‘राफेल’ की कीमत का खुलासा करने से क्यों बच रही है सरकार

punjabkesari.in Sunday, Sep 16, 2018 - 03:49 AM (IST)

यह इस पर निर्भर करता है कि राफेल सौदे के बारे में आप किससे बात कर रहे हैं या तो वह घोटाले तथा विवाद के दलदल में घिरा हुआ या जर्जर पारदॢशता का प्रतीक होगा। 2 स्थितियों के बिल्कुल विपरीत होने बारे सोचना बहुत कठिन है। इसलिए आराम से बैठकर उस बारे सावधानीपूर्वक सोचना अच्छा विचार हो सकता है, जो हमें बताया गया है और फिर पूछा जाए कि ये क्या करने के लिए कहते हैं। 

मैं तीन बातों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहूंगा। पहली, विमानों की संख्या 126 से 36 तक घटाने का निर्णय। क्या ऐसा वायुसेना की जरूरतों की उपेक्षा करके हुआ? यदि सरकार ने अब 100 से अधिक विमानों के लिए एक अन्य निविदा जारी की है तो संख्या में कमी को कैसे न्यायोचित ठहराया जा सकता है? एक सितम्बर को पूर्व वायुसेना प्रमुख कृष्णास्वामी ने लिखा था कि 2014 में वायुसेना ने दो स्क्वाड्रनों यानी कि 36 विमानों की तुरंत आवश्यक खरीद के लिए आवेदन किया था। वर्तमान वायुसेना प्रमुख बी.एस. धनोआ ने यह दावा करते हुए इस ‘आपात खरीद’ का बचाव किया कि अतीत में इसी तरह की खरीद के कई उदाहरण हैं। ऐसी परिस्थितियों में 2 स्क्वाड्रन आदर्श संख्या है। 

दूसरा मुद्दा कीमत है। नवम्बर 2016 में सरकार ने संसद को बताया कि एक राफेल विमान की लागत 670 करोड़ रुपए होगी। एक वर्ष बाद डसाल्ट तथा रिलायंस डिफैंस दोनों ने दावा किया कि कीमत 1660 करोड़ रुपए होगी। बाद की संख्या को लेकर कइयों ने दावा किया कि विमान कांग्रेस द्वारा की जाने वाली बातचीत के मुकाबले उल्लेखनीय रूप से कहीं अधिक महंगे हैं। हालांकि अरुण जेतली ने इस बात पर जोर दिया कि जिस कीमत पर यू.पी.ए. बातचीत कर रही थी उसमें कीमतें बढऩे तथा मुद्रा के उतार-चढ़ाव की गुंजाइश थी और इसलिए आज प्रति विमान की कीमत कांग्रेस द्वारा सामान्य विमान को लेकर राजग द्वारा की जाने वाली बातचीत से 9 प्रतिशत अधिक होगी तथा आयुध से लैस विमान की 20 प्रतिशत अधिक। वायुसेना के पूर्व प्रमुख ए. नांबियार तो एक कदम और आगे चले गए। उनका कहना है कि वर्तमान राफेल सौदा पहले के मुकाबले 40 प्रतिशत सस्ता है। 

इस संबंध में वर्तमान सरकार की स्थिति में बदलाव देखना मजेदार है। शुरू में इसने दावा किया था कि प्रति विमान ऊंची कीमत का कारण भारत-प्रशांत एड-ओन्स थे। जब अरुण शौरी तथा यशवंत सिन्हा ने 2015 के समझौते का खुलासा करते हुए स्पष्ट किया कि राजग उसी मानदंडों के साथ विमानों की खरीद कर रही है, जैसे यू.पी.ए. कर रही थी तो सरकार इस विषय पर चुप हो गई। तीसरा मुद्दा अनिल अम्बानी की रिलायंस डिफैंस को 30,000 करोड़ रुपए के ऑफसैट्स सौंपने का है। आलोचकों का कहना है कि इस कम्पनी को विमान बनाने का कोई अनुभव नहीं है और यह ऋणों के भारी बोझ से दबी है। उनके अनुसार यह क्रोनी कैपिटलिज्म है। अपने बचाव में रिलायंस के सी.ई.ओ. ने कहा कि डसाल्ट के पास किसी भी भारतीय सांझीदार, जिसे वे चुनते हैं, को ऑफसैट देने का अधिकार है, यह एक ऐसा ङ्क्षबदू है जिसे रक्षा मंत्री अपने हालिया साक्षात्कारों में उठा चुकी हैं। दूसरे, 36 विमानों का कोई कलपुर्जा भारत में नहीं बनाया जाएगा। 

तीसरे, यह कोई गोपनीय बात नहीं है कि डसाल्ट तथा हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लि. (एच.ए.एल.) 126 विमानों के सौदे को लेकर किसी समझौते पर नहीं पहुंच सके। इसलिए यह हैरानी की बात नहीं है कि इस बार डसाल्ट एक अलग सांझीदार चुनेगी। ये स्पष्टीकरण प्रभावशाली हो सकते हैं मगर तथ्य यह है कि डसाल्ट के सी.ई.ओ. एरिक ट्रेपियर ने कहा है कि रिलायंस के साथ संयुक्त उद्यम उसके राफेल विमानों के लिए कलपुर्जों का निर्माण करेगा। एकमात्र प्रश्र यह है कि क्या यह सौदा भारत के लिए विमानों को खरीदने का है या अन्य देशों के लिए निर्माण करने का? मेरे विचार में इस सबका परिणाम केवल अनिश्चितता ही नहीं बल्कि भ्रांतियां हैं। कोई संदेह नहीं कि इसे लेकर गम्भीर प्रश्र उठाए गए मगर इतना ही महत्वपूर्ण यह है कि हमारे पास स्पष्ट उत्तर नहीं हैं। जब तक आप कोई पक्ष नहीं लेंगे, सम्भवत: नहीं जानेंगे कि क्या सोचना है। 

इसलिए जब शौरी तथा सिन्हा ने नए राफेल सौदे को अतीत में हुए घोटालों से कहीं अधिक बड़ा बताया तो यह दिमाग में रखा जाना चाहिए कि अभी तक इसमें धन के लेन-देन का कोई प्रत्यक्ष संकेत नहीं मिला है। मगर इसका यह अर्थ नहीं कि ये विचलित करने वाले प्रश्र नहीं हैं और  कीमत का खुलासा करने से सरकार अजीब तरीके से बच रही है जो केवल संदेह को और बढ़ाता है। दावा यह किया जा रहा है कि एक गोपनीयता शर्त के कारण इस संबंध में खुलासा नहीं किया जा सकता। ऐसा दिखाई देता है कि सरकार अपने खुद के लिए मामले को और अधिक बदतर बना रही है।-करण थापर


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Pardeep

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