सरकार का दबाव और हांफता बैंकिंग तंत्र

punjabkesari.in Tuesday, Sep 18, 2018 - 04:25 AM (IST)

बैंकिंग प्रणाली किसी भी अर्थव्यवस्था का आधारभूत स्तंभ मानी जाती है। बाजार में पूंजी के स्थायी एवं संतुलित प्रवाह के लिए उत्तरदायी होने के साथ-साथ व्यवस्था के समुचित प्रबंधन व सटीक संचालन की जिम्मेदारी भी इसी प्रणाली पर टिकी होती है। हमारे देश में बैंकों का नैटवर्क शहरों से लेकर सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों तक फैला है और लाखों कर्मचारी बैंकिंग प्रणाली से जुड़े हैं। देश के करोड़ों लोगों के बैंकों में खाते हैं, चाहे ये बैंक सरकारी क्षेत्र के हों या निजी क्षेत्र के। 

चिटफंड कंपनियों की धोखाधड़ी से आजिज आए लोगों की देश की बैंकिंग प्रणाली में अगाध आस्था है, लेकिन यही बैंकिंग प्रणाली पिछले कुछ समय से हिचकोले खा रही है और बैंकिंग तंत्र चरमराता जा रहा है। काम के बोझ तले दबे कर्मचारियों के बीच असंतोष का भाव तेजी से बढ़ रहा है और सरकारी तंत्र इस असंतोष का हल निकालने के प्रति बिल्कुल उदासीन दिखता है। पिछले चार-सवा चार सालों से बैंक कर्मचारी सरकार की योजनाओं को अमलीजामा पहनाने के लिए बिना रुके और बिना थके काम कर रहे हैं। चाहे जन-धन योजना हो या मुद्रा योजना, नोटबंदी का दौर हो या अटल पैंशन योजना, इन्हें सिरे चढ़ाने में बैंक कर्मचारियों ने दिन- रात काम किया है और इस वजह से उन पर काम का बोझ व मानसिक दबाव भी बढ़ा है। 

मोदी सरकार भी 15 अगस्त 2014 से पिछले साल तक जन-धन खाता योजना के तहत 15 करोड़ गरीब लोगों के खाते खोल कर एक विश्व रिकॉर्ड बनाने का दावा कर रही है लेकिन सरकार की इस कवायद के बावजूद असलियत यह है कि इनमें से 75 फीसदी खातों में कोई पैसा ही नहीं है। सरकार की इस योजना को सिरे चढ़ाने के लिए पहले तो बैंक कर्मियों ने महीनों दिन-रात काम किया और अब यही बैंक कर्मी खाताधारकों के सवालों का जवाब देने और उन्हें संतुष्ट करने में मगजमारी कर रहे हैं। हजारों ऐसे खाताधारकों को उम्मीद थी कि सरकार ने अगर उनके खाते खोले हैं तो उसमें वह पैसे भी डालेगी लेकिन हकीकत में जब ऐसा नहीं हुआ तो खाताधारक बैंक कर्मियों से उलझते फिर रहे हैं। बैंक कर्मियों के लिए इधर कुआं उधर खाई जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई है। 

वैसे आज भी देश में लाखों परिवार ऐसे हैं जिन्हें बैंकों की कार्यप्रणाली की जानकारी ही नहीं है और न ही उनके क्षेत्र में बैंकों की शाखाएं हैं। हजारों ऐसे भी लोग हैं जिनके पास अभी आधार कार्ड भी नहीं पहुंचा है और बैंकों में खाता खुलवाने और बैंक खाते को लिंक करने के लिए आधार कार्ड का होना सबसे जरूरी है। जन-धन योजना के तहत भी केवल सरकारी बैंकों ने ही खाते खोले हैं और निजी बैंकों ने सरकार की इस योजना से कमोबेश दूरी बनाए रखी है। आर्थिक विशेषज्ञों का भी यह मानना है कि सिर्फ बैंक खाता खोलना और रिकॉर्ड बनाना ही सरकार का लक्ष्य नहीं होना चाहिए, बल्कि लोगों को बैंकों में राशि जमा करवाने और इसके हस्तांतरण व लेन-देन के लिए प्रेरित व जागरूक किया जाना चाहिए। 

केंद्र की मोदी सरकार ने बैंक प्रणाली पर अपनी निर्भरता काफी बढ़ा दी है लेकिन बैंकिंग सुधार का मुद्दा अभी भी गौण बना हुआ है। बैंकों के आंतरिक प्रशासन में सुधार लाने के साथ-साथ बाहरी राजनीतिक- विधिक प्रणाली को बेहतर बनाने की दिशा में कुछ खास नहीं किया गया है। सरकारी बैंकों को कामकाज संबंधी स्वायत्तता भी नहीं दी गई है, जबकि बैंकों के लिए सरकार की ओर से पैसे के उपयोग को लेकर अनेक सीमाएं व बाध्यताएं तय कर दी गई हैं। बैंकों पर अपनी पूंजी के स्रोत बढ़ाने का दबाव अलग से है। 

पिछले कुछ अर्से से बैंकों से ऋण लेकर कई प्रभावशाली व्यक्तियों द्वारा विदेश भाग जाने से भी बैंकिंग तंत्र कटघरे में नजर आ रहा है। यह भी विडंबना ही है कि सरकार हजारों करोड़ों की धोखाधड़ी करके विदेश भाग जाने वाले उद्योगपतियों की धरपकड़ में तो नाकाम रही है लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के कर्मचारियों को पकड़ कर खानापूर्ति की जा रही है। क्या यह कड़वा सच नहीं है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर राजनीतिक नियंत्रण की वजह से बैंकिंग सिस्टम में कई बुराइयां घुसपैठ कर गई हैं। क्या यह भी सच नहीं है कि देश के बैंक एन.पी.ए. के रूप में फंसे जिन कर्जों के बोझ तले कराह रहे हैं, ऐसे ज्यादातर कर्जे बैंकों के अधिकारियों व कर्मचारियों द्वारा प्रभावशाली राजनेताओं के दबाव की वजह से दिए गए। 

राजग सरकार भी इसकी जवाबदेही से नहीं बच सकती। बैंक अधिकारियों पर अपने किसी खास व्यक्तियों या कंपनियों को ऋण देने के लिए दबाव डालने वाले कितने नेताओं को सलाखों के पीछे भेजने की हिम्मत केंद्र सरकार दिखा पाई। भारी-भरकम एन.पी.ए. यानी फंसे कर्जों की समस्या से दो-चार हो रहे बैंकिंग तंत्र को इस स्थिति से उबारने के लिए मोदी सरकार ने अब तक क्या किया? सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को राजनीतिक दबाव से अछूता रखने के लिए कौन सी नीति बनाई गई? क्या बैंक अधिकारी व कर्मचारी ही बैंकिंग तंत्र में आई खामियों के लिए जिम्मेदार हैं? क्या सरकार ने सार्वजनिक व निजी क्षेत्र के बैंक कर्मचारियों के लिए एक समान नियम-कायदे बनाए हैं? 

नाजुक दौर से गुजर रही देश की अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने के लिए कारगर उपाय करने की बजाय सरकार अभी भी प्रयोग करने में लगी है और एक प्रयोग बैंकों के विलय के प्रस्ताव का भी है लेकिन क्या इससे बैंकिंग तंत्र की शीर्षस्थ कार्यप्रणाली पारदर्शी हो जाएगी और काम के बोझ से दबे बैंक अधिकारियों व कर्मचारियों को राहत मिल पाएगी? बैंकों के विलय से पूर्व बैंकिंग प्रणाली से जुड़े लाखों कर्मचारियों के हितों को देखना भी जरूरी है। क्या यह कड़वी हकीकत नहीं है कि देश के बहुत से संपन्न लोग भी बैंकों से पैसा उधार लेकर बैठे हैं और जब कर्ज चुकाने की बात आती है तो वे खुद को गरीबों की श्रेणी में खड़ा कर लेते हैं और बैंक प्रबंधन पर राजनीतिक दबाव डलवाने से भी नहीं चूकते। 

देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए बैंकिंग सिस्टम में सुधार लाना और उसे सुदृढ़ करना समय की मांग है। साथ ही लाखों बैंक कर्मचारियों के हितों को भी सुरक्षित रखते हुए उन्हें संतुष्ट करना सरकार की जिम्मेदारी है, तभी वे दोगुने जोश व उत्साह से काम करेंगे और जनता का भरोसा जीत पाएंगे।-राजेन्द्र राणा(विधायक हिमाचल प्रदेश)


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Pardeep

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