी है। इसे कस्बे और गांव देहात तक जाने की जरूरत है। क्या इस अच्छी बोहनी से एक बड़ा आंदोलन खड़ा होगा? रामनवमी के दिन यह उम्मीद तो रखनी चाहिए।-योगेन्द्र यादव


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Pardeep

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